पुनः मूषको भव: IRMS के नए नोटिफिकेशन से रेलवे बोर्ड ने तुगलक को तुच्छ साबित किया!
‘टेक्निकल विजन और गोल’ को ‘ऑर्गनाइजेशनल गोल और विजन’ समझने की गलती कोई मूढ़ ही कर सकता है, जो काम यह सरकार कर रही है!
रेलवे बोर्ड द्वारा UPSC एक्जाम के लिए IRMSE का जो नया नोटिफिकेशन जारी किया गया है, उसके जरिए रेलवे बोर्ड ने तुगलक को भी तुच्छ साबित करते हुए प्रागैतिहासिक युग की सोच से उत्पन्न मानसिकता को स्थापित कर दिया है। ग्रुप ‘ए’ के विभिन्न अधिकारियों ने इस पर जो प्रतिक्रिया दी है, वह यहां प्रस्तुत है-
By limiting the applicant pool through criterion without logical connection with objectives the new selection pattern is anti-merit and will ensure that best suited candidates do not even covet this job. For example – how to explain exclusion of management (BBA/MBA) students from a “management” service.
Also this will not end the more sought after goal of ending departmentalism. By creating sub verticals within the service homogeneity has been sacrificed for unfounded/untested expertise which will have serious adverse ramifications for gelling of the cadre as a leadership team.
https://www.kooapp.com/koo/RailSamachar/f6d3d41f-3474-46d8-9255-cc0c51433166
अधिकारियों का कहना है कि चुनिंदा ट्राइब का वर्चस्व स्थापित हुआ और जो लोग विभागवाद की हीन कुंठा से ग्रस्त होकर केवल रेलवे का सत्यानाश किए हैं, अब लगता है कि वे हावी होकर डीओपीटी और यूपीएससी को अपनी तर्कहीन एवं अदूरदर्शी मानसिकता से हांकने में सफल हो गए हैं।
उन्होंने कहा कि यूपीएससी के पिछले नोटिफिकेशन, जिसमें 2022 के लिए सिविल सेवा से 150 सीट के इंडेंट भेज दिए गए थे, के ठीक बाद और सदमे से उबरने के बाद से यह गुट सक्रिय हुआ और अब लॉबिंग की जगह धनबल के ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने का एकमात्र विकल्प निर्धारित किया गया। रेलवे में दबे स्वर में यह चर्चा 7-8 माह से थी जिसमें इस ट्राइब के उच्चतम पद से रिटायर हो चुके लोगों ने एक नितांत ही व्यक्तिगत पार्टी में इस ट्राइब के एक नेता की बात को गलती से दुहरा बैठे कि ‘चिंता मत करो, इसके लिए करोड़ को चार डिजिट में भी ले जाना पड़ेगा, तो उसकी भी व्यवस्था हो चुकी है।’
लेकिन तब इसे चंडूखाने की खबर और बकवास समझकर किसी ने इस पर कोई विशेष तव्वजो नहीं दिया था। उस समय इस विचारधारा के सूत्रधार नेता ने जो जो चीजें बताई थीं, यह नोटिफिकेशन शब्दशः वैसा ही आया है।
शायद तब अधिकांश लोगों को यह भरोसा था कि ऐसी एब्सर्ड चीज तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि इसमें कई मंत्रालय, यूपीएससी और पीएमओ इंवाल्व होगा, और कोई भी हल्का सा भी दिमाग लगाएगा तो यह सम्भव नहीं है।
