खूब टेंडर जारी करो, टेंडर डिस्चार्ज/टर्मिनेट करने के सौ बहाने होते हैं -बी. डी. गर्ग

c119 St James Church

जब जाते-जाते ऐसा संदेश देंगे वरिष्ठ अधिकारी, तब उनके वारिशदार तो करेंगे ही मनमानी

सुरेश त्रिपाठी

उत्तर रेलवे निर्माण संगठन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी/निर्माण के पद से 30 जून 2016 को रिटायर हुए बी. डी. गर्ग ने अपनी सेवानिवृत्ति पर एस. पी. मार्ग रेलवे ऑफिसर्स क्लब में आयोजित विदाई समारोह में उपस्थित अपने सभी सहयोगियों (वारिशदारों) को जाते-जाते यह संदेश दिया कि खूब टेंडर करो, क्योंकि टेंडर कैंसिल, डिस्चार्ज या टर्मिनेट करने के लिए उनके पास सौ तरह के बहाने होते हैं. हालांकि श्री गर्ग ने यह बात अथवा संदेश किस संदर्भ में दिया, यह तो हमारे सूत्र स्पष्ट नहीं कर पाए, मगर उन्होंने और ‘रेलवे समाचार’ ने उनके इस संदेश का जो मजमून निकाला है, वह यह है कि काम हो या न हो, टेंडर धड़ाधड़ जारी करते रहो, और जब मन करे अथवा जब कोई पार्टी मन-मुताबिक कमीशन न दे, तब उन्हें कैंसिल, डिस्चार्ज या टर्मिनेट कर दो, क्योंकि इसके लिए सौ तरह के बहाने होते हैं और उनसे कोई पूछने वाला भी नहीं होता है.

उत्तर रेलवे निर्माण संगठन में श्री गर्ग के कार्यकाल में यही तो होता रहा है. ऐसा कई फर्मों और कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है. क्वालिटी इंजीनियर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स इसका ताजा उदाहरण है, जिसके तीन टेंडर तत्कालीन सीईई/सी और वर्तमान सीईई/उ.रे. घनश्याम सिंह के अप्रूवल और मुंहजबानी आदेशों पर संबंधित डिप्टी सीईई/सी ने टर्मिनेट कर दिए. यही नहीं नई दिल्ली और पलवल के बीच कई ऐसे टेंडर्स को डिस्चार्ज करके न सिर्फ संबंधित कॉन्ट्रैक्टर्स को लाभ पहुंचाया गया, बल्कि उसी सेक्शन में पुनः लगभग उतनी ही राशि के नए टेंडर करके खूब कमीशन उगाहा गया. इनमें से एक टेंडर वह है, जो कि करीब 9.50 या 10 करोड़ का था और वर्ष 2009 से चल रहा था. इस पार्टी को वेरिएशन के साथ कुल लगभग 13 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया और फिर तत्कालीन सीईई/सी घनश्याम सिंह के अप्रूवल से इसे शार्ट क्लोज करके संबंधित पार्टी को ईएमडी लौटाने सहित पूरा लाभ दिया गया.

इसके बाद इसी सेक्शन में तीन नए टेंडर करीब इतनी ही लागत (लगभग 12 करोड़) के जारी कर दिए गए. इसमें अपने बचाव या व्यवस्था को गुमराह करने के लिए पुरानी पार्टी को 2 करोड़ का एक टेंडर बैलेंस वर्क को पूरा करने के लिए वर्ष 2009 के रेट पर दिया गया. इस टेंडर को टर्मिनेट न करके घनश्याम सिंह एंड कंपनी ने रेलवे को करीब 6.50 करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाया है. तत्पश्चात दूसरा टेंडर (नं.277-डिप्टी सीईई/सी/एनडीएलएस/2015-16(आर1), दि.24.05.2016) और 2 करोड़ का किया गया. पहले के समान ही वर्क शेड्यूल का यह टेंडर 27 जून 2016 को ओपन हुआ है. इसके बाद तीसरा टेंडर बल्लभगढ़ से तुगलकाबाद के बीच फरीदाबाद यार्ड सहित 25 केवी एसी ओएचई वर्क के लिए कुल 7,64,51,717 रुपए का किया गया. जबकि जानकारों का कहना है कि उक्त पूरे सेक्शन का टोटल बैलेंस वर्क मात्र दो करोड़ में हो सकता था, जो कि पुरानी पार्टी को वर्ष 2009 के ही पुराने रेट पर दिया गया है. बाकी दो टेंडर (कुल 9,64,51,717 करोड़) फालतू वर्क निकालकर सिर्फ कमीशनखोरी के लिए दिए गए हैं.

