October 31, 2019

‘बंदर न्याय’ के हवाले रेल मंत्रालय..!!

चीफ ऑफ स्टाफने खराब कर दी दक्षिण रेलवे के अफसरों की दीवाली!

कुछ कहा, कुछ बताया, सबको अपने पीछे लगाकर घुमाया और चलते बने

सीआरबी सहित बोर्ड मेंबर्स ने दाखिल नहीं किया सालाना रिटर्न, नियम का घोर उल्लंघन

असहमति/विरोध के बुलंद होते स्वर, जनविरोधी नीतियों पर रे. बो. को करना पड़ सकता है पुनर्विचार

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल के ‘चीफ ऑफ स्टाफ’ ने साल के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली के अवसर पर शनिवार और रविवार, 26-27 अक्टूबर को दक्षिण रेलवे मुख्यालय का अपना कार्यक्रम बनाकर वहां के अफसरों और कर्मचारियों की दीवाली खराब कर दी। हालांकि चीफ ऑफ स्टाफ की मेहमाननवाजी में उन्होंने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी, मगर इसके चलते परिवार के साथ दीवाली मनाने की उनकी हसरत धरी की धरी रह गई। इसके कारण कई अधिकारियों ने अपनी नाखुशी जताई है।

नाराज अफसरों का कहना था कि एक तो इतने बड़े त्यौहार के दिन चीफ ऑफ स्टाफ को इस तरह अचानक अपना कार्यक्रम नहीं बनाना चाहिए था, दूसरे उनके कार्यक्रम का कोई औचित्य भी नहीं साबित हो पाया कि आखिर उन्होंने यह दौरा किस उद्देश्य से किया। उनका कहना था कि उन्होंने न तो यहां के अफसरों को रेलवे की किसी भावी योजना के बारे में कोई जानकारी दी, और न ही यह बताया कि आखिर वह भारतीय रेल को किस दशा में छोड़कर जाना चाहते हैं अथवा किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।

अफसरों का कहना था कि स्टेशनों और ट्रेनों का निजीकरण और उत्पादन इकाइयों का निगमीकरण किए जाने तथा कांकोर जैसे रेलवे के प्रॉफिट मेकिंग पीएसयू को एक विशेष निजी उद्योग घराने के हाथों सौंपे जाने की तैयारियां तो जोर-शोर से हो रही हैं, परंतु इस सबके चलते रेलकर्मियों और अधिकारियों में अपने भविष्य को लेकर जो असमंजस की स्थिति बन गई है, उसका कोई उचित निराकरण नहीं किया जा रहा है, जबकि इस सबको लेकर अब सर्वसामान्य जनता भी सड़कों पर उतरने लगी है, जिसकी शुरुआत सासाराम, बिहार से हो चुकी है और अभी आगे भी बड़े पैमाने पर इसमें जन-भागीदारी बढ़ाने की तैयारियां की जा रही हैं।

उन्होंने कहा कि रेलवे बोर्ड हर दिन नए-नए आदेश, हर दिन नई-नई योजनाओं के खाके सभी जोनल रेलों के लिए जारी करता है। जोनल अधिकारी यही नहीं समझ पाते हैं कि किस पर अमल करना है, किस को पेंडिंग रखना है और किसका कम्प्लायंस आज या कल देना है अथवा तत्काल भेजना है। उनका कहना था कि यदि चीफ ऑफ स्टाफ इस सबके बारे में कुछ खुलासा करते, तो इस दीवाली के मौके पर अंधकार कुछ दूर हो सकता था। परंतु वह तो अब्दुल कलाम मेमोरियल और महाबलिपुरम जैसे पर्यटन (तीर्थ) स्थल देखने में ही व्यस्त रह गए। ऐसे में वह तो घूम-फिरकर चले गए, मगर उनकी दीवाली खराब गए।

अफसरों ने बताया कि हाल ही में रेलवे बोर्ड ने सैलूनों के इस्तेमाल को सीमित करने और उनको जोड़कर जो दस टूरिस्ट रेक बनाने का बचकाना आदेश जारी किया है, और इस तरह एक बार फिर जनसामान्य की नजर में रेलवे एवं रेल अधिकारियों को बदनाम करने की कोशिश की गई है, उसका सभी जोनल अधिकारी संगठनों ने कड़ा विरोध किया है। यहां तक कि उनकी शीर्ष संस्था ‘एफआरओए’ ने भी इस पर ऐतराज जताया है। इस विषय पर भी चीफ ऑफ स्टाफ ने दक्षिण रेलवे के अफसरों के बीच कुछ भी स्पष्ट करना जरूरी नहीं समझा। उनका स्पष्ट कहना था कि अपने सेवा विस्तार के चक्कर में चीफ ऑफ स्टाफ भारतीय रेल का बंटाधार करने पर उतारू हैं।

