क्रीमी लेयर की मुफ्तखोरी और संविधान!
सरकारी मलाई की मुफ्तखोरी को अब भूल जाएं! निजी उद्योग को यूरोप के गुणों के साथ अपनाया जाए। हर काम बराबर है। हर हाथ को काम मिले। संविधान भी यही कहता है!
“राष्ट्रवाद के सही मायने!” शीर्षक से प्रकाशित लेख के संदर्भ में वरिष्ठ लेखक श्री प्रेमपाल शर्मा के विचार
दसवीं क्लास की परीक्षा के लिए यह निबंध अच्छा कहा जाएगा और यह भी कि यह मानो 1960 में लिखा गया हो। सन 80 तक हम सब ने ऐसे निबंध लिखे हैं, क्योंकि सरकार और मीडिया बार-बार संविधान की ऐसी ही दुहाई देता था; निजी उद्योग, मेहनत तो पाप है।
लेकिन न औद्योगिक उत्पादन बढ़ा, न शिक्षा में गति आई, बल्कि लाइसेंस – परमिट राज में रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार ऐसा फला-फूला कि जिसकी टीस आज तक कायम है।
सरकारी नौकरी को दामाद की तरह देखना अब आने वाले दिनों में एक दिवास्वप्न साबित होने वाला है, जिसके लिए एक प्रसिद्ध लेखक ने कहा था, “जब तक सरकारी नौकरी, तब तक हरामखोरी, और बाद में पेंशन की सुविधा मुफ्त!” ऐसे में डूबना ही था, सो डूब ही गया पूरा सरकारी तंत्र।
पहले एक के बाद एक निजी स्कूल सामने आए। फिर अस्पताल सामने आए। एयरलाइंस आईं। अब भारतीय रेल की बारी है, क्योंकि प्राइवेट सेक्टर के मुकाबले हरामखोरी, कामचोरी, मुफ्तखोरी जैसे दुर्गुणों को खत्म करने के लिए अब तक हमने एक भी कदम नहीं उठाया।
दुनिया में आज वे राष्ट्र आगे हैं जो निजी पूंजी और सरकारी कल्याणकारी नीतियों में तालमेल बिठाए हुए हैं। सोवियत संघ (यूएसएसआर) तो पूरा का पूरा 1990 में ही डूब गया। और अब अपने ही देश में पश्चिम बंगाल की हालत देख लें।
उत्तर भारत तो 3 में न 13 में। वहां न सरकार चल सकती, न तंत्र, और न ही निजी उद्योग चल सकते हैं। वहां तो जाति-धर्म रंगदारी, लूट ही चलेगी और इन सबको मिलाकर राजनीति चल सकती है।
इसलिए सरकारी मलाई की मुफ्तखोरी को अब भूल जाएं! निजी उद्योग को यूरोप के गुणों के साथ अपनाया जाए। हर काम बराबर है। हर हाथ को काम मिले। संविधान भी यही कहता है!
#प्रेमपाल_शर्मा, दिल्ली, 1 जून 2021.