रेल की दुर्गति का कारण: अंधा पीसे, कुत्ता खाए!
रेलवे में यही कहावत चरितार्थ हो रही है! क्योंकि यहां देखने-हांकने वाला अर्थात “जिम्मेदार” कोई नहीं!
रेलवे अस्पतालों की दुर्गति क्यों है? ये बंद होने के कगार पर क्यों पहुंच रहे हैं? इन्हें व्हाइट एलिफैंट (सफेद हाथी) का दर्जा क्यों मिला हुआ है? इसका मुख्य कारण है कि किसी न किसी बहाने से हाईली पेड रेल कर्मचारियों-अधिकारियों ने रेल की भलाई के लिए कभी अपनी जिम्मेदारी ही नहीं समझी।
आवश्यकता से अधिक वेतन, कामचोरी और आरामतलबी, अपने कर्तव्य से विमुख, गैरजरूरी कार्यों में लिप्त स्टाफ, जिनको कि वर्षों से एक ही जगह जमे अकर्मण्य डॉक्टरों की खुली छूट है, ने रेल अस्पतालों में रेलकर्मियों/मरीजों का बुरी तरह से कबाड़ा करके रखा हुआ है।
मध्य रेलवे के जोनल अस्पताल भायखला में अयोग्य नर्सिंग स्टाफ वार्डों में काम कर रहा है। जहां वार्डों में निर्मला जैसी फूहड़ और अयोग्य नर्स बेलगाम होकर कार्य कर रही है, वहीं इस अव्यवस्था को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है, जिसके कारण मरीजों में त्राहि-त्राहि मची है।
अस्पताल के एएनओ ऑफिस में जहां अधिकतम दो या तीन नर्सें आसानी से सारा काम मैनेज कर सकती हैं, वहां 12-12 नर्सें काम कर रही हैं। उनकी ड्यूटी कहीं और होती है, मगर लगी रहती हैं एएनओ ऑफिस में!
किसी डिवीजनल या जोनल अधिकारी के पास भी इतने हाईली पेड 12 स्टाफ कार्य नहीं करते होंगे। परंतु भायखला अस्पताल में एक क्लास-2 ऑफिसर एएनओ के अंडर में 12-12 हाईली पेड नर्सें बैठकर टाइम पास कर रही हैं।
प्रशासन की इतनी अनदेखी जोनल हॉस्पिटल जैसी जगहों पर बिल्कुल स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। आखिर इतने लोग सीएमएस, एमडी आदि मैनेजमेंट देखने वाले क्या ये केवल टाइम पास कर रहे हैं? या फिर अपनी जिम्मेदारी ही नहीं निभा रहे हैं? पर्सनल/एकाउंट्स से इन 12-12 नर्सों की पेमेंट बिना अपना कार्य निष्पादित किए कैसे पास हो रही है?
