रेलवे और इम्पैनल्ड हॉस्पिटल के बीच धक्के खाते रेलकर्मी एवं उनके परिजन

रेलवे अस्पतालों के प्रबंधन का नकारापन और उदासीनता बन रही रेलकर्मियों के लिए मुसीबत

रेलवे अस्पतालों के प्रबंधन का नकारापन और उदासीनता रेलकर्मियों के लिए मुसीबत बनती जा रही है। कुछ वर्षों पूर्व तक रेलकर्मियों को चिकित्सा संबंधी सभी सेवाएँ रेलवे अस्पताल में ही मुहैया कराई जाती थीं। अब जबकि अनेकों प्राइवेट अस्पतालों के साथ सीजीएचएस रेट पर रेलवे अस्पतालों का कॉन्ट्रैक्ट हो गया है, जिसके चलते रेल अस्पतालों के प्रबंधन, डॉक्टरों और स्टाफ का भार अपेक्षाकृत कम हुआ है। इसके बावजूद मरीज और उनके परिजनों की समस्याएं कम नहीं हो रही हैं।

रेलवे बोर्ड के पत्र क्रमांक 2018/Trans Cell/ Health/CGHS (eoff. No. 3270783) dt. 16/06/2021 के पैरा क्र. 6 एवं 7 के अनुसार यदि कोई यूएमआईडी (#UMID) कार्डधारक रेलकर्मी किसी भी परिस्थिति के चलते सीधे तौर पर कॉन्ट्रैक्ट/इम्पैनल्ड हॉस्पिटल में जाकर एडमिट हो जाता है, तो उस इम्पैनल्ड हॉस्पिटल का दायित्व बनता है कि वह स्वयं रेलवे अस्पताल के प्रबंधन को 24 घंटे के अंदर इस बात की सूचना इमरजेंसी लेटर के साथ ईमेल के द्वारा प्रेषित करे।

रेलवे अस्पताल के प्रबंधन का भी यह दायित्व बनता है कि अगले 24 घंटे के अंदर उसे अप्रूवल दे, या मेडिकल मैनुअल के निर्देशानुसार उचित कार्रवाई करे। यदि रेलवे अस्पताल प्रबंधन 24 घंटे के अंदर ऐसा करने में असफल होता है, तो प्राइवेट हॉस्पिटल, रेलवे अस्पताल की इस इग्नोरेंस को अप्रूवल मानते हुए उस मरीज का इलाज करेगा।

परंतु वास्तविक धरातल पर ऐसा नहीं होता है। प्राइवेट अस्पताल द्वारा मरीज का इलाज-ऑपरेशन रोककर उसके परिजनों से रेलवे अस्पताल तक व्यक्तिगत तौर पर भाग-दौड़ कराई जाती है। जब तक पेपर वर्क पूरा न हो जाए, तब तक प्राइवेट अस्पताल द्वारा मरीज को मात्र जीवित बचाने की औपचारिकता ही की जाती है, न कि उसे ठीक करने की।

प्राइवेट अस्पतालों की इस मनमानी के चलते रेलवे अस्पतालों का बिल भी बढ़ता है और मरीज की बीमारी भी बढ़ती है। साथ ही उसकी जान को खतरा भी बढ़ जाता है।

इसके अलावा जब रेलवे अस्पताल द्वारा किसी प्राइवेट अस्पताल में मरीज को रेफर किया जाता है, तो उस पेपर पर एक निश्चित समय सीमा का उल्लेख होता है, जैसे 3 दिन, 5 दिन, 7 दिन, 10 दिन आदि। अब यदि मरीज का इलाज उस पर्चे पर लिखी समय सीमा के अंदर उस प्राइवेट अस्पताल में नहीं हो पाता है, तो प्राइवेट अस्पताल, रेलवे अस्पताल से एक्सटेंशन मांगता है।

प्राइवेट अस्पताल द्वारा रेलवे बोर्ड के दिशानिर्देशों को ध्यान में न रखते हुए कि, किसी गलती से मेरा पेमेंट न अटक जाए, वह पेशेंट के रिश्तेदार को या परिजनों को एक फॉर्म भर कर देता है और बोलता है कि आप रेलवे से अप्रूवल लेकर आइए।

