“सरकारी मुर्गी और प्रधानसेवक”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रेलमंत्री पीयूष गोयल

सरकार द्वारा वैश्विक महामारी (कोविद-19) से देश के नागरिकों को बचाने के लिए हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। इसके लिए अलग से पीएमकेयर्स फंड भी बनाया गया है, जिसमें देश के कुछ उद्योगपतियों ने भी अपना योगदान दिया है। परंतु सरकार ने अपने खर्च कम नहीं किए हैं, बल्कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्तों पर अवश्य कई प्रकार से कैंची चलाई गई है।

उनका इस्तेमाल भी हर मोर्चे पर किया जा रहा है और उन्हें भी निजीकरण के नाम पर उसी तरह डराया गया है जिस तरह देश की जनता को अन्य प्रकारों से डराकर रखा गया है! उनसे पीएमकेयर्स फंड में स्वैच्छिक योगदान की भी अपील की जा रही है। इस पर सरकारी कर्मचारियों द्वारा सोशल मीडिया पर एक बहुत सोचनीय सांकेतिक पोस्ट शेयर की जा रही है, जो इस प्रकार है-

मुर्गी देशहित में अंडे दिए जा रही थी और प्रधानसेवक उन्हें बेचकर मालामाल हो रहा था।

बार-बार भावुक होकर प्रधानसेवक मुर्गी से कहता था कि आज राष्ट्र को तुम्हारे अंडों (मेहनत) की बहुत जरूरत है।

यदि तुम चाहती हो कि तुम्हारा घर सोने का बन जाए, तो रोज जमकर अंडे दिया करो।

आज तक तुमसे अंडे तो बहुत लिए गए, लेकिन तुम्हारा घर किसी ने सोने का नहीं बनवाया।

हम बनवाएंगे। तुम्हारा विकास करके ही रहेंगे।

मुर्गी खुशी से नाचने लगी। उसने सोचा, देश को मेरी जरूरत है।

मुर्गी ने निश्चय कर लिया ! मैं एक क्या, कल से दो अंडे दूंगी। देश है तो मैं हूं।

वह रोज दो अंडे देने लगी। प्रधानसेवक खुशी-खुशी अंडे बेचकर पैसे कमा रहा था।

प्रधानसेवक निहायत ही लालची सेठ था। उसने मुर्गी की खुराक कम कर दी।

मुर्गी चौंकी, उसने प्रधानसेवक से पूछा, आज मुझे पर्याप्त खुराक नहीं दी गई। कोई समस्या है क्या?

प्रधानसेवक ने फिर भावुक होकर मुर्गी से कहा- देश आज संकट में है।

जब तक देश की एक भी मुर्गी भूखी है, तब तक तुम्हें भर पेट अन्न खाने का हक नहीं है। देशहित में तुम्हें और त्याग करना होगा!

मुर्गी ने सोचा कि, मुझे देश के लिए त्याग करना ही चाहिए, अब मैं खुद पूरा आहार नहीं लूंगी। हम देश के लिए संकट का सामना अवश्य करेंगे।

मुर्गी आधा पेट खाकर अंडे देने लगी। उधर प्रधानसेवक उसके अंडे बेचकर अपना खजाना भर रहा था।

बरसात आ गई, पर मुर्गी का घर नहीं बन पाया।

मुर्गी बोली- आप मेरे सारे अंडे ले रहे हैं.. खाना भी आप मुझे आधा पेट ही दे रहे हैं..

आपने वादा किया था और कहा भी था कि मेरा घर सोने का बनेगा.. पर नहीं बना.. कम से कम अब मेरे घर की मरम्मत ही करवा दो, बरसात आ गई है..

प्रधानसेवक फिर भावुक होकर बोला, “तुमने कभी सोचा है कि इस देश में ऐसी कितनी मुर्गियां हैं, जिनके सिर पर छत नहीं है..