हर एक स्टाफ को उसके पद से संबंधित कार्य करने की गाइडलाइंस होती है। किसी भी सिस्टर, फार्मेसिस्ट, वार्ड बॉय, आया, सफाई वाले हों या फिर डॉक्टर, सभी के अपने निश्चित कार्य दर्शाए गए होते हैं। परंतु ये सिस्टर्स पेशेंट्स की केयर लेने के बजाय बाबूगीरी में लगाई गई हैं।
यह कार्य तो एक जूनियर क्लर्क भी कर सकता है। वैसे भी भायखला अस्पताल की कार्यप्रणाली पहले से ही बहुत अच्छी नहीं रही है। अब तो कोविड-19 के नाम पर रेल अस्पतालों में ट चौतरफा अंधेरगर्दी ही मची हुई है।
इन लोगों ने कितने कोविड-19 मरीजों को ठीक किया, या कितने मरीजों को मार दिया गया, यह बात अपनी जगह है, लेकिन इसके नाम पर अपनी फोकट की रोटियां मनमर्जी से तोड़ने की जो परंपरा चालू हो गई है, वह तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही।
ऑक्सीजन सिलेंडर के मैनेजमेंट के ही लिए यहां न जाने कितने लोगों का दुरुपयोग किया जा रहा है, जबकि यह कार्य एक या दो व्यक्ति बड़ी आसानी से कर सकते हैं।
जहां ऑपरेशन थिएटर का कार्य अति संवेदनशील होता है, वहां के स्टाफ द्वारा मुस्तैदी से किया जाता है, वहीं वे कॉल ड्यूटी भी उतनी ही मुस्तैदी से अटेंड करते हैं। इसके बावजूद ऑक्सीजन सिलेंडर का गैरजरूरी कार्य न करने के कारण अनेकों लोगों को गलत तरीके से चार्जशीट दे दी गई है।
डॉ मंगला जिनका पश्चिम रेलवे के जगजीवन राम अस्पताल (जेआरएच) मुंबई सेंट्रल में ट्रांसफर हो चुका है, लेकिन वह जाने को तैयार नहीं हैं। मेडिकल ग्राउंड पर अपनी रिलीविंग को रोककर बैठी हुई हैं। जबकि जगजीवन राम अस्पताल, भायखला अस्पताल से मात्र दो किलोमीटर दूर है। रेल अस्पतालों में डॉक्टरों की मैनेज्ड पोस्टिंग होती है, यह बात सर्वज्ञात है।
रेल अस्पताल सफेद हाथी और मेडिकल भ्रष्टाचार के बहुत बड़े गढ़ हैं। दवाईयों की खरीद हो, या मेडिकल इंस्ट्रूमेंट्स की, अथवा अन्य विभिन्न प्रकार के मेडिकल साजो-सामान की, हर मामले में यहां भ्रष्टाचार समाहित है। “मेडिकल टूरिज्म” के चलते रेलवे का लगभग हर डॉक्टर इससे लाभान्वित हो रहा है। यह सब “रेलसमाचार” वर्षों से लिखता आ रहा है। अब जहां यह लगभग सारे अस्पताल केवल “रेफरल” होकर रह गए हैं, तब इनको डॉक्टरों और नर्सों की मौज-मस्ती के लिए बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं रह गया है।
कुछेक अपवादों को छोड़कर पैदाइशी एक ही जगह जमे रेलवे के डॉक्टर अब मरीजों का उपचार नहीं करते, क्योंकि वह अब “अफसर” हो गए हैं। इसलिए मरीजों को देखने में उन्हें शर्म आती है। यह केवल उच्च अधिकारियों का और यूनियन पदाधिकारियों को ही देखते हैं, बाकी सामान्य रेलकर्मी इन रेल अस्पतालों में केवल धक्के खाते हैं।
भायखला अस्पताल में एक जे. ए. ग्रेड मैकेनिकल इंजीनियर की पोस्टिंग पिछले लगभग चार-पांच सालों से है। किसी को पता नहीं है कि इस मैकेनिकल इंजीनियर की अस्पताल में पोस्टिंग किसलिए है? इसका क्या काम है? और यह यहां करता क्या है? क्या मैकेनिकल डिपार्टमेंट में इसकी आवश्यकता नहीं रही? अगर इसकी यहां पोस्टिंग जस्टिफाईड है, तो भी इसका रोटेशन अब तक क्यों नहीं किया गया? यदि नहीं, तो अब तक इसे यहां से हटाकर इसकी फील्ड में क्यों नहीं लगाया गया? इसका अर्थ यह है कि रेलवे के हर डिपार्टमेंट में अधिकारी इफरात हैं!
कहने का तात्पर्य यह है कि रेल में “अंधा पीसे, कुत्ता खाए” अर्थात देखने-हांकने वाला कोई नहीं, वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। यह समझ से बाहर है कि इस तरह की व्यवस्था से रेल अस्पतालों की स्थिति चरमराती रही तो मरीजों का भला कैसे हो पाएगा? और यह सब तमाशा रेल प्रशासन मूकदर्शक होकर कैसे देख रहा है? क्रमशः
प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी
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