साहब की घंटी और पश्चाताप – मैं और कालूराम

महीनों घंटी-सेवा में गुजारने के बाद अब मैंने नियति से समझौता कर लिया है। जिंदगी अब ऐसे ही कटेगी – घंटी की आवाज सुनो और दौड़कर दरवाजा खोलो, ठीक वैसे ही जैसे कालूराम करता था!

शुभ्रांशु

आपने सरकारी साहबों के तामझाम के किस्से तो बहुत सुने होंगे। उनकी टेबल पर लगी घंटी का साहब की शान में बड़ा योगदान होता है। बड़े साहब अपने सिंहासन पर विराजते ही सबसे पहले घंटी टुनटुनाते हैं। तुरंत लाल कलगी लगाए और पीतल के बकलस-वाले कमरबंद में साफ कमीज खोंसता हुआ अर्दली हाजिर होता है।

साहब दबंग आवाज में, जो बंगले पर अमूमन दबी ही रहती है, एक साथ कई आदेश दे डालते हैं, “आज का डाक पैड कहाँ है, पंखा तेज करो, एसी ठंडा करो, ये गिलास में पानी कल का है क्या, बड़े बाबू आ गये हों तो बोलो मैंने याद किया है, ग्यारह बजे मीटिंग है, चाय बिस्कुट का इंतजाम ठीक रखना,” वगैरह-वगैरह।

अभी चपरासी अपनी धुरी पर नब्बे डिग्री घूमकर बाहर निकलने ही वाला होता है कि साहब फिर घंटी का बटन दबा डालते हैं, हालाँकि चपरासी अभी वहीं खड़ा था। पर वह भी कोई साहब है जो बोलने की जहमत उठाए! बेचारा चपरासी पूरा वृत्तीय घूर्णन कर जोर से बोलता है, “हुजूर?” साहब बोलते हैं, “अरे कालूराम, अभी तुम यहीं हो? अच्छा, पीए साहब को बोलो, कल वाले पत्र का ड्राफ्ट लेकर फौरन आएँ।”

कालूराम साहब के मुखारविंद से अपना नाम सुनकर प्रसन्न हो जाता है और क्षण भर को ठिठकता है। “क्या हुआ, खड़े क्यों हो? जल्दी जाओ,” साहब गरजते हैं। कालूराम अपने चपरासित्व को पुन: पहचानकर सरपट भाग लेता है।

मैंने भी कमोबेश इस साहबियत के मजे लिये हैं। घंटी टुनटुनाकर, मानो जिन्न को प्रकट करने का आनंद भी उठाया है। पर जैसा कि हमारे शास्त्रों में लिखा है, “हर प्राणी को अपने कर्मों का फल इसी जीवन में, और बिना नागा, इसी धरती पर भोगना पड़ता है।” सो मित्रों, मेरे प्रायश्चित और दंडप्राप्ति के दिन रिटायरमेंट के साथ ही आ गये। सोचा था कि सरकारी बंगले से निजी मकान में आने पर स्थायित्व मिलेगा, चैन की बंसी बजाऊँगा। क्या पता था कि प्रारब्ध मेरे द्वारा कालूराम को बुलाने वाली एक-एक घंटी का हिसाब लेगा।

सुबह उठते ही, इसके पहले कि हाथ-पैर सीधे कर लूँ, अखबार वाला घंटी बजा देता है। कभी-कभी तो उसकी घंटी से ही नींद खुल जाती है। कितनी बार उसे समझाया, मिन्नतें कीं, कि भाई तू अखबार डालकर चला जाया कर, हम उठाकर पढ़ लेंगे, घंटी क्यों बजाता है? वह बोलता है कि सर, मैं तो आपके फायदे के लिये ही घंटी बजाता हूँ, देर होने से कहीं कोई कुत्ता न उठा ले जाये। पर मुझे यकीन है कि हो न हो ये अखबार वाला पिछले जन्म में कालूराम का पिता रहा होगा, जो अपने चपरासी पुत्र पर मेरे द्वारा किये गये अत्याचारों का बदला लेने के लिये ही पैदा हुआ है।

साहब की कुर्सी पर बैठकर तो मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं कालूराम पर कोई अत्याचार कर रहा हूँ। पर अब महसूस होने लगा है कि घंटी की दूसरी ओर होना घोर नर्क ही है।

फिर पत्नी द्वारा नियुक्त तीन महरियाँ, यानि कि मेड, एक-एक कर घंटी बजाती हैं – एक झाड़ू-पोंछे वाली, एक बर्तन वाली, और एक खाना बनाने वाली। तंग आकर मैंने सोचा कि इन सारे घरेलू कामों का जिम्मा मैं ही ले लूँ, कम-से-कम दौड़-दौड़ कर दरवाजा खोलने से तो मुक्ति मिलेगी। पर धर्मपत्नी ने मना कर दिया, मेरे प्रति किसी प्रेम या आदर से नहीं, बल्कि यह सोचकर कि मुहल्ले वाले लोग क्या कहेंगे!