लेकिन ब्रह्मास्त्र तो ब्रह्मास्त्र होता है। आश्चर्य केवल इतना है कि एक समान मॉडल, जो रेलवे के सारे टेक्निकल पीएसयू में पहले से ही प्रभावी है, उसकी गति देखकर भी अगर निर्णय लिया गया होता, तो शायद ऐसा बचकाना काम कोई भी सरकार नहीं करती।
कांकोर और आईआरसीटीसी ही दो एकमात्र रेलवे के पीएसयू हैं जो रेल ऑर्गनाइजेशन के मूलभूत मूल्यों पर बनाए गए और जिसका सीधा फायदा आम जनता को और व्यापरियों को हुआ। लोगों को सीधे फायदा भी हुआ और इन दोनों पीएसयू ने रेल सेवा को एक नई परिभाषा भी दी और सेवा के क्षेत्र में दूसरे ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र के प्रतियोगियों के लिए चुनौतीपूर्ण उदाहरण भी खड़े कर दिए।
ये दोनों पीएसयू और कोंकण रेलवे बनाए भी गए थे रेलवे के मूलभूत उद्देश्यों/हितों को देखकर और रेलवे के कस्टमर के हितों को देखकर, जबकि हकीकत यह है कि रेलवे के बाकी जितने भी पीएसयू बने हैं उनमें 95% अपने कैडर के साम्राज्य को बढ़ाने की नीयत से ही बनाए गए, भले ही जस्टिफिकेशन के लिए कहानी कुछ और गढ़ ली गई हो। बाकी पीएसयू रेलवे की विभिन्न तकनीकी सेवाओं के कुंठित और अपने कैडर के प्रति कबीलाई सामंती निर्लज्ज साम्राज्यवादी व्यवस्था कायम रखने के प्रति अंधी आग्रह की ही देन हैं।
अब जो लोग रेलवे के पीएसयू और रेल की वर्किंग को ठीक से नहीं जानते और नहीं समझते हैं, वे कहेंगे कि आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि रेलटेल, आरएलडीए, आईआरएफसी, इरकॉन, राइट्स आदि काम नहीं कर रहे हैं? तो यहां मूलभूत अंतर एक ही है कि ये जितने पीएसयू हैं ये केवल टेंडर निकालने का ही काम कर रहे हैं और सारा काम ठेके और ठेकेदारों के भरोसे है, लेकिन कांकोर, आईआरसीटीसी और कोंकण रेलवे जैसे पीएसयू बाकायदा एक रेलवे जोन के जैसा रेलवे सिस्टम की तर्ज पर ही काम कर रहे हैं।
कांकोर, आईआरसीटीसी और कोंकण रेलवे में रेलवे जैसा दैनंदिन प्रबंधन और ऑपरेशन प्रमुख है, जबकि बाकी जितने अन्य रेलवे पीएसयू हैं, वहां केवल टेंडर अवार्ड करना ही मुख्य काम है।
यह भी एक विशेष बात है कि सारे पीएसयू के पास निर्णय लेने की बहुत ही ज्यादा स्वतंत्रता है और एक तरह से इनके सीएमडी के पास असीमित अधिकार होते हैं जो रेलवे में कुछ हद तक केवल डीआरएम, जीएम, सीएओ/कंस्ट्रक्शन और सीआरबी के पास ही होते हैं।
इसके बावजूद भी रेलवे के पीएसयू अक्षमता, भ्रस्टाचार, अकर्मण्यता, लेटलतीफी जैसे ‘सद्गुणों’ से ही चिन्हित किए जा सकते हैं। जितना खर्चा इन पर करने के बाद ये जो काम करते हैं उतना एक बिजनेसमैन अपने बूते पर 10 साल में खड़ा कर लेता है और अगले 10 साल में वह इनके जैसी 10 कंपनी और खड़ी कर देता है। और इसी तरह के बिजनेसमैन ही इन पीएसयू को चला भी रहे हैं।
अब गौर से देखिए कि इन टेक्निकल पीएसयू में रेलवे के किस किस डिपार्टमेंट के किरदार हैं? और इनमें वर्चस्व किसका शुरू से रहा है?
वही न, जो वर्तमान IRMSE नोटिफिकेशन में सर्विसेस की चार कैटेगरी हैं? एक दो पीएसयू के सीएमडी तो रेलवे से न होकर प्रोफेशनल चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) ही हैं!