उत्तर रेलवे निर्माण संगठन के साथ कांट्रेक्ट वर्क करने वाले कई इलेक्ट्रिकल एवं इंजीनियरिंग कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है कि जिस तरह डॉक्टर बनाने के लिए जानवर या इंसान के मृत शरीर के साथ एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार उत्तर रेलवे निर्माण संगठन द्वारा कॉन्ट्रैक्टर्स को टेंडर अवार्ड करके एक्सपेरिमेंट किए जा रहे हैं. ऐसे में टेंडर इशू करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है. उनका कहना है कि टेंडर जारी करने का तब भी कोई मतलब नहीं रह जाता है, जब टेंडर के रेट खुलने के बाद उसे कैंसिल कर दिया जाता है. उनका कहना है कि टेंडर के रेट खुलने के बाद जब उक्त टेंडर कैंसिल कर दिया जाता है, तो ऐसा लगता है कि उसमें पार्टिसिपेट करने वाले कॉन्ट्रैक्टर्स का रेप कर दिया गया हो और फिर उन्हें अपनी मौत मरने के लिए खुला (नंगा) छोड़ दिया गया हो.

इसके बाद फिर से उसी काम के लिए जारी होने वाले नए टेंडर में भाग लेने वाली नई पार्टियों/कॉन्ट्रैक्टर्स को पिछले टेंडर के कम्पटीशन में आए रेट्स ढिंढोरा पीट-पीटकर और गा-गाकर बताए जाते हैं. कॉन्ट्रैक्टर्स का यह भी कहना है कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि उत्तर रेलवे निर्माण संगठन द्वारा टेंडर/रेट्स खुलने के बाद पिछले तीन-चार वर्षों के दरम्यान कितने टेंडर कैंसिल किए गए हैं और किन कारणों से किए गए, तथा उनके लिए कौन-कौन अधिकारी जिम्मेदार रहे हैं, क्योंकि एक बार टेंडर खुलने के बाद संबंधित कार्य के लिए पुनः टेंडर जारी किए जाने पर उसके रेट्स गोपनीय नहीं रह जाते हैं. उनका कहना है कि यह खेल यहां कुछ खास कॉन्ट्रैक्टर्स को ध्यान में रखकर अथवा यहां वर्षों से सक्रिय कुछ कार्टेल्स को ओब्लाइज करने के लिए संबंधित निर्माण अधिकारियों की मिलीभगत से खेला जाता है.

कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है कि इस सबके बावजूद कास्ट कटिंग के नाम पर फर्जी बचत दर्शाई जाती है. जबकि उसका कोई हिसाब नहीं लगाया जाता है कि डिप्टी कार्यालय के वेतन/भत्तों सहित कुल कितना खर्च हुआ? जबकि यदि ठीक से हिसाब लगाया जाए, तो यह संबंधित टेंडर वर्क से कहीं बहुत ज्यादा हो सकता है. उनका कहना है कि डिप्टी कार्यालय के कुल वेतन/भत्तों और उनके द्वारा कॉन्ट्रैक्ट्स वर्क में आउटपुट के लिए कॉन्ट्रैक्टर्स को किए गए भुगतान का हिसाब किया जाना चाहिए. उन्होंने बताया कि यदि इसमें निर्माण मुख्यालय के वेतन/भत्तों को भी जोड़ दिया जाए, तो उनकी तथाकथित बचत तो व्याज में ही चली जाएगी. उनका यह भी कहना है कि पुराने टेंडर को कैंसिल किए जाने का कारण उसकी जगह जारी की जाने वाली नई टेंडर नोटिस में प्रकाशित किया जाना चाहिए.