फिर मैंने पत्नी से कहा कि मैडम, आपकी सेवादार हैं ये सारी मेड, आप ही जाकर दरवाजा खोला करो। मैडम बिल्कुल भड़क गईं। बोलीं, दिनभर पलंग तोड़ते हो, ना दफ्तर जाना, ना कोई कसरत करना, अब दरवाजा खोलना भी तुम्हें नागवार गुजरता है? मैंने मन-ही-मन कालूराम से क्षमा माँगी और कर्त्तव्यरत हो गया।

फिर, अमेजन वाले की घंटी, ब्लिंकिट वाले की, बिग-बास्केट वाले की, दूध वाले की, कार धोने वाले की, धोबी की दो बार, बख्शीश माँगने वालों की, सोसाइटी का नोटिस लेकर आने वाले की। कभी-कभी तो मन करता है कि सरकार को लिखूँ कि मुझे वापस काम पर बुला ले, बिना तनख्वाह के भी मंजूर है; इस मुई घंटी से तो निजात मिलेगी।

एक बार तो हद ही हो गई। दोपहर को घंटी बजी। एक नौजवान खड़ा था, “अंकल, आपके पड़ोसी नहीं हैं क्या?” मैंने कहा, “उनकी घंटी बजाओ, मेरी क्यों बजाई?” नौजवान बोला, “बजाई थी, पर दरवाजा नहीं खुला।” मैंने कहा कि मोबाइल पर कोशिश करो। युवक बोला, “कर चुका हूँ, अंकल, पर कोई जवाब नहीं मिल रहा।”

अब तक मैं खीझ चुका था। मैंने कहा, “कहीं सिधार तो नहीं गये? चलो पुलिस को बुलाते हैं। वही दरवाजा तोड़े तो कुछ पता चलेगा।” नवयुवक भड़क गया। बोला, “कैसी बात करते हैं, अंकल। ये मेरे ताऊ जी का फ्लैट है। वे लोग कुंभ मेला जाने वाले थे। शायद वहीं गये हों।” अब तक मैं बुरी तरह झल्ला गया था और बोला, “बरखुरदार, जब तुम्हारे पास सभी सवालों के जवाब हैं, तो मेरी घंटी बजाकर मुझे क्यों तंग कर रहे हो?”

युवक बोला, “सो तो है, अंकल। पर क्या ताऊ जी ने आपको बताया कि वे कुंभ से लौटेंगे?” मैंने ग़ुस्सा पीकर, गंभीर होते हुए कहा, “बेटा, कैसे बताऊँ? कई बार तो लोग कुंभ से लौट ही नहीं पाते – या तो मोक्ष प्राप्त कर वहीं से बैकुंठधाम का रुख करते हैं या साठ के दशक के फिल्मों की तरह गुम हो जाते हैं, फिर कहीं स्मग्लिंग करते, या रिक्शा चलाते हुए पाए जाते हैं। तुम्हारे ताऊ जी हैं, तुम्हीं सम्हालो, बस मेरी घंटी ना बजाना।” युवक पैर पटकता हुआ चला गया।

महीनों घंटी-सेवा में गुजारने के बाद अब मैंने नियति से समझौता कर लिया है। जिंदगी अब ऐसे ही कटेगी – घंटी की आवाज सुनो और दौड़कर दरवाजा खोलो, ठीक वैसे ही जैसे कालूराम करता था।

यदि आप सरकारी साहब हैं, तो झटपट अपनी टेबल से घंटी का बटन हटवा दीजिये, क्योंकि कर्म किसी को नहीं छोड़ता। यदि मेरी तरह घंटी बजाने का पाप करते हुए रिटायर हो चुके हैं, तो चलिये कल सुबह से लंबी मॉर्निंग वॉक पर निकलते हैं। श्रीमती जी घंटी देख लेंगी, फिर आपको!

साभार : “Generally Speaking