पटना कैट में रेलवे बोर्ड ने दिया झूठा हलफनामा
पटना कैट ने की रेलवे बोर्ड के पक्षतपातपूर्ण रवैये की कड़ी निंदा
रे.बो. ने की सर्वोच्च अदालत के आदेश की रिव्यु करने की जुर्रत
रेलवे बोर्ड ने ‘अधिकारी पदोन्नति घोटाले’ में लांघी सारी मर्यादाएं
चेतावनी के साथ कैट ने मुकर्रर की वरीयता निर्धारण की अंतिम तिथि
मामले का जल्दी निपटारा कर दोनों समूहों को अवसाद से बचाए रे.बो.!
सुरेश त्रिपाठी
भारतीय रेल में हुए अरबों रुपये के ‘अधिकारी पदोन्नति घोटाले’ के सार्वजनिक होने तथा अदालत से फटकार मिलने के बाद भी रेल प्रशासन ‘प्रमोटी प्रेम’ अथवा अपनी हठधर्मिता छोड़ने को तैयार नहीं है. अदालत से लगातार समय लेने के बाद भी नित नए और विपरीत दिशा-निर्देश जारी करके भ्रष्टाचार को पल्लवित करने का ऐसा अनूठा उदाहरण शायद ही किसी अन्य मंत्रालय में देखने को मिलेगा. सभी न्यायालयों से मुंह की खाने के बाद प्रमोटी संगठन के लिए एक ही रास्ता बचा था कि किसी भी तरह रेलवे बोर्ड को अपनी गिरफ्त में रखा जाए. धनबल और राजनीतिक दबाव के चलते इस जोड़तोड़ में उसे पर्याप्त कामयाबी मिलती दिखाई दे रही है.
नित नए विरोधाभासी आदेश निर्गत होते देखकर यही लगता है कि या तो रेलवे बोर्ड के संबंधित उच्च अधिकारी भ्रष्ट हो चुके हैं, या फिर उनका जमीर भी मर चुका है, अथवा स्थापना विभाग पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. यह तो सर्वविदित है कि रेलवे के उच्च अधिकारियों के कुछ बच्चे भी ग्रुप ‘ए’ के पदों पर आसीन हैं, फिर भी उनके खिलाफ निर्णय यह साबित करता है कि वास्तव में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार किस कदर व्याप्त हो चुका है. अर्थात जो व्यक्ति अपने परिवार और बच्चों के साथ न्याय नहीं कर सकता, उससे गया-बीता इस धरती पर कौन हो सकता है? इसलिए यदि ऐसे लोगों को रेलवे की बागडोर सौंपी गई है, तो इसका पतन निश्चित है. आज रेलवे की जो हालत है, वह ऐसे ही लोगों की वजह से है.
रेलवे बोर्ड के स्थापना निदेशालय द्वारा अदालती आदेशों के विपरीत आए दिन जो विरोधाभाषी निर्देश जारी किए जा रहे हैं, उनका सीधा संबंध सीधे मेंबर स्टाफ और सेक्रेटरी/रे.बो. से है और ऐसा लगता है कि इस सारे मामले में चेयरमैन, रेलवे बोर्ड (सीआरबी) एवं अन्य बोर्ड मेंबर्स को अंधेरे में रखा जा रहा है तथा उनकी जानकारी के बगैर उक्त विरोधाभाषी पत्र निर्गत किए जा रहे हैं. उल्लेखनीय है कि जोड़तोड़ में माहिर वर्तमान सेक्रेटरी/रे.बो. की नियुक्ति के बाद, जैसा कि ‘रेलवे समाचार’ ने लिखा था, रेलवे बोर्ड में दो ‘पॉवर सेंटर’ बन गए हैं. इससे पहले पूर्व सेक्रेटरी/रे.बो. एवं पूर्व मेंबर स्टाफ के समय रेलवे बोर्ड में ऐसा विरोधाभाषी वातावरण नहीं था. परंतु वर्तमान मेंबर स्टाफ और सेक्रेटरी/रे.बो. के समय अदालती आदेशों के विपरीत यदि सब कुछ उलट-पुलट हो रहा है, तो इसका सीधा अर्थ यही निकाला जाना चाहिए कि उक्त दोनों अधिकारी कहीं न कहीं मामले में घालमेल करके उस पक्ष को अनुचित लाभ पहुंचाना चाह रहे हैं, जिसे कानून और अदालत का समर्थन नहीं मिल रहा है.
