November 11, 2021

उपयोगी प्रशासनिक सुधार और कड़े निर्णयों से ही बदलेगा रेल व्यवस्था का परिदृश्य

मोती निकालना है, तो गहरे पानी में पैठना पड़ेगा!

अगर 52 साल के बाद कोई अधिकारी डीआरएम बनने के लायक नहीं है, तो फिर 57/58/59 साल में किस तर्क पर और कैसे कोई जीएम, बोर्ड मेंबर और चेयरमैन/सीईओ की ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी संभालने के योग्य हो जाता है???

सुरेश त्रिपाठी

मेंबर ट्रैक्शन एंड रोलिंग स्टॉक (#MTRS) और रेलवे बोर्ड के पीईडी/विजिलेंस जैसे कुछ अन्य अधिकारियों के ऊपर जो कार्यवाही हुई है, उससे पूरी भारतीय रेल में खलबली मची हुई है। रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव के यह कुछ कदम प्रशासनिक सुधार की अभी केवल बानगी भर हैं। अभी आने वाले समय में वह इससे बड़े और कड़े कदम उठाने वाले हैं। कुल मिलाकर रेलवे के जो समर्पित अधिकारी और कर्मचारी हैं, उनको रेलमंत्री के इन कदमों से रेल में एक नई संस्कृति की शुरुआत होने की झलक दिखाई दे रही है।

इनमें से अधिकांश अधिकारियों का यह मानना है कि रेलमंत्री के इस कदम में रेल के सुधार/रिफॉर्म के प्रति प्रतिबद्धता नजर आती है और इससे यह भी स्पष्ट हो रहा है कि वे एक मजे हुए प्रशासक और नेता की तरह पूर्वाग्रह से बंधे हुए नहीं हैं तथा स्व-विवेक से पूर्व के निर्णयों को पलटने से भी गुरेज नहीं करने वाले हैं।

“डेट ऑफ बर्थ” की योग्यता का कोई औचित्य नहीं

रेलवे को लेकर चिंतित रहने वाले लोगों, जो रेलवे की हर गतिविधि पर बड़ी बारीकी से नजर रखते हैं, का कहना हैं कि रेलमंत्री को अगर अपने और प्रधानमंत्री के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सही टीम खड़ी करनी है, तो जो रेलवे में कटिंग-एज डीआरएम और जीएम की पोस्टें हैं, उन पर अविलंब चयन प्रक्रिया के माध्यम से योग्य, कर्मठ और ऊर्जावान समर्पित अधिकारियों को लगाया जाए, वरना “डेट ऑफ बर्थ” की एकमात्र योग्यता वाले डीआरएम, जीएम और बोर्ड मेंबर्स के सहारे बचे दो साल में वह ढ़ाई इंच भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। बहुत हद तक रेलमंत्री को अब इसका अनुभव हो भी गया होगा।

रेलवे में इस प्रशासनिक सुधार की बड़े जोरों से चर्चा भी थी और जीएम/डीआरएम के पैनल निकलने में हो रही देरी के लिए यही कयास लगाए जा रहे थे कि इनके चयन की प्रक्रिया बदल रही है। खासकर डीआरएम पैनल में अभी तक कई माह का अतिरिक्त विलंब हो चुका है, लेकिन फिर सुनने में यही आ रहा है कि 52 साल यानि “डेट ऑफ बर्थ” वाली प्रक्रिया के आधार पर ही 10 माह के विलंब से पैनल निकाला जा रहा है।

रेलमंत्री के विजन और लक्ष्य का दारोमदार

अब इसमें भी वही अधिकारी रेलमंत्री को मिलेंगे, जिनके पास मात्र डेट ऑफ बर्थ वाली ही योग्यता है और जैसे उनके पूर्ववर्ती डीआरएम समय काटकर तथा अकूत सुख-सुविधा भोगकर बिना कुछ किए वापस आ गए हैं, वैसे ही इस पैनल के लोग भी समय काटकर वापस आ जाएंगे। लेकिन ये वे लोग हैं, जो 2024 तक डीआरएम रहेंगे और रेलमंत्री के विजन को पूरा करने का दारोमदार पूरी तरह इनके और मार्च-अप्रैल 2022 में बनने वाले डीआरएम के परफॉर्मेंस के ऊपर ही होगा।

#RailSamachar के पास देर से बन रहे पैनल की जो जानकारी है, उसमें गिन-गूथकर मात्र एक-दो अधिकारी ही ऐसे हैं, जो रेलमंत्री और प्रधानमंत्री की अपेक्षा के अनुरूप रिजल्ट देने वाले हैं, बाकी केवल पावर, पैसा और सुविधा एंजॉय करने वाले हैं।