उनका कहना है कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘स्टोरकीपर’ से हुई यह शुरुआत आगे इसलिए बढ़ती जा रही है, क्योंकि ऐसे लोगों को भारतीय रेल का चीफ ऑफ स्टाफ बनाया जा रहा है, जिन्होंने रेलवे में कभी कोई काम नहीं किया। जबकि जीएम स्तर के कुछ उनके कैडर बिरादरी इनकी चापलूसी में उनके कसीदे पढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि जो लोग अंग्रेजों के बनाए विभिन्न विभागीय रेलवे मैनुअल्स में आज तक एक लाइन भी नहीं जोड़ पाए, वे 165 साल से सफलतापूर्वक चल रही इस महान संस्था को बरबादी की ओर ले जा रहे हैं। ऐसे लोग चीफ ऑफ स्टाफ की शान में झूठे कसीदे पढ़कर अपने नंबर बढ़ाने में लगे हुए हैं। उनका कहना था कि जो लोग अपनी काबिलियत की बदौलत नहीं, बल्कि सिर्फ एज-प्रोफाइल के चलते जीएम और बोर्ड मेंबर तक पहुंचने में कामयाब हुए हैं, उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में न तो रेलवे की बारीकियां सीखी और न ही इसमें किसी नए इन्नोवेशन का कोई योगदान किया, इसके बजाय वे सिर्फ पॉलिटिकल माइलेज लेते रहे हैं।

रेलवे बोर्ड और रेलमंत्री की मुश्किल यह है कि रेलवे की आमदनी काफी तेजी से घट रही है। लोडिंग गिरकर लगभग आधी रह गई है। कोयला, आयरन ओर, लोहा और सीमेंट के जहां सैकड़ों रेक रोजाना लोड हो रहे थे, वहां यह घटकर 8-10 रेक पर आ गए हैं। ऐसे में माल ट्रैफिक बढ़ नहीं रहा है। तीन साल में पूरी भारतीय रेल का विद्युतीकरण करने का दावा किया गया था, जो कि वक्त बीत जाने के बाद आधा भी नहीं हो पाया है। बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट आज छह साल बाद भी अधर में अटका हुआ है। बड़े गाजे-बाजे के साथ शुरू किया गया ट्रेन-18 प्रोजेक्ट ठप पड़ा हुआ है।

इसके लिए मंत्री ने खूब वाहवाही लूटी, मगर अब अपने कथित निहित स्वार्थों के चलते वह इस मामले में ‘रेलवे के अहमद पटेल’ बनने की राह पर हैं। जबकि जनरल पब्लिक के लिए भीषण त्यौहारी सीजन में भी अतिरिक्त पैसेंजर रेक चलाए नहीं जा रहे हैं। यही नहीं, पिछले साल सर्दियों में जो ट्रेनें रद्द की गई थीं, वे सब भी आजतक नहीं चलाई जा सकी हैं। जो नई ट्रेनें चलाई जा रही हैं, वह अपर क्लास के लिए और निजीकरण के तहत चलाई जा रही है, जिनका किराया सामान्य ट्रेनों की अपेक्षा दो से तीन गुना ज्यादा है। इससे जनता में रेलवे और सरकार दोनों के प्रति आक्रोश पैदा हो रहा है, इसकी खबर पीएमओ को लग चुकी है।

रेलवे की हो रही दुर्गति और इसको लेकर हो रही सरकार की आलोचना से पीएमओ भी काफी चिंतित है। प्राप्त जानकारी के अनुसार पिछले हफ्ते पीएम ने रेलमंत्री और चीफ ऑफ स्टाफ ऑफ रेलवेज को बुलाकर उन्हें काफी खरी-खोटी सुनाई है। बताते हैं कि पीएम ने उनसे कहा कि रेलवे में कोई प्रगति क्यों नहीं दिखाई दे रही है? रेलवे क्यों पिछड़ रही है? जबकि अन्य मंत्रालयों की प्रगति सार्वजनिक रूप से परिलक्षित हो रही है।