जॉइंट सेक्रेटरी अनिल गुलाटी को लिखा गया दिग्भ्रमित करने वाला पत्र
रेलवे बोर्ड ने 16 जनवरी 2018 को एक अत्यंत हास्यास्पद और विवादित पत्र (सं. ई(ओ)1/2017/एसआर6/6सीसी) निर्गत किया. इस पत्र के माध्यम से अनिल गुलाटी, जॉइंट सेक्रेटरी, इंचार्ज, सेंट्रल एजेंसी सेक्शन, कानून एवं न्याय मंत्रालय, सुप्रीम कोर्ट कंपाउंड, सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली को रेलवे बोर्ड द्वारा पुरजोर तरीके से गुमराह करने की कोशिश की गई है. यही नहीं, इस पत्र में जो कहा गया है, उसके जरिए सुप्रीम कोर्ट को भी पूरी तरह दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है.
इस पत्र का विश्लेषण करने पर निम्न तथ्य समझ में आते हैं-
1. किसी भी अदालत के समक्ष प्रत्येक पैरा के अनुसार ही जवाब दाखिल किया जाता है. परंतु कहीं अपनी पोल खुल न जाए, इसलिए एकमुश्त जवाब देने के बजाय रेलवे बोर्ड ने गोल-गोल घुमाकर जवाब देने की चाल चली है.
2. ग्रुप ‘ए’ के वरीयता निर्धारण में रेलवे के विशाल नेटवर्क, 24 घंटे रेल परिचालन, माल ढुलाई का क्या तात्पर्य है? जबकि सभी मंत्रालयों में ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों की 24 घंटे की ड्यूटी अथवा नौकरी रहती है. सभी मंत्रालयों के भिन्न-भिन्न कार्य बंटे हुए हैं. इसलिए कोई भी मंत्रालय औऱ उसके अधिकारी छोटे-बड़े नहीं होते. रेलवे बोर्ड का यह भ्रमित करने वाला तर्क कि काम अधिक होने की वजह से ग्रुप ‘ए’ में पदोन्नति मिलनी चाहिए, जैसा कि एस. एस. रैयप्पा को ग्रुप ‘सी’ से अगले ही दिन ग्रुप ‘ए’ दे दिया गया, यह पूर्ण रूप से अधारविहीन और अतार्किक है.
3. उक्त पत्र में 1950 का हवाला देते हुए सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने की कोशिश की गई है. ज्ञात हो कि उस समय ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों का ग्रुप ‘ए’ में कोटा सिर्फ 25% था, जिसको समयोपरांत क्रमवार बढ़ाकर 33.33% किया गया. तत्पश्चात 40% किया गया और अब यह 50% पर पहुंच गया है. इससे भी जब मन नहीं भरा, तो वर्ष 2002 से लेकर 2010 तक के परीक्षा वर्षों में खत्म हो चुके ग्रुप ‘ए’ के लगभग चार हजार पदों को पुनर्जीवित करके यह सभी पद ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों को दे दिए गए, जिससे उनका कोटा 75% पर पहुंच गया. इसके ऊपर गलत गणना करवाकर 26,350 के बदले 18,950 पे-स्केल निर्धारित कर हजारों ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों को गलत ढंग से सीधी भर्ती वाले ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों से ऊपर वरीयता निर्धारण कर दी गई, जो रेलवे में व्याप्त भ्रष्टाचार का जीता-जागता उदाहरण है.
