समय की कोई समस्या नहीं, जितना चाहें उतना लें, मगर काम पुख्ता होना चाहिए!
जितना नुकसानदेह जन्मतिथि आधारित योग्यता और 52 साल का क्राइटेरिया है, उतना ही शातिराना डीआरएम के केस में पैनल की ‘इयरली वैलिडिटी’ का होना है!
रेलवे के एक सम्भावित सुधार की प्रतीक्षा रेल के लाखों कर्मचारी और हजारों अधिकारी ही केवल नहीं कर रहे हैं, वरन रेल को समझने वाले हजारों बुद्धिजीवी भी उतनी ही उत्सुकता से इसका इंतजार कर रहें हैं। इनका मानना है कि यही एकमात्र सुधार इस सरकार के उद्देश्यों की और देश को लेकर रेलवे के योगदान को सही दिशा देगा या नहीं, इसका यह ‘लिटमस टेस्ट’ साबित होगा। या तो यह इस सरकार की सारी मंशा की पोल खोल देगा, या फिर यह सचमुच रेल के इतिहास में “मदर ऑफ ऑल रिफॉर्म्स” के नाम से जाना जाएगा – और वह है नए डीआरएम्स के चयन में नए मानक से किए जा रहे सम्भावित सुधार!
#RailSamachar देश के कोने-कोने से रेल कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ-साथ तमाम बुद्धिजीवियों से लिए गए फीडबैक के आधार पर बार-बार लिखता रहा है और तदनुसार यह बहुमत का मंतव्य रहा कि 52 साल की उम्र सीमा को हटा कर पूरे बैच को एलिजिबल मानते हुए डीआरएम पैनल बनाया जाए और बिना रेल के किसी आदमी को साथ लिए केवल अपने दोनों राज्य मंत्रियों के साथ रेलमंत्री स्वयं इंटरव्यू लेकर सुयोग्य, निष्ठावान और कर्तव्य परायण अधिकारियों का डीआरएम में चयन और पोस्टिंग करें!
इसमें भले जितना समय लगे, लेकिन जब चयन हो, तो लोगों को सचमुच यह लगे कि लिया गया समय सार्थक हुआ है, कोई खेल नहीं हुआ! क्योंकि अगर इसमें कोई खेल हुआ, तो जिस तरह की अपेक्षाएं हैं रेलमंत्री के इस अभिनव प्रयोग को लेकर, उससे यह भी स्पष्ट है कि रेल के इतिहास में या तो यह अश्विनी वैष्णव को रेल के लौहपुरुष और युगपुरुष के रूप में स्थापित कर देगा, या फिर इनके साथ इस सरकार की साख को भी मटियामेट कर उनको अब तक के सबसे ज्यादा नापसंद किए जाने वाले अविश्वसनीय नेताओं की कतार में सबसे ऊपर लाकर खड़ा कर देगा! वैसा ही जैसा कि पूर्व रेलमंत्री के साथ हुआ!
रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव और चेयरमैन/सीईओ/रेलवे बोर्ड विनय कुमार त्रिपाठी को यह भी ध्यान रहे कि रेलवे में एक तबका ऐसा भी है जो न तो डीआरएम के लिए 52 साल के क्राइटेरिया को खत्म करने का पक्षधर है, न ही किसी भी ऐसे सुधार का पक्षधर है, जो रेलवे के जन्मतिथि (डीओबी) आधारित फायदों, सुविधाओं और मनमानियों में कटौती करता हो!