अब यदि प्राइवेट अस्पताल को नियमों की जानकारी नहीं है, वैसे तो होना चाहिए, फिर भी संबंधित रेलवे अस्पताल के इंचार्ज द्वारा तो इम्पैनल्ड अस्पतालों को बताना चाहिए कि आप मुझे मेल भी कर सकते हैं और एक्सटेंशन का अप्रूवल ले सकते हैं। लेकिन रेलवे अस्पताल के डॉक्टरों की अमानवीय हरकत देखिए कि वे उस मरीज के परिवार के सदस्य को पूरे दिन भटकाते हैं, तब जाकर दो दिन, या तीन दिन का एक्सटेंशन देते हैं।

सीरियस मरीज के केस में हर दूसरे, तीसरे दिन उस मरीज का पारिवारिक सदस्य पूरे दिन रेलवे अस्पताल और प्राइवेट अस्पताल के बीच में चक्कर लगाता है। यह सीधा-सीधा रेलवे बोर्ड के ऊपर वर्णित पत्र का उल्लंघन है, और रेलवे के डॉक्टर का अक्षम्य अपराध है। इस बात को गंभीरता से लेते हुए जीएम के साथ मीटिंग में कई बार इस मामले को उठाया गया और पीसीएमडी के द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि रेलवे बोर्ड के पत्र के निर्देशों का अक्षरशः पालन किया जाएगा। मरीज के पारिवारिक सदस्यों को या मरीज को परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

लेकिन लिखित रूप से आज तक पीसीएमएडी द्वारा किन्हीं भी अस्पतालों में रेलवे बोर्ड के निर्देशों को सख्ती से पालन करने के निर्देश नहीं दिए गए। आज भी प्राइवेट अस्पताल मरीजों की जान से खिलवाड़ करने में लगे हैं और उनके पारिवारिक सदस्य लेटर लेकर रेलवे अस्पताल में पूरे दिन अलग-अलग डॉक्टर के दरवाजों पर धक्के खाते खड़े रहते हैं।

अधिकांशतः ऐसा होता है कि रेलवे अस्पताल के डॉक्टर मरीज के पारिवारिक सदस्य को बोलते हैं कि फलाना पेपर लाओ, ढिमका पेपर लेकर आओ। फिर वह प्राइवेट अस्पताल में भागता है और इस तरह का अमानवीय खेल चलता रहता है।

आज जब भारत में, खासतौर से महानगरों में, हम सब जानते हैं कि न्यूक्लियर फैमिली रहती हैं। घर में एकाध सदस्य ही रहता है जो मरीज की सेवा में उपस्थिति दे सके। यदि वही सदस्य कई-कई किलोमीटर दूर प्राइवेट अस्पताल और रेलवे अस्पताल के बीच में भूखा-प्यासा और अपने पारिवारिक सदस्य की बीमारी की गंभीरता का तनाव लेकर भाग दौड़ करता रहे, तो यह कितना अमानवीय है?

उल्लेखनीय है कि आज भी रेलवे में एक बहुत बड़ा वर्ग खासतौर से चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और उनके पारिवारिक सदस्य कम पढ़े-लिखे हैं। यह भी सत्य है कि हर चीज की जानकारी हर व्यक्ति को नहीं रहती है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़। उससे रेलवे अस्पताल का प्रबंधन यह उम्मीद करता है और बताता है कि आज डिजिटल युग है हम बायोकेमेस्ट्री की टेस्ट रिपोर्ट आपके फोन पर भेज देंगे, दवाओं की पर्ची पेपरलेस होगी, कंप्यूटर पर बनाई जाएगी, इसके लिए तो ज्ञान बांटने के लिए रेलवे अस्पताल का प्रबंधन हर समय तैयार है, लेकिन जो मरीज के हित में उसे खुद को करना है वह कार्य करने को तैयार नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में अब समय आ गया है कि संबंधित दोषी प्रबंधन को दंडित किया जाए, तभी शायद कुछ हल निकल सके, और मरीज तथा उनके परिजनों को राहत मिल सके।