आवश्यकता है “भारतीय न्यायिक सेवा” के गठन की
वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रामना रेड्डी ने भी जजों की कमी को न्यायपालिका की एक बड़ी चुनौती बताया है। उन्होंने भी एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जैसे संगठन का सुझाव दिया है। वर्तमान न्यायाधीश और देश के मुख्य न्यायविद भी संघ लोक सेवा आयोग के अधीन न्यायिक सेवा के गठन की तुरंत वकालत कर रहे हैं!
प्रेमपाल शर्मा
प्रशासनिक सुधारों की अगली कड़ी में केंद्र सरकार ने आईएएस, आईपीएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं की तरह “भारतीय न्यायिक सेवा” बनाने का मन बना लिया है। क्योंकि यह मामला संविधान की धारा 312 के तहत राज्यों की संघीय व्यवस्था से भी संबंधित है। इसलिए अगले महीने सभी राज्यों के कानून मंत्रियों के साथ विचार विमर्श किया जाएगा।
यों तो 1946 में सरदार पटेल की अध्यक्षता में ऐसी अखिल भारतीय न्यायिक सेवा बनाने पर विचार हुआ था, उसके बाद 1960 और 2012 में भी राज्यों से सलाह ली गई थी, लेकिन आजादी के बाद जैसे 370, समान नागरिक संहिता आदि मामलों पर आधे-अधूरे मन से और पूरे राजनीतिक दांव-पेंचों के तहत मामलों को लटकाया जाता रहा, वैसा ही न्यायिक सेवा के गठन की मामले में भी हुआ।
अक्सर हर बार तीन बातों के आधार पर विरोध किया जाता रहा है। पहला, उस राज्य की भाषा, दूसरा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और तीसरा, राज्य के निचली न्यायिक सेवा के प्रमोशन में रुकावटें।
कितनी कमजोर, लचर और अवास्तविक तर्कहीन दलीले हैं तीनों। आईएएस, आईपीएस तथा एक और अखिल भारतीय सेवा भारतीय वन सेवा के अनुभव से भी सीखें तो क्या ये सभी उस राज्य की भाषा सीखकर उतनी ही दक्षिता से काम नहीं कर रहे? क्या उन राज्यों के प्रांतीय सिविल सेवाओं को भी आगे बढ़ने में कभी कोई दिक्कत हुई?
अब रहा न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रश्न, तो यहां हाई कोर्ट एक्ट में कुछ सुधार लाकर राजनीतिक दखलअंदाजी को दुरुस्त किया जा सकता है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने 10 वर्ष पहले अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के लिए टेन्योर पोस्टिंग का निर्णय पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम द्वारा दायर एक मामले में किया है, लेकिन ज्यादातर राज्य किसी न किसी बहाने से इसके पालन में कोताही करते हैं।हालांकि दक्षिण के कुछ राज्यों ने बेहतर व्यवस्थाएं की हैं और उसके परिणाम भी उन राज्यों को बेहतर मिले हैं।
भाषा के मसले पर बात करें, तो न्याय को जनता की भाषा में करने के लिए इससे बेहतर कदम नहीं हो सकता। आजादी के बाद से ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा प्रश्न यही उठता रहा है कि ज्यादातर मुवक्किलों को पता ही नहीं होता कि कोर्ट में उनके वकील क्या कहते हैं और क्या निर्णय होता है।कई मंचों से यह बात उठाई जाती रही है, लेकिन आजादी के बाद जो सरकारें रहीं, वे सब अंग्रेजी की ऐसी दीवानी रहीं कि जनता सही न्याय के लिए अभी तरस रही है।
मोदी सरकार के दौर में भारतीय भाषाओं के पक्ष में कई अच्छे कदम उठाए गए हैं। यहां तक कि न्यायपालिका में भी जुंबिश हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक न्याय कल्याणकारी योजनाओं आदि पर केंद्रित सैकड़ों निर्णय उनको देश की मुख्य भाषाओं में अनूदित करा दिया है, जिसका उद्घाटन 3 वर्ष पहले राष्ट्रपति महोदय ने किया था।
दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट की पहल पर ही गवाहों को उनकी अपनी भाषा में गवाही दर्ज करने की हिदायत दी गई है, जिनका अनुवाद न्यायाधीशों के सामने उपलब्ध कराया जाएगा। यदि सिविल सेवा परीक्षा की तरह न्यायिक सेवा में भी भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की छूट दी जाए, तब तो सोने में सुहागा होगा।