स्मरण रहे कि यह अब तक का विशेषाधिकार प्राप्त वह तबका है, जो रेलमंत्री और सीआरबी के इस अभिनव प्रयोग से बुरी तरह सशंकित और अंदर से आतंकित भी है, तथा अपनी बुद्धि का प्रयोग कर हर तरह का दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है, जिससे कि उनका विशेषाधिकार किसी न किसी रूप में स्थापित रहे, और भाँति-भाँति के तर्कों से, माध्यमों से, वे यह दबाब बनाने की कोशिशों में जुटे हैं जिसमें डीआरएम और जीएम की पोस्टिंग में हो रही कथित अप्रत्याशित देरी को हाईलाइट करवाकर रेलमंत्री को घेरना भी इनकी इसी ‘दबाब नीति’ का एक अहम हिस्सा है।
इनकी सबसे बड़ी ताकत इनका दुष्ट-शातिर-मजबूत सिंडिकेट है, जिसके लगभग सभी सदस्य रेलवे के सभी महत्वपूर्ण पदों पर अपनी एकमात्र डीओबी वाली योग्यता के कारण काबिज हैं। लेकिन इनकी सबसे बड़ी कमजोरी इनके अलावा रेल के और रेल से जुड़े प्रायः सभी लोगों के अंदर यह भाव होना है कि यही लोग रेलवे की बर्बादी का कारण हैं, यही रेल के नीरो भी हैं। बाकी में इनके प्रति घृणा की हद तक आक्रोश होना, इनके विरुद्ध जाता है। यही इनकी मजबूत सिंडिकेट की सबसे कमजोर कड़ी भी है।
इस सिंडिकेट की सारी उपलब्धियां उन लोगों की कब्रों पर खड़ी हैं, जो लोग रेलवे के लिए दधीचि जैसे थे और अब भी हैं, लेकिन डीओबी वाले विशेषाधिकार से वंचित थे, और अभी भी हैं!
#RailSamachar ने जब तब इनके पक्ष को भी सामने रखा है, जिस पर देश के तमाम हिस्सों से तीखी प्रतिक्रिया हजारों की संख्या में आई। दोनों पक्षों की प्रतिक्रिया आने के बाद जब सभी जोनों में हर स्तर से संवाद किया गया, तो यह देखा गया कि इसमें ‘वेस्टेड इंटरेस्ट ग्रुप’ या उनके ‘प्लांटेड’ लोगों के अलावा प्रायः पूरे देश में रेल से जुड़े सभी लोगों का यह स्पष्ट मंतव्य था कि रेलमंत्री की अगर मंशा सही है, और वे एक बंध को तोड़ना चाहते हैं, तो उन्हें जितना समय चाहिए, वह लें, क्योंकि पुराने सिस्टम और क्राइटेरिया से जो डीआरएम आएंगे, उनमें से अधिकांश अयोग्य और कचरा ही होंगे, जैसे कि वर्तमान में कई हैं, और इससे पहले वाले अधिकांश रहे हैं, तथा बने हुए पैनल में भी अधिकांश ऐसे ही अहंमन्य, नकचढ़े और कुछ नकचढ़ियां शामिल हैं।
अर्थात “पुराने क्राइटेरिया से चलने का अर्थ तो एक कचरे को दूसरे कचरे से ही रिप्लेस करना होगा।” इसलिए इनके इस हल्ले का कोई मतलब नहीं है कि टाइम से पैनल निकले और पोस्टें जल्दी भरी जाएं!
इस संवाद के दौरान #RailSamachar के संज्ञान में यह भी आया कि जो लोग #EQi_Test में अच्छा परफॉर्म नहीं कर पाए हैं, वही लोग हर तरह की लॉबिंग कर रहे हैं, जिससे कम से कम डीओबी के आधार पर प्राप्त उनका विशेषाधिकार तो अक्षुण्य रह सके!