समय से पैनल नहीं निकलने का खामियाजा

समय से पैनल नहीं निकलने का खामियाजा ऐसे बहुत से योग्य, निष्ठावान और कर्मठ अधिकारी भुगतने वाले हैं, जो बोर्ड की नाकामी, अनिर्णय और विलंब के कारण 52 साल की बॉर्डर लाइन पर आकर बाहर हो जाएंगे। रेलमंत्री को इस अन्याय और बोर्ड की अकर्मण्यता पर भी उचित निर्णय लेना चाहिए।

जानकारों का मानना है कि 52 साल की उम्र की जगह सभी सर्विसेस के बैच वाइज पूरे बैच को एलिजिबल मानते हुए पैनल बनाया जाए। उनमें से डीआरएम चुनने की चयन प्रक्रिया ही इसका सही और न्यायपूर्ण विकल्प हो सकती है।

रेलवे के इतिहास में रेलवे की दिशा और दशा बदलने वाला यह अब तक का सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा क्रांतिकारी कदम साबित होगा। डीआरएम से ही जीएम, बोर्ड मेंबर और सीआरबी बनने की पात्रता शुरू होती है। इसीलिए इसके चयन को अन्यायपूर्ण और असंवैधानिक तरीके से एक खास किस्म के लोगों के लिए ही सुनिश्चित करने के लिए कूट रचना की गई है, जो कर्मठ और समर्पित लोगों को अछूत की तरह मानते हैं, जिसमें किसी की योग्यता और योगदान कोई मायने नहीं रखता। केवल आपका जन्म कब हुआ है, सिर्फ यही मैटर करता है। अगर जन्म आधारित अन्य भेदभाव गलत हैं, तब यह कैसे सही हो सकता है?

रेलमंत्री खुद देखें कि किसी भी सर्विस के किसी भी बैच में जो लोग 52 साल की तथाकथित एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया को पूरा करते हैं, उनका योगदान अपने ही बैच के डेट ऑफ बर्थ के कारण डीआरएमशिप के लिए अछूत हो चुके लोगों के सामने “शून्य/बिग जीरो” है।

52 साल की एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया का तर्क और औचित्य क्या है?

अगर 52 साल के बाद कोई डीआरएम बनने के लायक नहीं है, तो फिर बड़ा सवाल यह उठता है कि 57/58/59 साल की उम्र में किस तर्क पर और कैसे कोई जीएम और सीआरबी की ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के योग्य हो जाता है?

पूरी सर्विस के दौरान रेलवे की कोर वर्किंग में जीवन खपा देने वाले लोग डीआरएम नहीं बन पाते हैं, लेकिन ए. के. मित्तल और राहुल जैन जैसे लोग तथा जिनका दूर-दूर तक फील्ड और कोर वर्किंग से नाता नहीं रहा, वह डीआरएम बनते ही कैसे जीएम, बोर्ड मेंबर और सीआरबी बनने के योग्य हो जाते है? इसके पीछे क्या ऑर्गनाइजेशन या देश की भलाई का कोई तर्क है?

यह कुछ यक्ष प्रश्न हैं, जिनका उतर रेलमंत्री को ही खोजना होगा, क्योंकि इसी में उनकी सभी समस्याओं का समाधान भी निहित है।

रेलमंत्री की अध्यक्षता में गठित हो चयन बोर्ड

रेलमंत्री की अध्यक्षता में एक चयन बोर्ड का गठन किया जाए, जिसमें सर्विस रिकार्ड के साथ साक्षात्कार के आधार पर योग्यतम अधिकारी को डीआरएम – और जीएम भी – का चयन किया जाए।

जैसे आज प्रधानमंत्री संयुक्त सचिव की समानान्तर बहाली में चयन कर रहें हैं, वही प्रक्रिया यहां रेलवे में भी डीआरएम और जीएम का चयन करने में अपनाई जा सकती है।

मोती निकालना है तो गहरे पानी में पैठना पड़ेगा!

बहुराष्ट्रीय कंपनियों अथवा निजी-कारपोरेट सेक्टर में भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक और प्रबंधकीय पदों पर चयन में वरिष्ठता या डेट ऑफ बर्थ के एडवांटेज की जगह मात्र योग्यतम का चयन ही क्राइटेरिया होता है। वहां कमिटमेंट, एबिलिटी, सूटेबिलिटी, परफॉर्मेंस ही एकमात्र क्राइटेरिया होता है, जिसमें एक 25 साल का युवा भी सीईओ/एमडी बन सकता है, और एक 70 साल का अनुभवी ऊर्जावान व्यक्ति भी।

रेलवे में डीआरएम, जीएम, बोर्ड मेंबर और सीआरबी बनने की पॉलिसी के हिसाब से अगर देश चलता, तो कोई भी सम्भावनाओं से भरा हुआ व्यक्ति खुद रेलमंत्री के जैसा प्रतिभाशाली मंत्री देश को नहीं मिलता!

तोड़ना होगा तिकड़मी व्यवस्था का चक्रव्यूह

जब अवसर को किसी दायरे मे बांधा जाता है, तब उसी समय अक्षम और तिकड़मी लोगों के हाथों में व्यवस्था की कमान सौंप दी जाती है। डीआरएम के लिए यह 52 साल की “लक्ष्मण रेखा” भी इसी तरह की साजिश का हिस्सा है। और चूँकि इसी साजिश से जीएम, बोर्ड मेंबर और सीआरबी बनने का रास्ता भी जुड़ा है, इसलिए रेलमंत्री को तुरंत इस साजिश और तिकड़मी व्यवस्था के चक्रव्यूह को तोड़ना होगा। तभी वह 2024 तक अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।

रेलमंत्री एक्सपेरिमेंट पर विश्वास करते हैं। इसलिए एक्सपेरिमेंट के तौर पर ही सही, इसको करके एक बार देख लें, तब प्रशासन और व्यवस्था में उन्हें इसका स्पष्ट फर्क नजर आ जाएगा।

अतार्किक, अन्यायपूर्ण है 52 साल की लक्ष्मण रेखा

डीआरएम के लिए 52 साल की लक्ष्मण रेखा कितनी मनमानी, अतार्किक और अन्यायपूर्ण है, इसे संविधान के “समान अवसर और समानता” के मूलभूत सिद्धांत और अधिकार के विरोधाभास में इसका माखौल उड़ते देखा जा सकता है। इसको ऐसे भी देखें कि पूरे बैच के आधार पर डीआरएम बनने की पात्रता निर्धारित करने से सभी को न्यायपूर्ण तरीके से अवसर मिलता है, जिसमें कोई भी भेद नहीं है, न उम्र का, न जाति का, और न ही सर्विस का!

इसको इस तरह ज्यादा बेहतर समझा जा सकता है कि अभी सिविल सेवा से आए लोगों का ही उदाहरण ले लें, तो 52 साल के क्राइटेरिया के हिसाब से ट्रैफिक, एकाउंट्स और कार्मिक के मामले में ट्रैफिक, सिविल सेवा में कुछेक अपवाद को छोड़कर आमतौर पर रेलवे में आने वाली चारों सेवाओं में सबसे ऊपर होता है। फिर एकाउंट्स और कार्मिक आते हैं।

लेकिन वर्तमान एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया के चलते 52 साल के हिसाब से कुल यदि 20 लोग ट्रैफिक में हैं और 10-10 एकाउंट्स तथा कार्मिक में हैं, तो अगर ट्रैफिक से चार डीआरएम बनते हैं, तो अगर एकाउंट्स के जो लोग भले ही अपनी सेवा में नंबर वन पर हैं, लेकिन ट्रैफिक के 20वें कंडीडेट से मूलतः वह सिविल सेवा के रैंक में नीचे ही होंगे, परंतु वह 52 साल की क्राइटेरिया में आने पर डीआरएम बन जाएंगे।

लेकिन तब उसके नीचे का एकाउंट्स का ही कंडीडेट, फिर वह चाहे नंबर 4 पर हो या नंबर 10 पर, उस साल 52 साल के क्राइटेरिया में आने के बावजूद भी डीआरएम नहीं बन पाएगा और जब तक उसकी सर्विस में उसका नंबर आएगा तब तक वह 52 साल की आयु सीमा को पार कर चुका होगा और तब फिर उसकी एलिजिबिलिटी खत्म।

फिर यही स्थिति 10वें नंबर के एकाउंट्स के कंडीडेट की कार्मिक के नंबर वन के कंडीडेट की तुलना में होगी, जो सिविल सेवा की रैंक में ऊपर होने के बावजूद भी इसलिए डीआरएम नहीं बन पाएगा, क्योंकि वह कार्मिक वाले से ऊपर के रैंक पर था, और कार्मिक वाला इसलिए डीआरएम बन जाएगा – और फिर जीएम भी – कि वह एकाउंट्स के 10वें रैंक के कंडीडेट से मेरिट में नीचे रह गया था, लेकिन अपनी सर्विस में वह इसी कारण से नंबर वन बन गया।