मजे की बात एक और है कि टेक्निकल पीएसयू में जो सबसे बेहतर काम कर रहा है – रेलटेल – उस कैटेगरी के लोग भी अब रेलवे की स्वघोषित कुलीन “चारघरवा” कबीले से बाहर कर दिए गए हैं।
इस कबीले के नेता ने यह भी कहा था कि एकाउंट्स को एक डिपार्टमेंट के तौर पर हटाना मुश्किल है, लेकिन हम लोग कलेवर ही बदल देंगे और आने वाले समय में आवश्यकता पड़ने पर ब्रह्मास्त्र से आरपीएफ को भी रेलवे से बाहर ले जाएंगे। या तो प्राइवेट सिक्युरिटी आएगी या सीआईएसएफ रखी जाएगी या आरपीएफ को सीआईएसएफ के साथ मर्ज करवा दिया जाएगा।
52 साल के क्राइटेरिया के साथ रेलवे में आए लोगों का यह कमाल है, जो रेल का काम करने के अलावा हर काम करते हैं, जिससे उन्हें बिना मेहनत, समर्पण और तपस्या के ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्ति प्राप्त हो जाए। और ये अपने कबीले के बाकी मूढ़मतियों के लिए ऐसी मृग मरीचिका पैदा करते हैं कि वे इनके पीछे चल पड़ते हैं, 72 हूरों की आश में!
“If this was to be the final objective of Indian Railways or Railway Administration, it would have been better not to tinker with the Engineering Services Exam and let it be like as it was till now and then pick up few from Civil Services from commerce background. They have gone mad. Even they don’t know what they are doing”.
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ये भी सही है कि 52 साल के डीआरएम क्राइटेरिया के कारण सिविल सर्विसेज में ही नहीं सारी सर्विसेस में जो लोग निर्णायक पदों पर पहुंचे उसमें कुछेक अपवादों को छोड़कर अधिकांश “जोकर” टाइप के अक्षम अकर्मण्य और सुविधाभोगी लोग रहें हैं, जिनके पास रेलवे को लेकर न कोई विजन था और न सही मंशा ही थी। इनके पास ओपिनियन तो बहुत थी, लेकिन विजन कुछ नहीं था।
सारे 52 साल के क्राइटेरिया वालों की यह सबसे बड़ी खासियत है कि इनके पास केवल व्यक्तिगत विजन होता है और ढ़ेर सारा ओपिनियन होता है सब मामलों में और सबके लिए! इस मामले में ये सब अपने को चित्रगुप्त समझते हैं। लेकिन मूलतः ये सभी अपने को क्षत्रप समझते थे और अपने नीचे वालों को अपनी रियाया, और स्वयं की इकलौती योग्यता —— 52 साल का क्राइटेरिया!
