September 5, 2020

भाषा का महत्व

Parliament House

जम्मू-कश्मीर की अधिकृत भाषाओं में अब शामिल होंगी हिंदी, डोगरी और कश्मीरी

हिंदी के अलावा ऐसी अन्य कोई दूसरी भाषा नहीं है, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांधने में सक्षम हो!

आजादी के बाद केंद्र के स्तर पर हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिला, लेकिन राज्यों की स्थानीयता और क्षेत्रीय पहचान बनाए रखने अथवा राजनीतिक कारणों के चलते इसे राज्यों पर थोपने की कोशिश नहीं की गई। तथापि यह सर्वमान्य है कि हिंदी के अलावा ऐसी अन्य कोई दूसरी भाषा नहीं है, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकने में सक्षम हो। खैर, अब जैसा कि केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है, उसके अनुसार जम्मू-कश्मीर में भी अब उर्दू और अंग्रेजी के अलावा हिंदी, डोगरी और कश्मीरी भाषाएं वहां की अधिकारिक भाषाओं की सूची में शामिल होंगी।

भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है तथा यह भी सही है कि हर बीस-पच्चीस कोस में बोली-बानी-पानी बदल जाता है। इस हिसाब से सभी क्षेत्रों की अपेक्षाओं का ध्यान रखना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी भी है। इसके साथ-साथ आजादी के समय से ही ऐसे उपायों की खोज और उन पर काम लगातार जारी रहा है, जो समूचे देश को एक सूत्र में जोड़ सकें।

इस मामले में अलग-अलग स्तर पर राजनीतिक और सांस्कृतिक पहल के अलावा भाषा के रूप में हिंदी को एक अहम जरिया माना गया, जो देश के एक छोर से दूसरे छोर तक के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने में सहायक सिद्ध हुई है। तथापि हिंदी को राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसे किसी राज्य पर थोपने की कोशिश केंद्र सरकार के स्तर पर कभी नहीं की गई। हालांकि यह उम्मीद जरूर की जाती रही कि अलग-अलग राज्यों में राजकाज की भाषा को लेकर धीरे-धीरे एकरूपता आएगी और समय के साथ इस पर विवाद की गुंजाइश को कम या खत्म किया जा सकेगा।

जम्मू-कश्मीर में भी राजकाज की भाषा के रूप में हिंदी को जगह दिलाने के उद्देश्य से केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार, 2 सितंबर को एक विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके तहत उर्दू और अंग्रेजी के अलावा अब  हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को भी वहां की अधिकृत भाषाओं की सूची में शामिल किया जाएगा।

हालांकि इससे संबंधित विस्तृत जानकारी अभी सामने नहीं आई है, लेकिन इससे संबंधित खबरों के अनुसार राजभाषा विधेयक-2020 में एक व्यवस्था यह की गई है कि हिंदी, कश्मीरी और डोगरी को जम्मू-कश्मीर की अधिकृत भाषाओं की सूची में डाला जाएगा।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कश्मीरी और डोगरी को जम्मू-कश्मीर की अधिकृत भाषाओं में शामिल करने की मांग क्षेत्रीय जनता द्वारा लंबे समय से की जाती रही है, लेकिन अब से पहले इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जा सका था। जबकि एक रिपोर्ट के अनुसार वहां डोगरी बोलने वालों की संख्या करीब पचास लाख और कश्मीरी बोलने वालों की पैंतालीस लाख से ज्यादा है। अब कश्मीरी, डोगरी के साथ हिंदी को भी इसमें शामिल करने से स्थानीयता के सरोकार का खयाल रखने के साथ ही केंद्र का यह प्रयास जम्मू-कश्मीर और वहां की जनता को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है।

हालांकि इस मुद्दे पर ऑल पार्टी सिख को-ऑर्डिनेशन कमिटी की ओर से उठाया गया यह सवाल भी काफी महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद-370 की समाप्ति से पहले “पंजाबी भाषा” जम्मू-कश्मीर के संविधान का हिस्सा थी, लेकिन अब जम्मू-कश्मीर की अधिकृत भाषा में “पंजाबी” को शामिल न करके सरकार ‘पंजाबी’ के प्रति विरोधी रवैया दर्शा रही है!

तथापि हिंदी के मामले में यह विचित्र है कि आजादी के बाद से अब तक जम्मू-कश्मीर में हिंदी को अधिकृत भाषा के रूप में जगह नहीं मिल सकी थी। जबकि इस पूरे क्षेत्र में हिंदीभाषी राज्यों सहित अन्य सभी राज्यों से जाने वाले पर्यटकों और कामगारों के बीच भी संपर्क सूत्र के रूप में हिंदी वहां एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। इसके अलावा स्थानीय लोगों को भी हिंदी के उपयोग पर कभी कोई आपत्ति नहीं रही।

इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंदी को कश्मीरी और डोगरी के साथ अधिकृत भाषा के तौर पर जगह देने की पहल हुई है, यह न सिर्फ हिंदी का दायरा बढ़ाने, बल्कि जम्मू-कश्मीर की स्थानीय भाषाओं को भी राष्ट्रीय संपर्क में लाने की यह एक मजबूत कोशिश भी है।

अब जब भाषा की बात आई है, तो केंद्र सरकार को यूपीएससी की विभिन्न परीक्षाओं के लिए उम्मीदवारों को भाषाओं के चयन की स्वतंत्रता पर भी एक बार पुनर्विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि जिस तरह से एक वर्ग विशेष द्वारा इसका जबरदस्त लाभ उठाया जा रहा है, और उसके लिए उसे सहयोग पहुंचाने हेतु सामाजिक स्तर पर जिस तरह समर्थन एवं साधन मुहैया कराए जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि जल्दी ही देश के चारों स्तंभों में एक वर्ग विशेष का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा।

जिस तरह इतिहास, साहित्य और फिल्मों में घालमेल करके कुछ मिथक गढ़े गए और उन्हें महिमा मंडित करने के लिए इस देश की परंपरागत रूप से चली आ रही सांस्कृतिक विरासत को नकारा ही नहीं गया, बल्कि जानबूझकर उसे दरकिनार भी किया गया, ठीक उसी तरह भाषाओं के मामले में भी हुआ है और यह प्रयोग लगातार जारी है कि अन्य विषयों की ही तरह इसका भी मिथक मूर्तरूप में आ जाए। अतः इस विषय पर भी सरकार को लगे हाथ कुछ पुख्ता करते चलना चाहिए।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी