“सब दिन होत न एक समाना”
“जनहित” को ध्यान में रखकर निर्णय लें रेलमंत्री और सीआरबी !
सुरेश त्रिपाठी
“ऐसा अमानवीय संवेदनहीन, निष्ठुर निजाम आधुनिक भारत में नहीं देखा गया है, जैसा वर्तमान रेलमंत्री और वर्तमान री-एंगेज्ड सीआरबी के समय देखा जा रहा है!”
उपरोक्त कथन है कई पूर्व और वर्तमान रेल के जानकारों का। उनका कहना है कि कोरोना से अब तक लगभग हर रेल परिवार किसी न किसी रूप में प्रभावित हुआ है, या हो रहा है। परिवार के मुखिया होने के नाते रेलमंत्री और सीआरबी को वह हर संभव प्रयास करना चाहिए था, जिससे लोगों को इस निराशाजनक और अवसाद वाले माहौल में सहारा तथा हिम्मत मिलती, लेकिन यह दोनों मोहम्मद गोरी और बलबन से भी आगे निकलकर सिर्फ अपने “सैडिस्टिक प्लेजर” को तुष्ट करने के लिए तानाशाही फरमान जारी करके रेलवे की वह तमाम विशेषीकृत (स्पेस्लाइज्ड) व्यवस्था को तोड़-फोड़कर नष्ट कर देना चाहते हैं, जिसका भरपूर उपभोग इन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में किया और आज भी कर रहे हैं।
रेलवे को बहुत गहराई से जानने-समझने वाले कई पूर्व और वर्तमान वरिष्ठ एवं उच्च अधिकारियों का मानना है कि “रेलवे को तहस-नहस करके इसका संपूर्ण निजीकरण करना ही “रंगा-बिल्ला” का एकमात्र मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है, जिसको पूरा करने के लिए अभी इन दोनों का फोकस पूरी तरह से वैसे मुद्दों को आगे बढ़ाने का है, जो विवादास्पद हैं और रेलवे में हर आदमी के बीच वैमनस्य तथा विवाद ही पैदा करने वाले हैं। इनका यह ‘कुटिल प्रयास’ और ‘फूट डालो राज करो’ वाली नीति इनके काम को और आसान बना रही है।”
उनका कहना है, “इनको पता है कि सकारात्मक माहौल में लोग संगठित होते हैं। इसीलिए शुरू से ही इन्होंने ऐसे मुद्दों पर अपना फोकस किया और ऐसा माहौल बनाया, जिनसे विवाद पैदा हों और लोगों को अपना भविष्य दांव पर लगता महसूस हो, नौकरी खतरे में पड़ती नजर आए, लोग डिस्टर्ब हों, रेल और रेलकर्मी बदनाम हों, असुरक्षित महसूस करें, एक-दूसरे को शक की नजर से देखें, ऐसे में अगर अभी भी सिर्फ मौन (मृत) पड़े सभी बोर्ड मेंबर्स/एडीशनल मेंबर्स/जीएम्स भी अपना कैडर-कैडर खेलना छोड़कर रेल हित और देश हित में संगठित हो जाएं, तो ये दोनों मोहम्मद गोरी और बलबन, अपनी इज्जत बचाकर भाग खड़े होंगे।”
उन्होंने कहा, “इन दोनों रंगा-बिल्ला का अब तक का कोई भी निर्णय और मुद्दा न तो प्रोडक्टिव है, न ही रेल एवं देश के हित में रहा है, और न ही ऐसा है कि इन मुद्दों को अभी नहीं आगे बढ़ाया गया, तो धरती ही खत्म हो जाएगी, आसमान फट पड़ेगा अथवा कयामत आ जाएगी। यह ठीक वैसा ही है जैसा कोई ‘असुर’ अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए जितना आक्रामक हो सकता है, होता है। वह अपने लक्ष्य तथा आक्रामकता की सफलता सामने वाले की पीड़ा और कष्ट से ही तौलता है तथा उससे आनंदित होता है। सामने वाले को वह जितनी ज्यादा पीड़ा में देखता है, उतनी ही संतुष्टि से कुटिल अट्टहास करता है, क्योंकि इस तरह वह समझता है कि उसका वास्तविक उद्देश्य पूरा हो रहा है। तकनीकी – गैरतकनीकी रेल अधिकारियों को दो खेमों में बांटकर आपस में लड़वाने, आईआरएमएस, निजीकरण, निगमीकरण, 50/55 की उम्र या 30 साल के सेवाकाल के बाद सेवा से जबरन हटाने और टीएडीके आदि इसी तरह के मुद्दे हैं, जिनसे रेलवे या देश का कोई भी जनहित साध्य होने वाला नहीं है। परंतु इन्हें अपनी सैडिस्टिक अहंमन्यता को ठीक उसी तरह रेलवे को बरबाद करके तुष्ट करना है, जिस प्रकार इन्होंने वर्ष 2003-04 में रेलवे को प्रादेशिक स्तर पर बांटकर किया था।”
उनका यह भी कहना है कि “वहीं इनमें इतनी भी हिम्मत नहीं है कि आरपीएफ को पूरी तरह अवैध तरीके से दी जा रही “सिक्योरिटी एड” की सुविधा अविलंब बंद कर दें।” इसी तरह आरपीएफ एसोसिएशन से जुड़े कई ईमानदार, निष्पक्ष और क्रांतिकारी विचारधारा वाले कर्मियों का कहना है कि फोर्स के अंदर भी इस बात को लेकर काफी आक्रोश है, लेकिन फोर्स की दुहाई देकर या डराकर उन्हें हमेशा चुप करा दिया जाता रहा है।
