IRMS – भारतीय रेल प्रबंधन सेवा की चुनौतियां
यदि प्रशिक्षण मौजूदा रंग-ढ़ंग, अफसरशाही, हाकिम बनने के अंदाज में दिया जाता रहा, तो यह बिल्कुल वैसा ही होगा कि आपने ऑर्गेनिक सब्जी तो उगाई, लेकिन तेल-मसाले ऐसे डाले और पकाया कि उसका कुछ अंजाम हासिल नहीं हुआ!
राजनीतिक दखलअदाजी, पोस्टिंग, ट्रांसफर में जाति, क्षेत्र पर आधारित सिफारिशों पर जब तक कड़ाई से अंकुश नहीं लगेगा, तब तक केवल नाम बदलने से रेलवे का उद्धार नहीं होने वाला है!
नीति आयोग ने रेलवे के सभी विभागों को मिलाकर एक नई “भारतीय रेल प्रबंधन सेवा” के गठन का नोटिफिकेशन जारी कर दिया है। यों तो इसका निर्णय दिसंबर 2019 में ही केंद्रीय कैबिनेट ने ले लिया था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से मामला अटका रहा। वर्ष 2020 और 2021 में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने रेल मंत्रालय के लिए इसीलिए कोई भर्ती नहीं की।
पूरे देश की युवा पीढ़ी, जो रेलवे को एक बेहतर कैरियर के रूप में देखती है, उसे निराशा भी हुई, लेकिन पिछले हफ्ते यूपीएससी ने सिविल सेवा परीक्षा 2022 में इंडियन रेलवे मैनेजमेंट सर्विस (आईआरएमएस) यानि भारतीय रेलवे प्रबंधन सेवा के 150 पदों को भी शामिल कर लिया है। फरवरी के शुरू में यूपीएससी के नोटिफिकेशन में यह सूचना नहीं थी।
एकीकृत रेल कैडर की जरूरत पिछले तीन दशक से तो बहुत सक्रिय रूप से महसूस की जा रही थी। 1994 में प्रकाश टंडन कमेटी ने सबसे पहले बहुत विस्तार से रेलवे के सभी विभागों को मिलाकर एक एकीकृत सेवा की आवश्यकता बताई थी, लेकिन उन्होंने भर्ती प्रक्रिया को यूपीएससी के मौजूदा ढ़ांचे से जारी रखते हुए 20 वर्षों के सेवा अनुभव के बाद उन्हें एक कैडर के अंदर समायोजित करने के लिए कहा था।
इसकी और पेचीदगियों को सुलझाने के लिए यूपीएससी के तत्कालीन अध्यक्ष जे. पी. गुप्ता और भारत सरकार के सचिव रहे प्रकाश नारायण की कमेटी ने भी विचार किया था। मगर यह मसला बहुत पेचीदा होने के कारण संभव नहीं हो पाया और संसद में भी एक प्रश्न के उत्तर में असमर्थता जताई गई थी।
वर्ष 2014 में केंद्र में नई सरकार आने के बाद विवेक देवराय कमेटी ने भी इसकी वकालत की और उन्होंने भी भर्ती की मौजूदा प्रक्रिया को जारी रखते हुए सिविल सेवा परीक्षा से चुने गए अभ्यर्थियों के लिए लॉजिस्टिक सर्विस और इंजीनियरिंग परीक्षा से आए अधिकारियों के लिए तकनीकी सेवा का प्रारूप बताया था।
इस बीच वर्ष 1999 में रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे राकेश मोहन कमेटी ने भी रेलवे के अंदर अंदरूनी विभागीय खींचतान अर्थात विभागवाद और अपनी-अपनी गुफाओं में कैद संकीर्ण मानसिकता को रेलवे की मौजूदा दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मानते हुए ऐसे कदम उठाने के लिए कहा था। लेकिन इस सब पर निर्णय इस सरकार ने अब किया है।
तथापि प्रश्न है कि क्या एक अलग प्रबंधन सेवा नाम रखने से रेलवे जैसे विशाल जटिल संगठन की समस्याएं हल हो जाएंगी? निश्चित रूप से विभागीय अहंकार और श्रेष्ठता बोध से 21वीं सदी के संगठन नहीं चलाए जा सकते, लेकिन इतनी जल्दबाजी में उठाया गया कदम कहीं नुकसानदेह तो नहीं साबित होगा?