यह विडंबनापूर्ण स्थिति कितनी मजेदार, या हास्यास्पद है, इसका निर्णय रेलमंत्री, रेलवे के जानकार और पाठकगण स्वयं करें।

टके सेर खाजा, टके सेर भाजा

इस तरह “टके सेर खाजा, टके सेर भाजा” वाली स्थिति यूँ ही नहीं बनती है! यह तब बनती है, जब सुनियोजित तरीके से किसी देश को, किसी व्यवस्था को, चौपट करना होता है, और तिकड़मी तरीके से कुछ खास लोगों के हाथों में ही व्यवस्था की बागडोर देनी होती है, जो अपनी एक निर्धारित खासियत के चलते पहले से ही आश्वस्त होते हैं कि बागडोर उन्हीं को मिलेगी।

यह अप्राकृतिक और असंवैधानिक प्रिविलेज ही उन्हें अकर्मण्य, दम्भी, अवसरवादी और सुविधाभोगी बना देती है। फिर यही प्रवृत्ति रेलवे में सामंतवादी सोच का एक बड़ा तबका खड़ा कर देती है, जो केवल अपने लिए सोचते और जीते हैं। तब इनके इस उद्देश्य को पूरा करने में विभागवाद अर्थात डिपार्टमेंटलिज्म की भावना इनका सबसे बड़ा अस्त्र बन जाती है।

वर्तमान व्यवस्था का लाभ उठाते हैं केवल कुछ प्रिविलेज्ड लोग

इसका फायदा केवल और केवल ऊपर के यही कुछ प्रिविलेज्ड लोग ही उठाते हैं। वह इस विभागवाद के जहर का नशा सबमें इतना फैला देते हैं कि इनके डिपार्टमेंट के लोगों के लिए केवल डिपार्टमेंट ही सब कुछ हो जाता है। उनके अंदर रेल तथा देश के प्रति जिम्मेदारी का भाव ही खत्म हो जाता है। और तब जाने-अनजाने इन गिने-चुने प्रिविलेज्ड लोगों का पूरा कैडर ही अपने अंदर के इन अवसरवादी, शातिर और तिकड़मी लोगों के लिए पैदल सेना की तरह काम करने लगता है।

जितना डिपार्टमेंटलिज्म होता है, उतनी ही इनकी – जो कम उम्र में आते हैं – चांदी होती है, और इसे सबसे ज्यादा हवा यही लोग देते हैं।

असमानता और अन्यायपूर्ण स्थिति

यही असमानता और अन्यायपूर्ण स्थिति आईईएस से आए बेचारे सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, स्टोर्स और एसएंडटी इत्यादि के कंडीडेट्स के साथ भी होगी, जो पूरी तरह से सामंती निर्लज्जता से निर्धारित की गई 52 साल वाली व्यवस्था में अधिकांश योग्य, समर्पित और कर्मठ कैंडीडेट्स को समान अवसर और समानता के संवैधानिक अधिकार से वंचित कर देती है और फिर अपनी सुविधा से गढ़ी गई तिकड़मी व्यवस्था के माध्यम से पूरी व्यवस्था पर उन्हीं की सेवा के कुछेक लोगों के ही हक को वैधता प्रदान कर देती है।

इसी में तिकड़मियों का अपनी डिजाइन के अनुसार पैनल लेट कर, फर्जी विजिलेंस शिकायत का सहारा लेकर, योग्य लोगों को टार्गेट कर, रेस से बाहर करने का खुला खेल भी चलता है। लेकिन जैसे ही पूरे बैच को एलिजिबल मानने का क्राइटेरिया बना लिया जाएगा, यह सारी तिकड़म और भेदभावपूर्ण तथा व्यवस्था को विकलांग करने वाली यह असंवैधानिक, अन्यायपूर्ण व्यवस्था धराशायी हो जाएगी और रेलवे का सर्वोच्च नेतृत्व अपने अधिकारियों के रूप में उपलब्ध विशाल मानव संसाधन में से बिना किसी भेदभाव के केवल वास्तविक योग्यता/क्षमता के आधार पर अपने विजन और टार्गेट के हिसाब से डीआरएम और जीएम बना सकेगा।

चयन प्रक्रिया में मिलेगा सभी को समान अवसर

इस व्यवस्था से चयन समिति के सामने डीआरएम पद के लिए अपनी अर्हता और योग्यता साबित करने का सभी डिपार्टमेंट/कैडर के सभी लोगों को समान अवसर मिलेगा, न कि केवल पहले से मैच फिक्स कर रखे कुछ लिमिटेड लोगों द्वारा डीआरएम पद पर कब्जा जमाने का!

