हिंदी दिवस : नैतिकता सिर्फ दूसरों को उपदेश देने के लिए नहीं होती!
14 सितंबर पर विशेष : हिंदी इसलिए भी डूबी! हिंदी के हत्यारे कौन?
प्रेमपाल शर्मा
हिंदी समेत अपनी बोली-भाषा में बोलने-पढ़ने वाला इस देश का सबसे गरीब अंतिम जन है. 50 करोड़ से ज्यादा!
मेधा बुक्स, दिल्ली के यहां प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ आदि लगभग ₹100 में उपलब्ध हैं। जबकि ज्यादातर प्रकाशकों के यहां ₹600 से ऊपर। जीवित पांच सितारा लेखक भी इन सूचियों में हैं। अमीर हिंदी पढ़ेंगे नहीं, और गरीबों को यह लूट नहीं पढ़ने देगी! #प्रेमचंद तक को नोच-नोचकर खाने को तैयार! हिंदी दिवस की जय या धिक्कार!
पांच दिन पहले हिंदी की एक प्रसिद्ध लेखिका ने अपना उपन्यास भेजा था ! उसके साथ एक सूची पत्र भी था ! आभार लेखिका का और उस सूची पत्र का भी। सूची पत्र को देखकर और उसमें लिखी किताबों की कीमतें देखकर धक्का लगा। आश्चर्य की बात यह कि उस सूची में दिल्ली में बैठे सभी दिग्गज, क्रांतिकारी महा-महान लेखक भी हैं। क्या उनकी नजर प्रेमचंद और रवींद्र नाथ टैगोर की किताबों के सामने लिखी कीमतों पर कभी नहीं पड़ती? वे तो संसद से सड़क और समुद्र तक जर्रे-जर्रे पर नजर रखते हैं! काश ! यह लेखक भी कभी अपनी नैतिकता में ऐसा प्रश्न प्रकाशक के सामने रखें?
मैं किसी प्रकाशक को ऊंचा-नीचा करने के लिए लेखन में नहीं हूं। मेरी चिंता हिंदी समाज है। दोस्तों ! जिंदा लेखकों की किताबों की कीमत डालर या लाखों में रखो या शून्य, आप जानो और लेखक जानें, लेकिन प्रेमचंद जैसे रॉयल्टी-फ्री लेखकों/साहित्यकारों के साथ यह अत्याचार क्यों? उन पर और पाठकों पर तो दया करो !
दूसरी भाषाओं वाले भी हिंदी को तभी पढ़ेंगे, जब कीमतें वाजिब होंगी! नैतिकता के ठेकेदार सभी लेखकों से मेरा अनुरोध है कि वे भी अपनी नैतिकता, नैतिक दबाव का इस्तेमाल अपने पैरों के नीचे भी करें!
इस धंधे का एक और भी आयाम है। राजा राममोहन राय से लेकर पुस्तक खरीद की जो समितियां होती हैं, उनमें हमारे कई प्रसिद्ध लेखक, आलोचक, प्राध्यापक आदि होते हैं। भारत सरकार के राजभाषा अधिकारी और ऊंचे प्रशासक भी। अच्छी बात है। आप गौर कीजिए, अक्सर उन्हीं प्रकाशकों की किताबें चुनी जाती हैं, जहां इन समितियों के सदस्य छपे होते हैं। यह कैसी नैतिकता है?
हम सब भारत सरकार के हिस्से रहे हैं। किसी भी सेलेक्शन बोर्ड में बैठने से पहले हमें यह शपथ लेनी होती है कि मेरा कोई रिश्तेदार या पारिवारिक संबंधी उस चुनाव में शामिल नहीं है। यह नैतिकता की अच्छी कसौटी है!
यहां तक कि हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी यह ध्यान रखते हैं कि जिस मामले से उनका या उनके किसी संबंधी का कोई वास्ता रहा है, तो वह उस मामले में सुनवाई से अपने को खुद ही अलग कर लेते हैं।
क्या हिंदी पुस्तक खरीद समिति ने कोई नैतिक मानदंड अपने लिए नहीं बनाए? और यह क्यों चलता रहा?
बावजूद इसके कि कई बार प्रश्न उठे हैं, विजिलेंस कमेटी बैठाई गई है, लेकिन सुधार कोई नहीं।
मान लीजिए पूरी तरह से अलग न भी हो, फिर भी इतना तो कर ही सकते हैं कि जिस प्रकाशक से आपकी किताब छपी है, उस बैठक में या उस निर्णय में उसकी दो पुस्तकों से ज्यादा नहीं खरीदी जाएंगी, अथवा उसकी कोई पुस्तक खरीदी ही न जाए!
कितना गहरा अंधेरा है और इसीलिए ऐसी कीमतें तभी रखी जाती हैं, जब कुछ लेखकों से उन्हें इनकी खरीद किए जाने की उम्मीद रहती है। दोनों तरफ से।
इस विषय पर हम सब को सोचने की जरूरत है। नैतिकता सिर्फ दूसरों को उपदेश देने के लिए नहीं होती!
14 सितंबर 2020
प्रेमपाल शर्मा। संपर्क: +91 99713 99046, www.prempalsharma.com