February 21, 2022

इन लपोड़ों की सुनो! ‘वो’ तुम्हारी सुनेगा..!!

पता चला, यहां तो बहुत सारे लपोड़ भरे पड़े हैं.. जिनको न अपने अधिकारों की जानकारी है, न ही अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की टेंशन.. सब लपोड़ ‘गधा लदाई’ कर रहे हैं.. और जो वाकई ‘गधे’ हैं, वो मौज कर रहे हैं!

भिया ये किस्मत भी अजीब चीज होती है। और हमारा तो इस पर से तभी विश्वास उठ गया था, जब अपनी शादी के बाद ‘तुम्हारी काकी का मुंह’ हमने पहली बार देखा था.. ‘बीच के बचोले’ की कसम, सारा जोश काफूर हो गया था और हम गश खाकर गिर पड़े थे, वो तो शुक्र है पलंग पर गिरे और आगे का पिरोगराम ‘अगली पार्टी ने खुद ही संभाल लिया’ और हम तभी से अपने आपको ‘दबे कुचले’ समझते आ रहे हैं।

सब किस्मत की बात है भाई.. “पड़ोसी अनपढ़ कलुए को एमए पास छम्मक-छल्लो मिली, और यहां मामला उलटा निकला.. जो हमारे जैसे सरकारी नौकरीपेशा छैल-छबीले को कल्लो मिली”.. बस किस्मत समझकर चुप्पी मार ली भाई..

अब इसके आगे की सुनो.. सरकारी नौकरी में नाचते कूदते घुसे थे.. पर यहां भी हमारी किस्मत दगा दे गई.. गधे पंजीरी खा रहे थे और हमारे जैसे आला दर्जे के घोड़ों को घास भी नसीब नहीं है..

अब ऐसे तो तुम्हारी खोपड़ी में कुछ जाएगा नहीं.. तो ऐसे समझो, कि भैया मालिक (इंचार्ज) ही ऐसा मिला.. जो मलाई-मलाई अपनों को देता है.. और छिंछड़े-छिंछड़े हमको… वो भी चेक करके.. कि इन छिंछड़ों में कहीं भूले से कोई मलाई का कण तो नहीं आ गया.. सब किस्मत की बात है भाई..

ये किस्मत बड़ी कुत्ती चीज है.. और हमें भी लगा कि काश! हम कुत्ते ही होते.. तो कुछ तो ‘कुत्ती चीज’ पर हम भी हक जमा लेते कि भैया हम कुत्ते हैं, तो हर कुत्ती चीज पर तो हमारा ही हक रहेगा..

बॅट, यहां भी किस्मत दगा दे गई भाई.. दिल से हाय निकलती है कि ये किस्मत लिखते कैसे हैं? गए-बीतों की तो जैसे सोने की कलम से लिखी है, या फिर भगवान कृष्ण के मोरपंख की नोक से, पर शायद हमारे जैसों की.. गधे के लंबे खुर को उसकी लीद और पानी के घोल में डुबोकर लिखी गई है..

तो भैया हमने अपने आपको चतरा मानना छोड़ दिया, और अब हमने अपने आपको सरेआम लपोड़ घोषित कर दिया.. यह घोषणा करने भर की देर थी कि हमारा सर्कल अचानक से बढ़ गया। हम लपोड़ों के समाज के इज्जतदार आदमी हो गए.. लोगों का हमसे अपनापन बढ़ गया.. हम हैरान-परेशान.. सोच रहे थे.. कि ये क्या हुआ??

अब हमने ‘लपोड़ों पर पीएचडी’ करने की ठानी.. पता चला, यहां तो बहुत सारे लपोड़ भरे पड़े हैं.. जिनको न अपने अधिकारों की जानकारी है, न ही अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों की टेंशन.. सब लपोड़ ‘गधा लदाई’ कर रहे हैं.. और जो वाकई में ‘गधे’ हैं, वो मौज कर रहे हैं!

हमें दम मारने की फुर्सत नहीं, इनका समय काटे नहीं कट रहा.. हम समझ गए.. ये सब किस्मत लिखने में ऊपर वाले की तरफ से हो चुकी “टेक्निकल एरर” का नतीजा है.. इनकी और हमारी किस्मत जिन औजारों से लिखी जानी थी, वो अदला-बदली हो गए ऊपर वाले से.. पर ये तो गलत बात है..

अब हमने भी ठान लिया कि सिस्टम बदलवाकर रहेंगे और इन लोपोड़ों को इनका हक दिलाकर ही मानेंगे.. बाकायदा रिक्शे पर हम खुद बैठकर हाथ में भोंपू लेकर खुद मुनादी (उद्घोषणा-एनाउंसमेंट) देते गली-गली घूमे कि “शहर के सारे लपोड़ो एक हो जाओ.. और शाम को श्मशानघाट वाले पार्क में इकट्ठे हो जाना..!

शाम को हम पहुंचे बीस पन्ने का भाषण हाथ में लेकर.. तो वहां का नजारा देखकर हैरान… एक भी बंदा वहां नहीं था.. अरे सच में ही लपोड़ निकले ये तो! अब क्या हो?? खूब कोशिशें की, लालच दिया.. तब जाकर कुछ लपोड़ नजदीक बैठे.. पूरी व्यूह रचना समझाई.. क्या क्या लेटर लिख रखे हैं, सब बताकर अपना आफरा कम किया और हमने खुशी-खुशी घर जाकर थकान मिटाने “देशी पव्वे का ढ़क्कन” खोला ही था कि मालिक (इंचार्ज) का फोन आ गया!

मैंने अभी हैलो भी नहीं बोला कि हंसते हुए मालिक बोले, “…नेताजी लेटर में ये लाइन नंबर पांच गलत है आपकी, पेन ले लो हाथ में, मैं सही करवा देता हूं!”

मैं हक्का-बक्का, “इतनी अंदर की खबर लीक कैसे हुई??” और पूछ भी लिया.. “आपको कैसे मालुम पड़ा हुजूर??!”

मालिक बोले, “…अबे तेरे कुनबे के पांच लपोड़ तो ये बैठे मेरे पास.. दो तो चिकन भून रहे हैं.. एक पैग बना रहा है.. और दो चम्पी कर रहे हैं तेरे काका की.. और बोल???…

मेरे हाथ स्वतः जुड़ गए फोन पर ही, और कातर स्वर में यही प्रार्थना निकली मुंह से… “इन लपोड़ों की सुनोओओओ.. वो तुम्हारी सुनेगाआआआ.. तुम हमको एक रेस्ट दोगे.. मालिक तुमको दस लाख रेस्ट देगाआआआ…!”

फोन रखते हुए मालिक (इंचार्ज) का अट्टहास मेरे कानों में गूंज रहा था, और मैं समझ चुका था कि मैं भी अब.. “ब्रांडेड लपोड़” अर्थात “नामचीन मूर्ख” बन चुका हूं!

वैधानिक चेतावनी: उपरोक्त लेख का रेलवे से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। फिर भी अगर कोई समानता पाई जाती है, तो इसे मात्र एक संयोग समझा जाए!

व्यंग्य: एक रेलकर्मी की कलम से!

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