February 19, 2024

बली प्रताप सिंह का प्रताप

व्यंग्य — डॉ रवीन्द्र कुमार

एक रहे बली प्रताप सिंह उर्फ बी. पी. सिंह, पूरे के पूरे सटेशन बोले तो टेशन यानि कि स्टेशन मास्टर। वाकई में मास्टर आदमी थे। मास्टर समस्त स्टेशन का मालिक होता है। दूसरे शब्दों में स्टेशन का राजा होता है। चलो अगर राजा नहीं, नवाब तो होता ही है। बड़े-बड़े शहरों और टूरिस्ट आकर्षण वाले शहरों में मास्टर जी का बहुत सारा समय ‘पीआर’ और ‘प्रोटोकॉल’ में जाया होता है।

इसी सिलसिले में मेरी मुलाक़ात बी. पी. सिंह से हुई। वह मेरे सेलून में मुझ से मिलने आए। इधर-उधर की बात कर नाश्ते का पूछा कि मैं क्या लेना पसंद करूंगा। हम शहरी लोग नाश्ते के नाम पर केवल ये सोचने लगते हैं कि आज अंडा कौन सा खाया जाए। उबला हुआ, ऑमलेट या सिंगल फ्राई। तब तक बी. पी. सिंह बोल पड़े, “अरे सर, अंडा-ब्रेड तो आप रोज़ ही खाते हैं, यहाँ की कचौड़ी बहुत मशहूर हैं, आप हमारे शहर में आए हैं तो यहाँ की कचौड़ी खाएं।”

इस प्रकार बी. पी. सिंह अपने आपको क्या अधिकारी, क्या विधायक अथवा अन्य वीआईपी सब के प्रिय बने रहते थे। यह गुर सभी में नहीं होता। जिसे बोलते हैं ‘पर्सनल ड्राइव’ या ‘डायनामिक पर्सनलिटी’। लब्बोलुआब ये कि बी. पी. सिंह फुल-फुल डायनामिक आदमी थे। प्लीजिंग पर्सनलिटी थी, सदैव मुस्कराता चेहरा। जैसे आजकल बॉलीवुड के छिपे हुए विलैन दिखाए जाते हैं।

आदमी चाहकर भी हमेशा ‘मास्टर’ नहीं रह सकता। उसका प्रोमोशन होता है। एकाध बार वह मेनेज भी कर लेता है और वहीं के वहीं प्रोमोशन पा जाता है। मगर एक न एक दिन ऐसा आता है कि उस लेवल की पोस्ट ही नहीं होती उस स्टेशन पर, फिर तो शिफ्ट करना ही पड़ता है। लेकिन यहाँ भी एक क्लॉज है कि वह प्रोमोशन अस्वीकार कर सकता है। यह भी एक-दो बार ही हो पाता है। सारांश ये कि पेंशन का सोचते हुए कि हायर स्केल में पेंशन भी हायर रेट से मिलेगी। अंततः प्रोमोशन लेना पड़ता है और शहर भी छूटता है।

इसी सिलसिले में बी. पी. सिंह से मेरी मुलाकात लगभग-लगभग 20 साल बाद हुई। तब तक वह उसी बड़े शहर में प्रोमोशन पर आ गए थे जहां मैं पदस्थ था। मुझे देख बड़ी गर्मजोशी से मिले जो कि उनकी सिग्नेचर पहचान रही थी। इस बार वे एक मुसीबत में आन पड़े थे और मैं जिस पद पर था उनकी थोड़ी बहुत मदद कर सकता था।

बहरहाल, बी. पी. सिंह ने गुहार लगाई, “सर मेरा रिटायरमेंट महज़ दो महीने दूर है और ऐसे में किसी की शिकायत पर मुझे चार्जशीट दे दी गई है ऊल जलूल आरोप लगा कर”, मैंने केस देख लेने का वादा किया। जाते-जाते वह बता गए कि “उनकी 33 साल की इतनी मेहनत से नौकरी का देखिये कैसा सिला दिया है? क्या फायदा इतनी निष्ठा से सेवा करने का”, मैंने कहा, मैं केस देख लूँ फिर आपकी जरूर मदद करूंगा। बी. पी. सिंह ने खुशी-खुशी विदा ली।

मैंने एक जूनियर को कहा कि केस को अच्छी तरह देख-भाल कर मुझे ब्रीफ करे। जो निकलकर आया वह कुछ यूं था:

श्री श्री बी पी सिंह जी अब क्यों कि अच्छे खासे सीनियर हो गए थे। अतः उनके ऑफिस ने उन्हें एक विभागीय परीक्षा में उत्तर पुस्तिका जाँचने का काम सौंपा था। सीनियर पोस्ट थी, बोले तो खाने-पीने वाली मलाईदार पोस्ट के लिए परीक्षा थी। बी. पी. सिंह यूं तो चाहते थे कि वह ‘पेपर सेटर’ बन जाएँ, यह आसान और कमाऊ काम है जिसे कहते हैं ‘लो रिस्क – हाई गेन’। मगर उनको यह काम नहीं मिला। अलबता कैसे भी उन्होंने कॉपी जाँचने का काम ले लिया। दो-ढ़ाई सौ कॉपी थीं। सब कुछ चंगा था, मगर किसी उम्मीदवार कर्मचारी ने विजिलेंस में शिकायत कर दी कि बी. पी. सिंह ने कॉपी जाँचने में गड़बड़ की है और उसने कुछ-कुछ तफसील भी दी। तब विजिलेन्स टीम अपने मेग्नीफाईंग ग्लास और माइक्रोस्कोप लेकर जांच में जुट गई। जांच में सामने आया कि गलत उत्तर काट-पीट कर दुरुस्त किए गए थे। जैसे कि वस्तुनिष्ठ उत्तर में जहां सही/गलत लिखना था, वहाँ काट-पीट की गई थी और कुछ कुछ जोड़ दिया गया था, जैसे पहले लिखा था:

सही नहीं = गलत
गलत = गलत
गलत नहीं = सही
सही नहीं = गलत
सही = सही

(इटेलिक्स बाद में जोड़े गए थे, क्योंकि इस तरह ऊट-पटांग ढ़ंग से कोई अभ्यर्थी उत्तर नहीं देता)

इसी तरह बहुत सी जगह मार्जन में लिखा गया था और काट-पीट करके नए सिरे से उत्तर लिखे गए थे। जो सबसे मारक चीज थी, वह यह थी कि ये सब बी. पी. सिंह जी ने अपनी खुद की हेंड राइटिंग में किया था। बस यहीं वह फंस गए थे। उन्होंने सोचा था वह कॉपी देंगे तब तक रिटायरमेंट आ जाएगा, और बात आई-गई हो जाएगी।

पुनश्च :

इस बीच मेरा ट्रांसफर हो गया। बाद में पता चला बी. पी. सिंह जी ने मैनेज कर लिया था और कुछ छोटी-मोटी सजा जुर्माना (पेनल्टी) लेकर ये जा वो जा। यूं ही नहीं उनका नाम बली प्रताप सिंह था। यद्यपि वह पूरा का पूरा सेलेक्शन कैन्सल करना पड़ा था।