अस्तित्व बचाना है तो रेल संगठनों और रेलकर्मियों को स्वत:स्फूर्त खड़ा होना होगा
नेताओं को निजी हित में सार्वजनिक संपत्तियों को बांटने की प्रवृत्ति से बाज आना चाहिए
यदि रेलवे को अधिक उपयोगी और उत्पादनकारी बनाना है, तो सबसे पहले रेलमंत्री उसे बनाया जाना चाहिए, जिसे रेलवे का पर्याप्त ज्ञान भी हो और वह सीधे जनता से चुनकर आया हो, जिससे जनता की सामान्य जरूरतों का उसे भान हो, जैसे स्वास्थ्य मंत्री या विदेश मंत्री को अपने अपने विभागों की जानकारी है।
ट्रेनों को प्राइवेट आपरेटरों से चलाना यदि इतना ही आवश्यक लगता है, तो सरकार को चाहिए कि वह उन्हें कोई एक ऐसा यात्री रूट दे दे, जिस पर वह अपना पूरा इंफ्रास्ट्राक्चर तैयार करके चलाएं, तभी सरकार की नीति और आपरेटर की कार्यक्षमता का सही आकलन किया जा सकेगा।
रेलवे का ट्रैक जो पहले से ही ‘ए’-‘बी’ इत्यादि भागों में बंटा हुआ है, जिसमें अधिकतम गतिसीमा भी पहले से ही 130/160 किमी. निर्धारित है, ऐसे में यह कहना कि अमुक गाड़ी को इस गति से चलाया जायेगा, केवल देश को तथा जनता को बेवकूफ बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इससे तो यह पता चलता है कि या तो मंत्री जी को कुछ पता नहीं है, अथवा उनके अधिकारी उन्हें बेफकूफ बनाने या दिग्भ्रमित करने में सफल हैं, तथा मंत्री जी की इसमें कुछ स्वार्थसिद्धि हो रही है? अतः मंत्री ऐसा हो, जो न सिर्फ ईमानदार हो, बल्कि कर्तव्यनिष्ठ और दूरदृष्टि वाला भी हो। और जिसने अपने जीवन में देश के लिए कुछ खास किया हो तथा उसके अंदर भविष्य में भी कुछ विशेष कर गुजरने की इच्छाशक्ति हो।
यदि सरकार ईमानदारी से रेलवे का उद्धार करना चाहती है, तो उसे अधिकारियों की संख्या को कंट्रोल करना चाहिए और नीचे स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारियों की संख्या को पूर्व मानकों के अनुरूप पुनर्स्थापित करना चाहिए। ठेके पर मजदूरों की नियुक्ति, ठेकेदारों से अमापक काम करवाने, रिटायर्ड कर्मियों का रिएंगेजमेंट, स्थाई कर्मचारियों की छंटनी, सरकारी संस्थानों/विभागों/सेवाओं आदि का निजीकरण इत्यादि से देश में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं होने वाला है।
तेजस एक्सप्रेस को चलाने में कुछ विसंगतियां प्रतीत होती हैं, जैसे कि जमीन हमारी, ट्रैक हमारा, स्टेशन हमारे, उन पर स्टाफ हमारा, अनुरक्षण हमारा, गार्ड और ड्राइवर भी हमारे, मगर किराया तय करेगा निजी आपरेटर, यह कहां की, किस तरह की समझदारी और कैसी व्यापारिक नीति है? गंतव्य पर पहुंचने में एक-दो घंटे की देरी पर यात्रियों को 100-200 रुपये का मुआवजा देकर सरकार जन-सामान्य को भिखारी की तरह लाइन में खड़ा करके आखिर कौन सा आदर्श उपस्थित करना चाह रही है?