इससे सभी लोगों को समान अवसर मिलेगा, न कि हर डिपार्टमेंट में मात्र कुछ चिन्हित खास एलिजिबिलिटी के कारण स्व-घोषित प्रिविलेज्ड लोगों को? जिन्हें पहले दिन से ही श्योर शॉट डीआरएम, जीएम, बोर्ड मेंबर और सीआरबी मटेरियल कहा जाता है, या वह ऐसा कहते और कहलवाते हैं, जो इसी हनक से जिंदगी भर दूसरों को हेय समझकर रौब गाँठते रहते हैं और डीआरएम, जीएम तथा बोर्ड मेंबर बनने के लिए साजिश तथा तिकड़म के अलावा, व्यवस्था में न उनकी कोई योग्यता होती है, और न ही कोई योगदान!

विजन और टार्गेट के अनुरूप टीम बनाएं

रेलमंत्री को, सरकार को यह अधिकार है कि वे अपने विजन और टार्गेट के अनुसार अपनी टीम बनाएं, न कि‌ किसी साम्राज्यवादी/सामंतवादी सोच के द्वारा पूर्व में थोप दी गई ठूंठ व्यवस्था और लकीर का ही अनुसरण करते हुए अपना पूरा समय और ऊर्जा गंवा दें, और‌ असफलता की बदनामी भी अलग से मोल लें।

आवश्यक है अनुचित निर्णयों को बदलना

यहां दूसरी बात यह भी ध्यान रखने वाली है कि बंगला प्यून की व्यवस्था खत्म करने से रेल अधिकारियों का सारा उत्साह मर गया है। पूर्व रेलमंत्री द्वारा बंगला प्यून (#TADK) की व्यवस्था के साथ पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर समाप्त करने की नीयत से छेड़छाड़ करना एक अन्यायपूर्ण और अनुचित निर्णय था। अगर वर्तमान रेलमंत्री अपनी व्यावहारिक दरियादिली दर्शाते हुए टीएडीके को पूर्ववत बहाल कर देते हैं, तो वह अब तक के सबसे लोकप्रिय और सफलतम रेलमंत्री माने जाएंगे।

इस तरह वह रेल व्यवस्था में नया उत्साह और नई ऊर्जा का प्रणिपात करेंगे। तब एक झटके में हजारों अधिकारियों की पूर्ण निष्ठा तथा कृतज्ञता के साथ समर्पित फौज, खासकर युवा अधिकारियों की, उनके सामने हमेशा तत्पर मिलेगी, क्योंकि आज की तारीख मे रेलवे में एक सबसे बड़ी चीज जो देखने को मिल रही है, वह यह कि हर स्तर के रेल अधिकारियों, खासकर युवा अधिकारियों का उत्साह मर चुका है।

यह सही है कि रेलवे में काफी हतोत्साह की स्थिति है। इतनी न्यूनतम एनर्जी का माहौल रेलवे में इससे पहले कभी नहीं देखा गया था। पहले रेलकर्मियों के परिवार के लोग भी बाहर किसी के द्वारा रेलवे के बारे में नकारात्मक बोलने पर लड़ पड़ते थे, लेकिन अब उनके अंदर भी रेल को लेकर जो सम्मान और अपनेपन का भाव था, वह भी खत्म हो रहा है।

जहां रेलमंत्री का यह विजन है कि रेलवे में जो मानव संसाधन उपलब्ध है, वह उसी में उत्तेजना और उत्साह पैदा करके रेल को निर्यात आधारित उद्योग बनाएंगे तथा रेल संपत्तियों का निजीकरण करने के बजाय उनका आंतरिक दोहन करके उन्हें लाभप्रद संपत्ति में बदलेंगे, इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उपलब्ध मानव संसाधन में उत्तेजना और प्रोत्साहन पैदा करना आवश्यक है।

एक सुलझे हुए राजनेता के तौर पर और विश्व की इस गरिमामयी विशाल संस्था के अभिभावक के रूप में रेलमंत्री अश्वनी वैष्णव अपने अधिकारियों और कर्मचारियों के हित में बंगला प्यून जैसी कुछ निहायत ही जरूरी और वाजिब सुविधा को बहाल कर रेल के इस हतोत्साहित, निस्तेज और उदासीन हो रहे वातावरण को रातों-रात बदल सकते हैं। क्रमशः

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