September 10, 2021

सीनियर डीसीएम ने अपना काम कर दिया, अब क्या उसे अंजाम तक पहुंचाएगा रेल प्रशासन!

पूरी भारतीय रेल आज “स्टेशन मास्टर” की जगह “स्टेशन डायरेक्टर” को बैठाने के पाप का फल भोग रही है। क्लास-वन की सारी सुविधाएं भोग रहे इस “एसडी” की “एकाउंटेबिलिटी” क्या है?

“सीनियर डीसीएम/दिल्ली मंडल ने तो अपना काम कर दिया लेकिन डीआरएम और जीएम को उस काम को अंजाम तक पहुंचाना अभी बाकी है। यह काम तार्किक मुकाम पर तभी पहुंचेगा, जब मंडल और जोन के दोनों मुखिया समुचित कदम उठाएंगे।” सीनियर डीसीएम दिल्ली मंडल द्वारा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के औचक निरीक्षण का परिणाम देखने के बाद सर्वसामान्य की यही प्रतिक्रिया थी, जिसे जानने-देखने के बाद उनके अंदर एक सुखद आश्चर्य व्याप्त हुआ कि व्यवस्था में सुधार के लिए ऐसा भी किया जा सकता है।

उनका यह भी मानना था कि “यह काम तभी पूरा होगा जब जीएम/उत्तर रेलवे, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के स्टेशन डायरेक्टर को ससपेंड करके उन्हें दिल्ली से बाहर कहीं अन्यत्र पोस्ट करेंगे।” हकीकत यह है कि आज की तारीख में सारे स्टेशन डायरेक्टर सिर्फ और सिर्फ “वसूली” कर रहें हैं। काम के नाम पर कुछ वीवीआईपी प्रोटोकॉल के अलावा ये कुछ नहीं करते। आज न ये स्टेशन के ट्रैफिक ऑपरेशन में ही इन्वॉल्व हैं, और न ही कमर्शियल के किसी काम के लिए अपनी जबाबदेही मानते हैं। दूसरे विभागों के कामों की तो बात ही बहुत दूर की हो गई। जबकि स्टेशन का यह सारा काम एक अकेला स्टेशन मास्टर संभालता था।

असल में इन तथाकथित स्टेशन डायरेक्टरों ने आरपीएफ के अधिकारियों की सारी कार्यशैली अपना ली है। पहले जब स्टेशन मास्टर या स्टेशन मैनेजर होते थे, तब स्टेशन की व्यवस्था जितनी चाक-चौबंद रहती थी और जितनी जिम्मेदारी से वे उसका निर्वहन करते थे, स्टेशन पर “स्टेशन डायरेक्टर” नामक प्राणी के आ जाने से वह इन्वॉल्वमेंट अब नदारत है।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का यह दुर्भाग्य रहा है कि स्टेशन डायरेक्टर का पद बनने के बाद आज तक केवल एक स्टेशन डायरेक्टर ही ईमानदार था, और वह थे दिवाकर झा। उनके अलावा अब तक जितने भी स्टेशन डायरेक्टर बने, चाहे नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली या निजामुद्दीन स्टेशन का हो, फिर वह चाहे डायरेक्ट हो, या प्रोमोटी – सब महाभ्रष्ट और छंटे हुए कलाकार रहे, जिन्होंने काम के अलावा सब कुछ किया। इनके बीच केवल इस बात की होड़ लगी रही कि पैसा वसूली में कौन पिछला रिकॉर्ड तोड़े और अवैध कमाई का कौन सा नया तरीका अपनाया जाए! यही अनुसंधान हर स्टेशन पर आज भी जारी है।

रेलवे की यह खासियत रही है कि किसी भी डिपार्टमेंट का एक जूनियर स्केल अफसर भी कम से कम 20-25 जिलों के भौगोलिक विस्तार के बराबर में फैले एक रेल मंडल को अपने पूरे तकनीकी कौशल और प्रशासनिक दायित्व से पूरी जिम्मेदारी के साथ चलाता है।

यही काम वह तब और बड़े पैमाने पर करता है जब उसकी पोस्टिंग जोनल मुख्यालय में होती है। तथापि जब डिवीजन या जोनल लेवल पर भी कोई गलती होती है, तो वही जूनियर स्केल अफसर टेक अप भी होता है। लेकिन यहां बिडम्बना देखिए कि डिवीजन और जोन से तुलनात्मक रूप से एक बिंदु के बराबर एक टुईयां से रेलवे स्टेशन पर एक जेएजी/एसजी अफसर बैठा दिया गया, जिसकी जिम्मेदारी कुछ भी नहीं है! उसी के स्टेशन पर अनियमितता पकड़ी जाती है, लेकिन उस पर कोई जबाबदेही तक तय नहीं की जाती!