रेलवे मूलतः एक तकनीकी संगठन है, जिसमें देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर यूपीएससी की इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा (ईएसई) के टॉपर्स लिए जाते हैं 5 विभागों – सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, सिग्नल एंड टेलिकॉम और स्टोर में! वैसे ही सिविल सेवा परीक्षा (सीएसई) से ट्रैफिक, एकाउंट्स, कार्मिक में!
दोनों परीक्षाओं के पाठ्यक्रम, उम्र सीमा, साक्षात्कार के अलग-अलग ढ़ांचे हैं, और इन्हें पिछले लगभग 100 वर्षों में हर बार और बेहतर बनाया गया है। कभी पाठ्यक्रम में बदलाव करके, तो कभी एक परीक्षा के बजाय उसमें प्रारंभिक परीक्षा जोड़कर आदि आदि।
अब अगर केवल एक परीक्षा से ही दोनों किस्म के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक चाहिए, तो यह इतना आसान काम नहीं है। पहाड़ों के बीच से रेल बिछाने और विशाल नदी पर मजबूत पुल बनाने के लिए हमें इंजीनियरिंग की बारीकियों को समझने वाला सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर चाहिए और वैसे ही रेल इंजन की खराबी ठीक करने के लिए कोई उतना ही ज्ञानी मैकेनकल इंजीनियर भी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सामाजिक विज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान पढ़ने वाले छात्र रेलवे के लिए कम उपयुक्त हैं। एक परीक्षा से यह सब कैसे संभव हो पाएगा?
क्या एक सर्वश्रेष्ठ जीव विज्ञानी, विपणन प्रबंधक, भूगर्भ शास्त्री या सिविल, मैकेनिकल इंजीनियर को केवल एक सामान्य परीक्षा से भर्ती करना संभव है?क्या यह उम्मीदवार और भर्ती प्रक्रिया या पूरी शिक्षा व्यवस्था का ही मजाक नहीं होगा? अलोकतांत्रिक तो होगा ही, यूपीएससी पर भी अतिरिक्त बोझ होगा।
कितना अच्छा हो कि रेल प्रबंधन सेवा तो बने, लेकिन भर्ती मौजूदा परीक्षाओं से ही होती रहे। इससे पहले लगभग सभी कमेटियों ने ऐसा ही विचार दिया है। प्रकाश टंडन हिंदुस्तान लीवर के सीईओ रहे थे। उन्होंने भी यही कहा था कि शुरू की ट्रेनिंग के बाद इंजीनियर और सिविल सेवा से आए हुए अधिकारियों को परस्पर दूसरे विभागों की ट्रेनिंग दी जाएगी तो अच्छे मैनेजर साबित होंगे।
मुकम्मल विचार यह बना था कि 15 साल के बाद जो टेक्निकल लाइन में रहना चाहते हैं और उनकी ऐसी योग्यता है, तो उनको उस दिशा में आगे बढ़ने का मौका दिया जाए और दूसरे जो जनरल या सामान्य कामकाज के लिए उपयुक्त पाए जाएं, उनको उस दिशा में भेजा जाए।
शायद यही रास्ता भारतीय रेल चुने तो अच्छा रहेगा। और उम्मीद बन रही है कि ऐसा ही यह सरकार करेगी, वरना एक और गंभीर प्रश्न पैदा होता है कि यदि अलग परीक्षा होती है, तो उसका पाठ्यक्रम क्या होगा? परीक्षा देने वालों की माध्यम भाषा क्या होगी, क्योंकि कोठारी रिपोर्ट, जो सिविल सेवा में वर्ष 1979 से लागू हुई है, में सभी भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने का प्रावधान है। हालांकि इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा आदि में भारतीय भाषाओं की छूट अभी भी नहीं है। यह प्रश्न भी एक नए विवाद को जन्म दे सकता है।
भर्ती की नई योजना में न्यूनतम और अधिकतम उम्र की सीमा क्या होगी? क्या यह भी सिविल सेवा परीक्षा की तरह सामान्य अभ्यर्थियों के लिए 32 और आरक्षित वर्ग के लिए 37 साल होगी? पिछले 20 वर्षों में लगातार भारत सरकार द्वारा नियुक्त कई कमेटियों ने उम्र की सीमा को तुरंत कम करने की सिफारिश की है, जिससे कम उम्र के नौजवान इन उच्च सेवाओं में शामिल होंगे, तो उन्हें बेहतर ढ़ंग से विभाग के ढ़ांचे में अनुकूलित किया जा सकता है और उनकी क्षमताओं का भी बेहतर उपयोग होगा।
जब निजी क्षेत्र आईआईटी और प्रबंधन संस्थानों से निकले नौजवानों को 22-23-24 की उम्र में बड़ी से बड़ी जिम्मेदारियां दे रहा है, तो भारत सरकार में 37 वर्ष की उम्र में आने वाले और फिर प्रशिक्षण पूरा होते-होते 40 तक छूने वाले प्रबंधन प्रबंधकों की क्षमता क्या संदेह के घेरे में नहीं आ जाती?