रेलवे की सभी उत्पादन इकाईयों का एक साथ निगमीकरण करने के बहाने निजीकरण करने के बजाय सरकार किसी एक उत्पादन इकाई को ट्रायल आधार पर किसी कमर्शियल अनुभवी प्राइवेट सेक्टर को देकर पहले निजी क्षेत्र की क्षमता का आकलन करे और उसमें राजनीतिक दखलंदाजी रोककर उनके हिसाब से चलाए। ऐसा करने से भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी, उत्पादन की गुणवत्ता उच्चकोटि की होगी तथा उत्पादन भी अधिक होगा।
सरकार को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आजादी के बाद से देश के विकास में सर्वाधिक योगदान देने वाले सभी बड़े संस्थान सार्वजनिक क्षेत्र के संरक्षण में ही खड़े हो पाए हैं। इस दौरान निजी क्षेत्र सिर्फ अपना मुनाफा कमाने में लगा था।
सिर्फ रेलवे में ही नहीं, बल्कि सभी सरकारी विभागों में शिलान्यास और उद्घाटन की प्रथा पूरी तरह समाप्त होनी चाहिए। इससे जनता की गाढ़ी कमाई से जमा सार्वजनिक राजस्व की बरबादी तो होती ही है, बल्कि इसका कोई लाभ जनता को नहीं मिलता। ऐसे लगभग सभी समारोह सिर्फ नेताओं की वाहवाही के कर्मकांड बनकर रह गए हैं। रेलवे में पहले राजनीतिक हस्तक्षेप शून्य के बराबर था। परंतु पिछले करीब 15-20 सालों में यह बहुत ज्यादा बढ़ गया है। इस कारण से भ्रष्टाचार भी बढ़ता जा रहा है। इसका नतीजा रेलवे की बरबादी के रूप में सामने है।
सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि रेलवे सिर्फ एक परिवहन माध्यम ही नहीं है, बल्कि यह इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता की एक महत्वपूर्ण नब्ज भी है, जिसे निजी क्षेत्र को सौंपकर कुछ खास हासिल नहीं होगा। विश्व के किसी भी देश में रेलवे का निजीकरण उस देश और उसकी जनता के लिए आजतक फायदेमंद साबित नहीं हुआ है।
यह भी याद रखना चाहिए कि अटलबिहारी बाजपेई सरकार द्वारा वर्ष 2003-04 में रेलवे के जोनों की संख्या बढ़ाना भी रेलवे के लिए नुकसानदेह ही साबित हुआ है। इसके लिए जो हजारों करोड़ रुपये बरबाद किए गए, उस फंड का इस्तेमाल रेलवे की अतिरिक्त क्षमता बढ़ाने में बखूबी किया जा सकता था। अतः राजनीतिक दलों और नेताओं को देश को तोड़ने और सार्वजनिक संपत्तियों का अपने-अपने हितों के अनुरूप बांटने तथा अपनी-अपनी राजनीतिक रियासतें बनाने की प्रवृत्ति से समय रहते बाज आना चाहिए।
अब जहां तक रेलवे के मान्यताप्राप्त संगठनों की बात है, तो उन पर से अधिकांश रेलकर्मियों का भरोसा उठ चुका है। सब खेमेबाजी और कौटुंबिक (कैटेगराइज) हितों की आपसी लड़ाई में गुत्थमगुत्था हैं। उनके ढ़ुलमुल नेतृत्व और नीतियों के चलते उन्हें कहीं न कहीं सरकार द्वारा बड़ी चालाकी से अलग-थलग भी किया गया है, जिससे उन पर कार्मिकों का विश्वास डगमगाया है। शायद यही कारण है कि वह सरकार के साथ कोई बड़ी लड़ाई लड़ने अथवा निर्णायक आंदोलन छेड़ने से हिचकिचा रहे हैं। यदि ऐसा नहीं है तो अब तक वह ऐसे किसी निर्णायक आंदोलन की रूपरेखा लेकर सामने क्यों नहीं आ पाए हैं?
हालांकि इसके लिए सिर्फ मान्यताप्राप्त संगठन ही अकेले दोषी नहीं हैं, बल्कि करीब 12 लाख रेलकर्मी भी दोषी हैं, क्योंकि रेलवे की बरबादी और सरकार की निजीकरण की नीति के खिलाफ उनकी तरफ से भी ऐसा कोई स्वत: स्फूर्त आंदोलन उठ खड़ा नहीं हुआ, जैसा कि बिहार के सासाराम में करीब तीन लाख छात्रों ने कर दिखाया। अभी भी समय है, रेलवे के मान्यताप्राप्त संगठनों और रेलकर्मियों को यदि अपना अस्तित्व बचाए रखना है, तो उन्हें स्वत: स्फूर्त उठ खड़ा होना चाहिए!