उनका कहना है कि टेंडर डाक्यूमेंट्स के साथ ही उसके कार्य से संबंधित ड्राइंग एवं डिजाइन भी टेंडरर्स को मुहैया कराई जानी चाहिए, जिससे उन्हें संभावित कार्य के अनुसार टेंडर के रेट्स कोट करने में कोई दुविधा न हो. उन्होंने बताया कि प्रत्येक टेंडर नोटिस में स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख रहता है कि टेंडर से संबंधित ड्राइंग/डिजाइन टेंडर डॉक्यूमेंट के साथ अटैच्ड है, मगर यह कभी-भी कॉन्ट्रैक्टर्स को नहीं दी जाती है. उनका कहना है कि उत्तर रेलवे निर्माण संगठन कॉन्ट्रैक्टर्स के साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह यहां कोई परचून की दूकान चला रहा हो, क्योंकि किसी चीज का यहां कोई हिसाब ही नहीं है.

कॉन्ट्रैक्टर्स का कहना है कि रेलमंत्री ने रेलयात्रियों की शिकायतों के त्वरित निवारण के लिए ट्विटर सहित अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स उपलब्ध करवाए हैं, मगर उन्हीं प्लेटफार्म पर कॉन्ट्रैक्टर्स की शिकायतों को अनसुना किया जा रहा है. उनका कहना है कि यदि कॉन्ट्रैक्टर्स की शिकायतों को भी ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर सुना जाने लगे, तो रेलवे के तमाम निर्माण कार्यों में भारी तेजी आ जाएगी और रेलमंत्री अपने लक्ष्य को भी पूरा कर सकेंगे तथा इससे भ्रष्टाचार पर भी काफी पुख्ता लगाम लग जाएगी. उनका कहना है कि कई निर्माण अधिकारियों द्वारा फर्जी प्रोग्रेस रिपोर्ट सौंपी जा रही है, जिससे न सिर्फ रेलमंत्री और रेल प्रशासन को दिग्भ्रमित किया जा रहा है, बल्कि इस प्रकार पूरे देश को भी भ्रम में रखकर सरकार की योजनाओं को इन अधिकारियों द्वारा पलीता लगाया जा रहा है, जिससे सरकार की चौतरफा किरकिरी हो रही है.

उनका कहना है कि टेंडर बनाने और प्रकाशित करने में लाखों रुपए के खर्च सहित सैकड़ों मैन-पॉवर एवं मैन-ऑवर का व्यय होता है. इसी प्रकार टेंडर डालने के लिए कॉन्ट्रैक्टर्स का भी लाखों रुपए का खर्च होता है. ऐसे में रेट खुलने के बाद यदि टेंडर रद्द होता है, तो उसके लिए संबंधित अधिकारी को जिम्मेदार मानकर उसके खिलाफ विजिलेंस द्वारा जांच कराई जानी चाहिए, क्योंकि अत्यंत घटिया कारणों से टेंडर कैंसिल करने वाले यह अधिकारी लाखों रुपए का वेतन और करोड़ों रुपए की सरकारी सुविधाएं (गाड़ी, बंगला, बंगला प्यून और कमीशन इत्यादि) लेकर देश के साथ धोखाधड़ी (गद्दारी) कर रहे हैं.

उन्होंने कहा कि यही वजह है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के बावजूद उक्त दोनों राज्यों से संबंधित टेंडर्स को फाइनल/जारी करने में संबंधित अधिकारियों द्वारा जानबूझकर देरी की जा रही है, इससे सरकार या सत्ताधारी पार्टी को वहां नुकसान हो सकता है. जबकि सरकार ने उक्त दोनों राज्यों में होने वाले रेलवे संबंधी विकास एवं निर्माण कार्यों के लिए भरपूर धनराशि काफी पहले ही उत्तर रेलवे निर्माण संगठन को जारी की हुई है. उल्लेखनीय है कि सत्ताधारी पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण उक्त दोनों राज्यों में रेलवे से संबंधित सबसे अधिक निर्माण कार्य उत्तर रेलवे निर्माण संगठन को ही आवंटित हैं.