हालांकि जो 76 अधिकारियों, जिनका EQi टेस्ट लिया गया है, उनको ही संभावित डीआरएम पैनल माना जा रहा है। उसमें इतनी उम्मीद दिखाई नहीं देती है, क्योंकि वह भी 52 साल के क्राइटेरिया को ही फॉलो कर रहे हैं, और इन 76 में से कायदे से 8/10 ही डीआरएम बनने लायक हैं, जो सरकार के विजन के अनुरूप रिजल्ट देने में सक्षम हैं, और वे किसी भी मंत्रालय या दायित्व के पद पर जाएंगे तो अपना सबसे बेस्ट देंगे ही, लेकिन उसमें भी इन 8/10 बेहतरीन लोगों मे से मात्र एक-दो को छोड़कर वैसे ही लोग हैं जो उम्र में सीनियर होने के नाते दूसरे पैनल तक अपने आप ही बाहर हो जाएंगे।
“इसीलिए अगर कोई पैनल है, तो उसमें जो लोग नई क्राइटेरिया के आधार पर ज्यादा सक्षम पाए गए हैं, और शॉर्ट लिस्टेड हैं, उस स्थिति में अगला पैनल तब तक न बनाया जाए, जब तक वर्तमान पैनल से योग्य पाए गए सभी अधिकारी डीआरएम में पदस्थ न हो जाएं।” परस्पर चर्चा में यह भी एक अच्छा सुझाव सामने आया है।
किसी भी पैनल के लिए सबसे ज्यादा न्यायपूर्ण और तर्कसंगत अवधि वह होती है जितना अमूमन उस पद का कार्यकाल (टेन्योर) माना जाता है। जैसे कि डीआरएम पद का कार्यकाल दो साल का है, तो इसके पैनल की ‘वैलिडिटी’ भी दो साल ही होनी चाहिए, क्योंकि इसका मतलब है कि दो साल में हर डिवीजन को नया डीआरएम मिलेगा।
अर्थात न्यायपूर्ण तरीके से दो साल में एक पैनल के सभी योग्य अधिकारी समायोजित हो जाएंगे। इससे पैनल डिले करके और जानबूझकर लोगों को आउट करने का कुटिल खेल अपने आप थम जाएगा। जो वार्षिक पैनल बनाने के खेल में और भी आसान हो जाता है।
जितना नुकसानदेह डीओबी आधारित योग्यता और 52 साल का क्राइटेरिया है, उतना ही शातिराना डीआरएम के केस में पैनल की ‘इयरली वैलिडिटी’ का होना है! साधारण सा गणित है – जितनी जिस पद की अवधि (कार्यकाल), उतनी ही उस पद के पैनल की वैलिडिटी! जिसे शातिर ‘मैच फिक्सरों’ ने अपनी सहूलियत के अनुसार आधा कर रखा है।
दूसरी बात, दिल्ली में एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार, जो रेल को बहुत करीब से जानते और समझते हैं, का कहना है कि “यह सरकार मंशा के बावजूद कतिपय कारणों से अगर 52 साल के भंवर से नहीं निकल पाती है, तो इसके पास एक ही सटीक विकल्प है कि डीआरएम पैनल को तब तक जिंदा रखना, जब तक कि उसके सभी अधिकारियों की पोस्टिंग न हो जाए!”
वह कहते हैं, “ये ऐसा भी कर सकते हैं कि जो लोग EQi टेस्ट में अपने खराब स्कोर को लेकर सशंकित हैं, वे अब देरी के आधार पर या अन्य तरह की गलथोथी के आधार पर रेलमंत्री को घेरने का जो येन केन प्रकारेण प्रयास कर रहें हैं उनको भी एक-दो माह की ट्रेनिंग देकर तदर्थ आधार (एडहॉक बेसिस) पर डीआरएम बना दिया जाए और खराब परफॉर्मेंस होने पर कभी भी हटा दिया जाए।”
उनका कहना तो यह भी है कि “भले ही डीआरएम, जीएम जैसे पदों का सुनिश्चित कार्यकाल (फिक्स टेन्योर) रखा जाए – फिर चाहे उसे दो साल से बढ़ाकर तीन साल, और एक की जगह दो टेन्योर कर दिया जाए, लेकिन यह मैनडेट क्लीयर रखी जाए, जो सबको बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट हो, कि डीआरएम और जीएम कभी भी हटाए जा सकते हैं, अगर परफॉर्म नहीं करेंगे तो!”
इसके साथ ही, डीआरएम पद पर पोस्टिंग के लिए फील्ड की पोस्टों पर कम से कम 10 से 15 साल का कार्य अनुभव मैनडेटरी हो, और इसमें भी जो अधिकतम जोनों तथा डिवीजनों में सबसे ज्यादा भिन्न पदों (वेरायटी ऑफ पोस्ट्स) पर काम कर चुका हो, उसे ज्यादा वरीयता दी जानी चाहिए।
इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि इससे अधिकारीगण स्वयं ही दूसरे जोनों में ट्रांसफर मांगने लगेंगे, जहां आज अधिकांश अधिकारी पूरी सर्विस, अर्थात पूरा जीवन एक ही जोन में काट रहे हैं, वहीं इस कंडीशन के भावी परिणाम को देखते हुए वे स्वत: स्फूर्त अन्य जोनों/स्थानों में जाने तथा ज्यादा अनुभव ग्रहण करके आगे बढ़ने में रुचि लेंगे। इससे ‘अच्छी पोस्ट’ और ‘साइड पोस्ट’ अथवा ‘साइड लाइन’ की शब्दावली भी समाप्त हो जाएगी और सभी लोग सभी तरह की पोस्टों पर काम करने के लिए स्वत: इच्छुक मिलेंगे।
(जब तक इस तरह से ट्रांसफर को ‘इंसेंटिवाइज’ नहीं किया जाएगा, तब तक लोग एक जगह पर ही अपना गढ बनाकर, खूंटा गाड़कर सिस्टम के लिए नासूर, माफिया, या फिर बोझ बनते रहेंगे! इसी वजह से आज रेल की यह दुर्दशा हुई है, कार्मिकों में जंग लग चुकी है। काम न करने, मगर लूट की होड़ लगी है! इसीलिए परफॉर्म करने का दबाव बनाने पर सरकार, मंत्री और बोर्ड पर लांछन लगाने तथा छवि खराब करने का कुचक्र रचा जाता है!)