“भारतीय प्रशासनिक सेवा” को बार-बार ब्रिटिश शासन से ली गई “इंडियन सिविल सर्विस” के समकक्ष रखा जाता है। लेकिन यहां रेखांकित करने की बात यह है कि उसमें अधिकतम उम्र शुरू में 19, फिर 21-22 और 24 वर्ष तक रखी गई थी और यह आजादी के बाद भी लगातार जारी रहा।
पहली बार वर्ष 1979 में अधिकतम उम्र सीमा 26 से 28 साल की सिफारिश कोठारी समिति ने दूरदराज के गांव में साक्षरता की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए की थी। लेकिन 40 वर्ष बाद शिक्षा और साक्षरता की स्थितियां कई गुना बेहतर हुई हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उम्र कम करने के बजाय राजनीतिक दबाव में बार-बार बढ़ाई जाती रही है।
अगर सचमुच सक्षम प्रबंधक चाहिए तो इस सरकार को बहुत गंभीरता से इस प्रश्न पर विचार करना होगा। ऐसे ही कुछ सुधारों के लिए कुछ वर्ष पहले पूर्व आईएएस अधिकारी बासवान कमेटी भी संघ लोक सेवा आयोग ने गठित की थी। उसकी सिफारिशें भी अभी डिब्बे के अंदर बंद पड़ी हैं।
हमारी संसदीय प्रणाली में कानून मंत्रालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजर कर ही ऐसी सेवाओं के भर्ती नियम बनाना संभव होता है और यह बहुत टेढ़ी खीर है। बदलती आधुनिक तकनीक से लेकर प्रबंधन के नए-नए विकल्पों को देखते हुए भी परीक्षा का पाठ्यक्रम बनाना उतना ही चुनौतीपूर्ण होगा और जल्दबाजी में इससे नुकसान हो सकता है।
इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है इन अधिकारियों की प्रशिक्षण प्रक्रिया। इनके प्रशिक्षण की कोई अलग से योजना अभी तक सामने नहीं आई है। यदि प्रशिक्षण मौजूदा रंग-ढ़ंग, अफसरशाही, हाकिम बनने के अंदाज में दिया जाता रहा, तो यह बिल्कुल वैसा ही होगा कि आपने ऑर्गेनिक सब्जी तो उगाई, लेकिन तेल-मसाले ऐसे डाले और पकाया कि उसका कुछ अंजाम हासिल नहीं हुआ। और राजनीतिक दखलअदाजी, पोस्टिंग, ट्रांसफर में जाति, क्षेत्र पर आधारित सिफारिशों पर जब तक कड़ाई से अंकुश नहीं लगेगा, तब तक केवल नाम बदलने से रेलवे का उद्धार नहीं होने वाला है।
यूपीएससी परीक्षा की तरफ देश का हर मेधावी नौजवान देखता है और निश्चित रूप से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करते हैं, लेकिन अगर हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय आकांक्षा के अनुरूप उनका भरपूर उपयोग हो, तो हमें इन चुनौतियों से निपटना ही होगा। केवल भारतीय रेल ही नहीं, देश के ज्यादातर विभाग ऐसी ही उथल-पुथल से गुजर रहे हैं। उम्मीद है दृढ़ इच्छाशक्ति लेकिन विचार के स्तर पर कुछ लचीलेपन से समस्याओं का बेहतर समाधान निकल सकता है। रेलवे के हित में भी, और देश के हित में भी!
#लेखक प्रेमपाल शर्मा, रेल मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैं और जाने-माने भाषाविद एवं साहित्यकार हैं।
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