ज्ञातव्य है कि उत्तर रेलवे निर्माण संगठन का कार्य भौंचक्का कर देने वाला होता है. इसने एक टाइप-5 रेलवे आवास में जहां औसतन 3-4 टन अथवा बहुत ज्यादा तो 10 टन सरिया लगना चाहिए, वहां 30 टन से भी ज्यादा सरिया घुसा दिया गया है. यह किस इंजीनियरिंग कोड में लिखा है कि ऐसे किसी सरकारी आवास में इतनी ज्यादा सरिया का इस्तेमाल आवश्यक होगा? जानकारों का तो यहां तक कहना है कि यह सब कागज पर ही हो रहा है, क्योंकि वास्तविकता से इसका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है और इस तरह की अवैध कमाई संबंधित अधिकारियों की जेब में जा रही है, जिनकी इस अवैध आय पर लगाम लगा पाना हफ्ताखोर विजिलेंस इंस्पेक्टरों के बूते की बात नहीं है. उनका कहना है कि जनवरी से मार्च के दरम्यान हर साल फिश प्लेट्स, स्लीपर्स, ईआरसी, क्लिप्स जैसे इंजीनियरिंग आइटम्स सहित एसएंडटी एवं इलेक्ट्रिकल के कई आइटम्स की मद में बजट को समाप्त बताया जाता है और बचत दर्शाने के नाम पर कॉन्ट्रैक्टर्स के बिल तीन-चार महीनों तक रोक दिए जाते हैं.

दूसरी तरफ इसी अवधि में सालाना आवंटित बजट राशि को खर्च करने के लिए दोयम दर्जे के अनाप-शनाप मटीरियल की खरीद करके आय-व्यय का हिसाब बराबर कर दिया जाता है. ऐसी तमाम तरह की जोड़तोड़ पर हर वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही में सभी जांच एजेंसियों को सतर्क रहकर इन पर अपनी गिद्ध-दृष्टि लगाए रखनी चाहिए. हालांकि अधिकारी यह रोना रोते नहीं थकते हैं कि सीवीसी और विजिलेंस की तमाम पाबंदियों के चलते टेंडर फाइनल करने में उन्हें भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, उनकी यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है, मगर पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि टेंडर बनाने और खोलने में उन्ही के द्वारा की गई कोताहियां उन्हें विजिलेंस के जाल में लपेट देती हैं, सीवीसी/विजिलेंस द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश अथवा लगाई गई पाबंदियां इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं.

उपरोक्त तमाम तथ्य इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि जाते-जाते बी. डी. गर्ग द्वारा कही गई बात कितनी सही है और रेलवे द्वारा किए जा रहे निर्माण एवं विकास कार्यों में घनश्याम सिंह जैसे महाभ्रष्ट और तिकड़मबाज अधिकारियों द्वारा किस तरह सरकारी राजस्व की बंदरबांट की जा रही है, जबकि इसके लिए किसी अधिकारी की जिम्मेदारी भी सुनिश्चित नहीं हो रही है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उत्तर रेलवे में लगभग चार साल से बैठे या अपनी कुछ खास सेवाओं की बदौलत पूर्व सीआरबी द्वारा उपकार स्वरूप वहां बैठाए गए गैर-अनुभवी एसडीजीएम/सीवीओ देश भर में घूम-घूमकर गोल्फ खेलने में व्यस्त हैं. इस परिप्रक्ष्य में रेल प्रशासन द्वारा अपनी संपूर्ण प्रशासनिक प्रणाली और टेंडर प्रक्रिया की पुनर्समीक्षा किए जाने की नितांत आवश्यकता है.