परेशानी इस बात की है कि एक तो रेलमंत्री के पास न तो कोई ढ़ंग का जानकार/सलाहकार है, न ही वह अपने अहं के चलते चंगू-मंगू द्वय को छोड़कर किसी और की सुनते हैं। इसकी वजह यह बताई जाती है कि चूंकि वह सीधे जनता से चुनकर नहीं, बल्कि पीछे के दरवाजे से हमेशा सांसद बनते रहे हैं, इसलिए उन्हें जनता की कुछ नहीं पड़ी है। दूसरे वह सब कुछ बेच डालने और जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ वाली ‘पेशेगत-नीति’ पर ज्यादा विश्वास करते हैं। तीसरे उन्हें ‘दिल्ली कैडर’ के अफसरों पर कुछ ज्यादा ही गुमान है, जिन्होंने दिल्ली और रेल भवन से बाहर झांककर भी नहीं देखा, फील्ड में कभी काम नहीं किया, वह रेलवे को चला रहे हैं और मंत्री को सलाह दे रहे हैं। ऐसे में रेलवे की दुर्गति तो होनी ही है। जबकि लगभग हर हफ्ते वीडियो कांफ्रेंसिंग की नौटंकी करने वाले मंत्री जी भी उसमें जोनों/मंडलों के स्तर पर फील्ड में काम कर रहे अफसरों से न कभी कोई सलाह लेते हैं, न ही उन्हें यह बताना जरूरी समझते हैं कि उन्होंने संबंधित बचकाना निर्णय क्यों और किस आधार पर लिया।

यही नहीं, बोर्ड मेंबर भी जब जोनों/उत्पादन इकाईयों के निरीक्षण दौरों पर जाते हैं, तो वे भी अपनी शान के चलते रेलवे की बेहतरी के लिए वहां के फील्ड अफसरों से इसकी कोई चर्चा नहीं करते। उनके सुझाव नहीं मांगते! मंत्री जी ने आज दस महीने बाद भी यह नहीं देखा कि रेल मंत्रालय की वेबसाइट पर रेलवे बोर्ड के चेयरमैन सहित सभी बोर्ड मेंबर्स के इम्मूवेबल ऐनुअल प्रॉपर्टी रिटर्न (आईएपीआर) क्यों अपलोड नहीं हैं? यह स्थापित नियमों का घोर उल्लंघन तो है ही, बल्कि अपराधिक गतिविधि भी है। इसका अविलंब संज्ञान लिया जाना चाहिए।

जबकि नियमानुसार हर साल एक जनवरी को आईएपीआर दाखिल करना अनिवार्य है। और यदि दाखिल किया गया है, तो यह अन्य की तरह ही आज दस महीने बाद भी वेबसाइट पर अपलोड क्यों नहीं किए गए? इस तथ्य को सीवीसी सहित रेलवे बोर्ड विजिलेंस ने अब तक देखा क्यों नहीं? यदि उन्होंने देखा है, तो इस पर कोई कारगर क़दम अब तक क्यों नहीं उठाया? उल्लेखनीय है कि आईएपीआर की अनुपस्थिति में किसी भी अधिकारी को विदेश जाने की अनुमति सहित अन्य कई प्रकार की मंजूरियां नहीं दी जाती हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि रेल मंत्रालय के प्रमुख की स्थिति उस बंदर जैसी हो रही है, जिसे जंगल का मुखिया बना दिया गया था। जो किसी भी समस्या पर इस पेड़ से उस पेड़ पर खूब उछल-कूद करके यह दर्शाने की कोशिश कर रहा होता था कि वह समस्या को सुलझाने के लिए अथक प्रयास कर रहा है। परंतु वास्तव में कर कुछ नहीं रहा होता था, क्योंकि उसे पता ही नहीं था कि क्या करना है और कैसे करना है।

बहरहाल, अब जिस तरह अफसरों ने रेलवे बोर्ड के मनमानी आदेशों के विरोध का स्वर बुलंद करने की शुरुआत की है, और जिस तरह रेलवे के निजीकरण के विरोध में जन-भागीदारी बढ़ती जा रही है, उससे ऐसा लगता है कि सरकार और रेलमंत्री सहित रेलवे बोर्ड को भी अपनी जनविरोधी नीतियों एवं कार्य-प्रणाली पर अंतर्मुखी होकर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.. continue..