रात-रात भर रोती रहती है.. तुझे अपनी पड़ी है.. तुझे तो देश के बारे में सोचना चाहिए.. अपने लिए सोचना तो निहायत निजी स्वार्थ की बात है..प्रधानसेवक ने कहा।

अब ऐसे में मुर्गी क्या बोलती, वह फिर चुप हो गई। हालांकि वह खूब समझ रही थी कि प्रधानसेवक उसे सेंटीमेंटल ब्लैकमेल कर रहा है, परंतु देशहित में मौन रहने में ही उसने अपनी भलाई समझी।

अब वह अंडे नहीं दे पा रही थी। आधा पेट खाकर वह बहुत कमजोर हो गई थी।

न खाने का ठिकाना, न रहने का। वह बोलना चाहती थी, लेकिन भयभीत थी।

वह पूछना चाहती थी कि इतने पैसे जो जमाकर रहे हो- वह क्यों और किसके लिए?

देशहित में कितना लगाया है, लेकिन पूछ नहीं पाई।

एक दिन प्रधानसेवक फिर आया और बोला- मेरी प्यारी मुर्गी, अब तुझे देशहित में मरना पड़ेगा।

देश तुझसे बलिदान मांग रहा है। तेरी मौत हजारों मुर्गियों को जीवनदान देगी।

मुर्गी बोली- लेकिन माई-बाप मैंने तो देश के लिए बहुत कुछ किया है.. आधा पेट भूखे रहकर देश के लिए बहुत योगदान किया है..

प्रधानसेवक ने कहा- अब तुम्हें शहीद होना ही पड़ेगा, जो लोग सरकारी पद धारण करते हैं, सबसे पहले उन्हें ही अपना बलिदान देना पड़ता है।

बेचारी मुर्गी को अब सब कुछ समझ में आ गया था, लेकिन वक्त हाथ से निकल चुका था और सरकारी मुर्गी कमजोर हो चुकी थी, प्रधानसेवक ने मुर्गी को बेच दिया।

मुर्गी – माल्या, मेहुल, नीरव और जतिन जैसे किसी बड़े सेठ का भोजन बन चुकी थी। इस तरह मुर्गी देशहित में शहीद हो गई।

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आप जो सोच रहे हैं, बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं।

यह कहानी सिर्फ एक मुर्गी की ही कहानी नहीं है, यह इस देश की जनता और सरकारी कर्मचारियों की कहानी है।

युवा बेरोजगारों, किसानों, गरीबों, मध्यवर्गीय नागरिकों, मजदूरों को पालने की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं की होती है, जो सरकारी नौकरी करते हैं।

राष्ट्रभक्ति में और अधिक उन्मादी हो बिना चूं-चपड़ किए देशी नेताओं और कॉरपोरेट जगत के बड़े-बड़े धन्नासेठों तथा हमेशा अपना गाल बजाते रहने वाले बुद्धिजीवियों की तिजोरी भरते रहें, यही महान राष्ट्रभक्ति और युगधर्म की कसौटी है।

जब पारिश्रमिक के रूप में अपना वेतन मांगेंगे तो कहेंगे कि देश पर बोझ पड़ेगा, परंतु जब उन्हें खुद अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने होंगे, तो सब एकजुट होकर हाथ उठाकर बिना बहस किए बिल पास कर लेंगे।

हमें महंगाई भत्ता तक नही देंगे और स्वयं तीन-चार पेंशन पाएंगे।

सरकारी कर्मचारियों का एक दिन का वेतन ले लिया, फिर भी सरकार की भूख नहीं मिटी। खाजाना खाली है, यह कहकर 18 महीने का मंहगाई भत्ता भी ले लिया गया। केंद्रीय कर्मचारियों के एनपीएस (#NPS) में एम्प्लायर कंट्रीब्यूशन को 14% से घटाकर 10% कर दिया गया। यानि हर तरह से पूंजीपतियों का फेवर और सरकारी कर्मचारी का नुकसान किया गया है।

भारत की आबादी सरकार के अनुसार 135 करोड़ है, जबकि देश का धन लेकर भागे हुए उद्योगपतियों की देनदारी 68000, जी हां अड़सठ हजार करोड़ रुपए इस महामारी के समय माफ कर दिया गया। सभी समाचार पत्रों में यह छपा है। यदि यह 135 करोड़ नागरिकों में बांटा गया होता, तो आज हर नागरिक इस समय किसी को भूखा नहीं रहने देता।

विचार करें..!! कब तक मौन रहेंगे..??

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