(स्टेशन पर ही हुई कोई अनियमितता पकड़े जाने पर मंडल कार्यालय के असिस्टेंट स्केल, सीनियर स्केल, और यहां तक कि कई बार ब्रांच अफसर जब टेक अप हो जाते हैं, तो उसी स्टेशन के स्टेशन डायरेक्टर महोदय पहले क्यों न टेक अप किए जाएं?)

कायदे से इस लेवल के अधिकारी स्टेशन डायरेक्टर में पोस्ट करने के बाद से इतने छोटे से क्षेत्र की व्यवस्था में रंच मात्र भी त्रुटि नहीं दिखनी चाहिए थी। और अगर दिखती है, तो यह स्पष्ट है कि जो जो गलती और कमी दिख रही है उसमें स्टेशन डायरेक्टर की सीधी संलिप्तता है। नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली, निजामुद्दीन, सीएसएमटी, चेन्नई, हावड़ा इत्यादि रेलवे स्टेशन भी इसके अपवाद नहीं हैं।

यह स्टेशन डायरेक्टर इतने घाघ हैं कि जब भी इन्हें कोई काम बताया जाएगा, या कमी पूछी जाएगी, तो उसकी पूरी जिम्मेदारी बड़ी ही मासूमियत से मंडल के अलग-अलग विभागों पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन जब उनकी सुविधा या ऐशो-आराम में खलल डालने वाला कोई काम होता है, तब ये अपने काम और जिम्मेदारी की सारी महाकाव्य जैसी फेहरिस्त लेकर रोने पहुंच जाते हैं, जो कायदे से उन्हें करना तो है, लेकिन कत्तई करते नहीं।

मसलन इनसे कोई केवल यह पूछ ले कि “एक स्टेशन डायरेक्टर को गाड़ी क्यों चाहिए? जबकि उसको स्टेशन से बाहर कहीं जाना ही नहीं हैं।” तब देखिए, कैसे-कैसे तर्कों के साथ बताने पहुंचते हैं, जिसमें  ट्रैफिक लाने की मार्केटिंग से लेकर सिविल प्रशासन से समन्वय, औचक एवं रात्रि निरीक्षण आदि-इत्यादि सारे तर्क मिलेंगे।

इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि “एक स्टेशन पर कलेक्टर, जिलाधिकारी, आयुक्त, कर्नल, ब्रिगेडियर, एसपी, एसएसपी, डीआईजी, मंत्रालय के डायरेक्टर स्तर के अधिकारी को पोस्ट किया जाता है, फिर भी स्टेशन में ऐसी अनुशासनहीनता, बदहाली और अराजकता हो, तो लानत है ऐसी व्यवस्था पर, और ऐसे अधिकारियों पर, जिन्होंने रेल को ऐसी दुर्दशा तक पहुंचा दिया।”

सीनियर डीसीएम की कार्यवाही के शिकार बने कुछ कर्मचारियों से “रेल समाचार” ने बात की। गोपनीयता की शर्त पर उन्होंने अपनी गलती मानी और यह भी कहा कि “ऐसा ही सब चलता था यहां अब तक।” उनसे इस बातचीत में एक अच्छी बात यह सामने आई कि उनमें से किसी भी स्टॉफ ने सीनियर डीसीएम को गलत नहीं कहा, न ही उनकी मंशा पर कोई सवाल उठाया, बल्कि उनकी बातों में सीनियर डीसीएम के प्रति ज्यादा सम्मान झलक रहा था।

इनमें से एक स्टॉफ ने यह भी कहा कि “स्टेशन डायरेक्टर और मंडल में बैठे कुछ बड़े अधिकारी उन लोगों को यूनियन से मामला उछलवाने के लिए उन्हें भड़का रहें हैं। लेकिन इस मामले में डीआरएम के भी सख्त होने के कारण सीनियर डीसीएम पर उतना दबाब नहीं बन पा रहा है। इसीलिए कुछ लोग मुख्यालय के वाणिज्य विभाग में बैठे अपने आकाओं के पास भी भाग-दौड़कर सीनियर डीसीएम पर दबाब बनाने का प्रयास करेंगे।”