हाल ही में रिटायर हुए एक बोर्ड मेंबर का कहना है कि आईटीबीपी, सीआरपीएफ, बीएसएफ आदि पैरामिलिट्री फोर्सेज किस दुर्गम और अनिश्चित परिस्थितियों में काम करती हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। हकीकत में सीआरपीएफ और आईटीबीपी, जिनका देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा में बड़ा योगदान है, को उसके अनुसार उन्हें कितनी भी सुविधा दी जाए, कम होगी, लेकिन सभी पैरामिलिट्री फोर्सेज के अधिकारियों से सिक्योरिटी एड, फॉलोवर, हमराह आदि के नाम से दी जाने वाली सुविधाओं को केंद्र सरकार ने ही कुछ साल पहले पूरी तरह से समाप्त कर दिया था।
ऐसे में उनका कहना है कि “आरपीएफ अधिकारियों में ऐसा कौन सा सुर्खाब का पर लगा है, जो पैरामिलिट्री फोर्स भी न होने के बावजूद सिर्फ रेलवे की प्रोटेक्शन फोर्स होने की वजह से बिना आवश्यकता, बिना किसी औचित्य और योगदान के हजारों मानव संसाधनों (जो रेलवे में टीएडीके की कुल संख्या से भी ज्यादा हो सकती है) का यह आधिकारिक तौर पर दुरुपयोग कर रहे हैं?” इतना ही नहीं, इसके साथ ही अधिकांश जगहों पर आरपीएफ अधिकारी टीएडीके की सुविधा भी ले रहे हैं। क्या रेलमंत्री और सीआरबी को यह सब नजर नहीं आ रहा है? इस पर रेलवे के बाकी विभागों के अधिकारियों में तो भारी क्षोभ होना स्वाभाविक है।
आरपीएफ के ही एक रिटायर वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि यह तो रेलवे बोर्ड के सभी मेंबर्स की कमजोरी और कमतरता है कि वह इसकी हिम्मत नहीं दिखाते हैं। उनका कहना है कि डीजी/आरपीएफ की तर्ज पर हर बोर्ड मेंबर भी अपने मातहत विभागीय अधिकारियों के लिए ऐसा आदेश निकाल सकता है। उनके इन बोर्ड मेंबर्स को रोका किसने है? यज्ञ बात सही भी है, क्योंकि तब या तो सबको आरपीएफ जैसी सुविधा मिल जाएगी और नहीं तो आरपीएफ जो सुविधा ले रही है, वह वैध है, या अवैध, कम से कम यह तो स्पष्ट हो ही जाएगा।
सभी अधिकारियों का मानना है कि फिलहाल वक्त का मानवीय दृष्टिकोण से तकाजा यही है कि इस कोरोना महामारी के समय में कम से कम पूर्व से चली आ रही किसी की भी, किसी भी व्यवस्था में छेड़छाड़ न करते हुए, व्यवस्था को पूर्ववत बनाए रखा जाए और जब देश इस महामारी के दौर से उबर जाए, तब सर्व-सहमति से बिना किसी पूर्वाग्रह के एक व्यवहारिक निर्णय टीएडीके जैसे परिवार की सेफ्टी और सिक्योरिटी से सीधे जुड़े संवेदनशील मुद्दे पर लिया जाए।
अब जहां तक बात किसी कैट की टिप्पणी को बहाना बनाकर इस टीएडीके की चयन प्रक्रिया या औचित्य पर सवाल उठाने का है, तो इस पर कानून के जानकार कई अधिकारियों का कहना है कि “रेलवे से गए जिंदगी भर इस सुविधा का उपभोग करने वाले “सुल्तान” को अपने ऐशो-आराम के प्रोटोकॉल के अलावा न काम का पता था, न ही अपनी अनुचित-अनावश्यक टिप्पणी लिखने से पहले न्यायपालिका में ही पूरे शबाब पर चल रही इसी तरह की व्यवस्था का उसे कोई संज्ञान है, जो वहां भी परम्परागत है। उन्होंने भी उसी तरह की सैडिस्टिक मानसिकता से लिख मारा, जिस मानसिकता से रेलमंत्री और सीआरबी काम कर रहे हैं। दोनों की “कथनी और करनी” का घोर अंतर्विरोध है।”
अतः सभी जानकारों का अंततः यही मानना था कि बिना देर किए रेलमंत्री और सीआरबी को रेलवे की अब तक चली आ रही व्यवस्था में किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करते हुए उसे पूर्ववत रखना चाहिए। यदि प्रबंधन में किसी प्रकार की शिथिलता आ गई है तो उसे चुस्त-दुरुस्त बनाने के उपाय किए जाएं, क्योंकि व्यवस्था में तोड़फोड़, कैडर मर्जर और निजीकरण या निगमीकरण इसका सर्वमान्य हल नहीं हो सकता है। यह देशहित और जनहित में भी नहीं होगा। इससे इस कोरोना जैसी वैश्विक विपदा से जूझ रहे सभी रेल अधिकारियों में व्याप्त अशांति और अनिश्चितता का माहौल भी खत्म किया जा सकता है। उनका कहना है कि इसमें जितनी देरी होगी, लोगों की इन दोनों के अंदर झांकने की प्रवृत्ति उतनी ही बढ़ेगी, जो शायद किसी भी स्थिति में शुभ स्थिति नहीं होगी। उनका यह भी कहना था कि रेलमंत्री और सीआरबी को “सब दिन होत न एक समाना” की उक्ति को भी ध्यान में रखकर जनहित में निर्णय लेना चाहिए।