देश के ज्यादातर नौजवान अपनी मातृभाषा में कानून की पढ़ाई करने के लिए भी प्रेरित होंगे और इस सेवा में आने के लिए भी भविष्य में उनके उन राज्यों में तैनाती को भी प्राथमिकता पर विचार किया जा सकता है।
देश में नामी-गिरामी लॉ कॉलेज तो जरूर खुल गए हैं, लेकिन वहां प्रवेश की परीक्षा अंग्रेजी ही है। न्याय सेवा और अपनी भाषाओं में परीक्षा देने की शुरुआत से प्रवेश परीक्षा भी अपनी भाषाओं में वैसे ही दी जा सकेगी जैसी शुरुआत इस सरकार ने मेडिकल प्रवेश की नीट और इंजीनियरिंग सेवा में की है।
अब आते हैं न्यायपालिका की स्वतंत्रता के प्रश्न पर। 70 साल का अनुभव तो यही बताता है कि न्यायपालिका और केंद्रीय विश्वविद्यालय दोनों में भर्ती राजनीतिक कारणों से वंशवाद, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद से होती है। 70 के दशक में जब हम विश्वविद्यालयों में थे, तो कानून पढ़ने वाले ज्यादातर वे छात्र होते थे जो आधे अपराधी आधी राजनीति के बूते 40 साल तक होटलों में डेरा जमाए रहते थे और चुनावी राजनीति के लिए विश्वविद्यालय और उसके बाहर पूरी तरह सक्रिय।
इन्हीं में से ज्यादातर फर्जी डिग्रियों, राजनीतिक विचार दबाव और सुनी-सुनाई बात, प्रेस रिपोर्ट आदि के आधार पर वकालत करते-करते अचानक माननीय जज हो जाते हैं। ऐसे हाथों से किसका न्याय होगा और क्या लोकतंत्र का भला होगा? दोनों में ही राजनीतिक कैडर को धड़ल्ले से लोकतंत्र के नाम पर खपाया जाता रहा है।
अभी तक का अनुभव तो यही कहता है। विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, एनडी तिवारी, लालू प्रसाद यादव से लेकर न जाने कितने नाम हैं। भला हो विश्वविद्यालय में चुनाव प्रक्रिया को कुछ-कुछ रास्ते पर लाने के लिए पूर्व चुनाव आयुक्त और आईएएस लिंगदोह कमेटी का। पूरा सुधार आना तो अभी बाकी है।
विपक्ष के राजनीतिज्ञ ऐसे आधार पर विरोध लगातार करते रहे हैं, क्योंकि जिस “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” के दर्शन की बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी करती थीं, न्यायिक सेवा के गठन के बाद वे रास्ते बंद हो जाएंगे।
न्यायाधीशों की नियुक्ति मैं गड़बड़झाले को विस्तार से जानने के लिए अभिनव चंद्रचूड़ की किताब “व्हिस्पर्स इन सुप्रीम कोर्ट” पढ़ सकते हैं। आंकड़े बताते हैं कि वंशवाद और राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर जितनी नियुक्तियां न्यायपालिका और भारत के विश्वविद्यालयों में होती हैं, उतनी राजनीति में भी नहीं।
इसलिए भारतीय शिक्षा सेवा के गठन की भी उतनी ही जरूरत है। 2016 में सुब्रमण्यम समिति ने भी विश्वविद्यालयों में संघ लोक सेवा आयोग की तर्ज पर भर्ती बोर्ड बनाने की सिफारिश की है। जिस देश की शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था इतने कमजोर खंभों पर खड़ी हो उसे लोकतंत्र का अपमान ही कहा जाएगा।
पूरा देश जानता है कि देश के हर हिस्से में न्यायालय में करोड़ों मामले दशकों से निर्णय का इंतजार कर रहे हैं। पिछले वर्षों में तो न्यायाधीशों की कमी की बात भी राष्ट्रीय स्तर पर उठी है। वर्ष 2017 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे. एस. केहर ने हताशा में यह तक कह दिया था कि यदि सरकार भर्ती नहीं कर सकती तो जिला न्यायाधीशों के पद पर हम खुद नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार हैं।
हाल ही में मौजूदा मुख्य न्यायाधीश रामना रेड्डी ने भी जजों की कमी को न्यायपालिका की एक बड़ी चुनौती बताया है, और उन्होंने भी एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण जैसे संगठन का सुझाव दिया है। मौजूदा न्यायाधीश और देश के मुख्य न्यायविद भी संघ लोक सेवा आयोग के अधीन न्यायिक सेवा के गठन की तुरंत वकालत कर रहे हैं।
उम्म्मीद है, इस सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति के मद्देनजर शीघ्र ही न्याय व्यवस्था में एक बड़ा परिवर्तन होगा।
#प्रेमपाल_शर्मा, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी, दिल्ली, संपर्क: 99713 99046
#IndianJudicialService #UPSC