आज अगर वास्तव में देखा जाए तो स्टेशन डायरेक्टर को मंडल मुख्यालय में बैठे किसी भी ब्रांच अफसर से ज्यादा सुविधा मिल गई है। जो गाड़ियां प्रमुख मुख्य विभाग प्रमुखों (#PHODs) को मिलती हैं, उससे भी बेहतर गाड़ियां, चैम्बर और अन्य सहूलियतें लेकर ये कथित स्टेशन डायरेक्टर बिना किसी एकाउंटेबिलिटी के सिर्फ और सिर्फ ऐश और वसूली कर रहें हैं।

आज पूरी भारतीय रेल, स्टेशन मास्टर की जगह स्टेशन डायरेक्टर को लाने के पाप का फल भोग रही है। जहां स्टेशन डायरेक्टर के पद पर या तो कोई घाघ प्रमोटी अधिकारी केवल वसूली के एकसूत्री कार्यक्रम के साथ बैठा है, या फिर केवल पैसे के पीछे ललचाया हुआ लार टपकाता डायरेक्ट अफसर! पूरी भारतीय रेल में अपवाद स्वरूप एकआध स्टेशन डायरेक्टर को छोड़कर सबकी कहानी एक जैसी ही है।

जैसा कि “रेल समाचार” पहले भी विस्तार से लिख चुका है कि “स्टेशन डायरेक्टर का पद रेल की भलाई के लिए नहीं, बल्कि कैडरों के घटिया विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीति की नीयत से सृजित किया गया था और एक कैडर विशेष के पर कतरने की रणनीति भी इस दुर्नीति में अंतर्निहित थी!”

कैडर से परे हटकर सोचने वाले लोग/अधिकारी और रेल को बाहर से गौर से वॉच करने वाले भी जानते हैं कि स्टेशन डायरेक्टर एक बुरी तरह “फेल्ड एक्सपेरिमेंट” है।

हवा में रहने वाले तथाकथित स्वयम्भू युगपुरुषों का आसमान के मॉडल को रेल की पटरियों/जमीन पर लाने सरीखा प्रयास था यह प्रयोग, जिसका उद्देश्य पटरियों का वजूद खत्म करना था, न कि पटरियों को मजबूती देना!

इस प्रयोग को फेल होना ही था, क्योंकि यह बुरी नीयत से और निहायत ही कुटिल-कुत्सित मानसिकता वाली डिजाइन से शुरू किया गया था। अब इस प्रयोग को जितना खींचा जाएगा, कोरोना वायरस की तरह यह उतना ही ज्यादा रेल का नुकसान करता चला जाएगा।

वर्तमान रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव का रेल पर एक बहुत ही बड़ा उपकार होगा, अगर वह इस स्टेशन डायरेक्टर के पद को समाप्त कर लंबे समय से चले आ रहे “टाइम टेस्टेड सिस्टम” यानि स्टेशन मास्टर/स्टेशन मैनेजर वाली पुरानी व्यवस्था को ही पुनर्जीवित/पुनर्स्थापित कर देंगे। वरना ये स्टेशन डायरेक्टर ऐसे घुन की तरह बन चुके हैं, जो न काम के हैं, न काज के, बस केवल सौ मन अनाज के हैं।

वैसे भी रेल में टोकरी भर-भरकर एसएजी/एचएजी अफसर इफरात में तो हो ही गए हैं, लेकिन डिवीजनों और जोनों सहित रेलवे बोर्ड में भी जूनियर/सीनियर/जेएजी/सेलेक्शन ग्रेड अफसरों का भयंकर अकाल पड़ गया है, जो डायरेक्ट अफसरों की बहाली रुकने से और भयावह होने जा रहा है। इस स्थिति में किसी भी श्रेणी के स्टेशन पर न तो इतने सीनियर ऑफिसर्स को स्टेशन डायरेक्टर के पद पर रखने का, और न ही स्टेशन डायरेक्टर के पद को बनाए रखने की अवधारणा का, कोई औचित्य बनता है।

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी

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