लेकिन सिविल सर्विसेज और टेक्निकल सर्विसेज वाले क्षत्रपों में एक बुनियादी अंतर शुरू से था कि टेक्निकल वाला क्षत्रप कितना भी बड़ा जोकर हो, परंतु उसको अपने कबीले के प्रभुत्व के विस्तार को लेकर हमेशा एक विजन रहता था जो उसके लिए नॉन-निगोसिएबल होता था। लेकिन सिविल सर्विसेज वालों के लिए केवल अपना सेल्फ-इंटरेस्ट ही नॉन-निगोसिएबल था, बाकी उसके हिसाब से ही मैनीपुलेट या इंटरप्रेट करता था। कोशिशें तो कई कीं, यह कोशिशें यहां तक होती थीं कि उसके बाद उस जगह पर कोई और पहुंचे ही नहीं, और बस चले तो उल्टे लात मारकर सीढ़ी ही गिरा दें कि इंकम्बेंट बोर्ड पर और कोई नाम लिखा ही न जा सके।
हिपोक्रेसी सारे 52 साल के क्राइटेरिया के बूते ऊपर पहुंचे इन सभी लोगों में थी लेकिन सिविल सर्विसेज से आए लोगों में यह कुछ अधिक ही थी।
रेलमंत्री बना कोई औसत बुद्धि का मंत्री भी थोड़े समय में यह समझ जाता था कि अगर व्यक्तिगत काम और डिपार्टमेंट के काम में से किसी एक की बात करनी हो तो ये सिविल सर्विसेज वाले व्यक्तिगत की ही बात करेंगे। इसलिए इनकी इस कमजोर नब्ज ने ओपिनियन के मामले में इनकी सारी औकात ही खत्म कर दी किसी भी रेलमंत्री की नजर में।
52 साल की क्राइटेरिया वाले प्रायः सभी सर्विसेस के लोग अपने से ऊपर वालों की या तो आवश्यकता से अधिक चापलूसी करने वाले होते हैं, या फिर अव्यावहारिकता की हद तक मूढ़ एवं हठी होते हैं, और कोई भी बुद्धिमान आदमी इस तरह के लोगों पर अपना निर्णय नहीं छोड़ता है। यह ट्रेंड सिविल सेवा से आए 52 साल के क्राइटेरिया की एक मात्र योग्यता के कारण निर्णायक पदों तक थोड़ा अधिक ही होता है।
इसलिए एक तरफ यह स्थिति इस सरकार की तदर्थवादी अप्रोच के साथ, अपरिपक्वता और व्यवस्था की गहरी समझ के अभाव को दर्शाता है, तो वहीं यह सिविल सर्विसेज से आए बड़े निर्णायक पदों पर बैठे बौने और निर्लज्ज लोगों की असफलता (फेल्योर) है जो स्वयं अपने अस्तित्व को ही जस्टिफाई नहीं कर पाए।
“Most unfortunate decision of Indian Railways – by narrowing the field of talent base, a great disservice is being done to this institution – what about people from computer science, electronics, telecom, management, economics, logistics, humanities etc – do they don’t deserve to serve the Nation or Railways? When the whole world is moving towards diversity in organizations, we have chosen to move in the opposite direction..
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ऐसा लगता है यह सरकार उल्टी गंगा बहाने जा रही है, क्योंकि रेलवे IRMSE भर्ती पर लिया गया यह निर्णय इसी तरफ इशारा करता है कि आज तक जितने भी तकनीकी लोग समर्पित सरकारी संस्थाओं में थे, संस्थागत भ्रष्टाचार या अक्षमता के कारण वे सभी या तो पीएसयू में तब्दील हो गए, या उनका कार्पोरेटाइजेशन हो गया, या फिर वे निजी कंपनियों के लिए खोल दिए गए, चाहे वह बीएसएनएल एमटीएनएल ही क्यों न हों!
लेकिन IRMSE का ये नोटिफिकेशन यह बताता है कि सरकार अपने पूर्व निर्णयों में गलत थी, और टेक्निकल ऑर्गनाइजेशन का मैनेजमेंट भी केवल और केवल कुछ खालिस निश्चित स्ट्रीम के टेक्निकल लोग ही चला सकते हैं, और आने वाले समय में इसी आधार पर अडानी, अम्बानी, टाटा आदि की कमान भी किसी टेक्निकल आदमी को देने का अध्यादेश भी निकाला जाना चाहिए।
‘टेक्निकल विजन और गोल’ को ‘ऑर्गनाइजेशनल गोल और विजन’ समझने की गलती कोई मूढ़ ही कर सकता है, जो काम यह सरकार कर रही है!
यह दोनों दो चीज हैं, दोनों अलग-अलग हैं, और जब एक ही तरह का आदमी दोनों काम करेगा, तो जो आउटकम होगा, वह औसत से बेहतर संयोगवश ही हो सकता है, अन्यथा वह हर तरह से एक फियास्को ही होता है।
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