अहमदाबाद, लखनऊ, जबलपुर, बिलासपुर, भुवनेश्वर, मुंबई, कोलकाता, गुवाहाटी और चेन्नई के वरिष्ठ पत्रकारों – जो कि रेल को न केवल लंबे समय से कवर कर रहे हैं, बल्कि गहराई से जानते-समझते भी हैं – ने कहा कि “अगर सचमुच रेलमंत्री और सीआरबी इस स्तर पर कोई सुधार करना चाहते हैं और स्पष्ट मैसेज देना चाहते हैं, तो वीआरएस (वॉलंटरी रिटायरमेंट) के लिए बोलना छोड़कर योगी आदित्यनाथ जी से सीखें कि वह रातों-रात कैसे डीजीपी जैसे वरिष्ठ अधिकारियों को हटा दे रहें हैं और जांच भी बैठा दे रहे हैं। आप ही बताईए कि रेलमंत्री ने अब तक कितने अयोग्य, अकर्मण्य जीएम, डीआरएम और विभाग प्रमुखों (पीएचओडी) को शंट किया?”
वे यह भी कहते हैं कि “अधिकांश जीएम और डीआरएम के परफॉर्मेंस से रेलमंत्री और सीआरबी दोनों ही बुरी तरह त्रस्त हैं! तो जब तक रेलमंत्री, अयोग्य अथवा यथायोग्य परिणाम न दे पाने वाले डीआरएम और जीएम को फटाफट नहीं हटाएंगे, तब तक कोई गहरा मैसेज भी नहीं जाएगा, और वास्तव में ऐसा कोई मैसेज नहीं जा रहा है – अब तक तो नहीं गया है! इसके विपरीत ये जितने नकारा टाइप के डीआरएम और जीएम हैं, वे धीरे-धीरे रेलमंत्री के खिलाफ एक ऐसा माहौल बना रहे हैं कि एक साल बाद रेलमंत्री ही नकारा साबित होकर बाहर कर दिए जाएंगे।”
वह कहते हैं, “इन अक्षम, अयोग्य और एकमात्र डीओबी योग्यता वाले डीआरएम और जीएम के जो भाव और जहर रेलमंत्री और सीआरबी के लिए इनके क्लोज सर्कल में निकलता है, व्यक्त होता है, उसे अगर रेलमंत्री या सीआरबी अपने कानों से सुन लें, तो संभवतः तुरंत सार्वजनिक जीवन से ही सन्यास ले लेंगे!”
एक बात और, “जो सही सेनापति या नेता होता है, वह यह जानते हुए भी कि उसके फलां-फलां लोग अक्षम, अकर्मण्य और तिकड़मी हैं, उन्हें कदापि ढ़ोता नहीं है, बल्कि जब तक वे दूसरों को खराब करें, उनको चलता कर देता है!”
उनका कहना है कि “रेलमंत्री को भी बिना समय गंवाए यही करना चाहिए, तब अपने आप ढ़ेर सारे डीआरएम और जीएम के पद खाली मिलेंगे, जिन पर वे अपना नूतन प्रयोग भी कर सकते हैं, और इस प्रयोग से खोजे गए सक्षम लोगों को वहां पर स्थापित भी कर सकते हैं!”
वैसे बड़ी बेसब्री से देश की जनता और रेल के लोग भी इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि रेलमंत्री कब योगी आदित्यनाथ जी वाले फॉर्म में आते हैं? क्रमशः
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
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