4. अब जहां तक ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों को एंटी-डेटिंग वरीयता देने की बात है, जिसके पक्ष में रेलवे बोर्ड लगातार दलीलें देता आ रहा है कि आईएएस और पीसीएस में एंटी-डेटिंग वरीयता निर्धारण का नियम है, इसलिए यह रेलवे में भी जारी रहना चाहिए. परंतु रेलवे बोर्ड शायद इस तथ्य को दरकिनार कर देना चाहता है कि जिन सेवाओं में राज्य सेवा आयोग से अधिकारी चयनित होते हैं, वह रेलवे की तरह बिना किसी न्यूनतम योग्यता के ग्रुप ‘सी’ और ग्रुप ‘डी’ स्टाफ नहीं होते, उन अधिकारियों और रेलवे के ग्रुप ‘बी’ प्रमोटी अधिकारियों में कोई समानता नहीं है. इस बात को ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली’ वाली कहावत की तर्ज पर समझा जाना चाहिए.
5. ‘प्रमोटी प्रेम’ में पगलाए हुए रेलवे बोर्ड द्वारा 16 जनवरी के दिग्भ्रमित करने वाले पत्र में डिफेंस और ऑडिट सेवाओं में दी जाने वाली एंटी-डेटिंग वरीयता को आधार बनाने की कुत्सित कोशिश की गई है. ज्ञात हो कि डीओपीटी के अनुसार भारत में कुल 58 सरकारी विभाग हैं, जिनमें से कुछ विभागों में ही एंटी-डेटिंग वरीयता निर्धारण, वह भी अधिकतम सिर्फ 2 वर्ष के लिए, का नियम भी रेलवे की तरह 5 वर्ष नहीं है. इन विभागों में दी जाने वाली एंटी-डेटिंग के लिए अलग से स्टेट्यूटरी (वैधानिक) नियम का प्रावधान है, जबकि रेलवे में मनमानी नियम के द्वारा 5 साल की अतिरिक्त वरीयता दी जा रही है, जिसको सर्वोच्च अदालत ने भी गलत और नियम-विरुद्ध माना है.
‘रिकैलिब्रेशन’ बनेगा रेलवे बोर्ड के गले की फांस
रेलवे बोर्ड के उपरोक्त 16 जनवरी के पत्र में 5 सालों की दी जाने वाली एंटी-डेटिंग वरीयता को रिकैलिब्रेशन करने की बात कही गयी है. ‘प्रमोटी प्रेम’ में अंधे हो रहे रेलवे बोर्ड को यह समझ में क्यों नहीं आ रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को रिव्यु करने का अधिकार किसी को भी नहीं है? यदि रेलवे बोर्ड एंटी-डेटिंग वरीयता में रिकैलिब्रेशन की बात करता है, तो उसका यह कु-कृत्य पूरी तरह से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जानबूझकर की गई अवमानना की श्रेणी में आएगा. इस गुनाह की कोई माफी नहीं है. परिणामस्वरूप सर्वोच्च अदालत के सामने रेलवे बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारियों की दुर्गति होने की पूरी संभावना है.
रेलवे बोर्ड ने अदालत में दिया झूठा हलफनामा
मनमानी और अराजकता की सारी सीमाएं लांघते हुए रेलवे बोर्ड की मति ‘प्रमोटी प्रेम’ में इतनी चौपट हो गई है कि वह अब अदालत में भी झूठा हलफनामा देने का दुस्साहस करने लगा है. पटना कैट में चल रहे दो मामलों – एक अवमानना का और दूसरा गोवर्धन कुमार का – पर रेलवे के दोमुंहे और दिग्भ्रमित करने वाले जवाबों से स्पष्ट है कि पूरा स्थापना निदेशालय अथवा पूरा रेलवे बोर्ड राजनीतिक दबाव के सामने प्रमोटियों के हाथों बिक चुका है? ज्ञात हो कि 19 फरवरी को जॉइंट सेक्रेटरी, रेलवे बोर्ड की तरफ से एक ऐसा ही दिग्भ्रमित करने वाला पत्र निर्गत किया गया था. इस पत्र में कहा गया था कि रेलवे बोर्ड ने वरीयता पुनर्निर्धारण के लिए 16 जनवरी के पत्र के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय से चार महीने का अतिरिक्त समय मांगा है.
जबकि 19 फरवरी का यह पत्र सरासर झूठा और गुमराह करने वाला है, क्योंकि रेलवे बोर्ड द्वारा अब तक भी कोई जवाब सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल नहीं किया गया है. यही नहीं, सर्वोच्च न्यायलय में हो चुकी दो सुनवाईयों में भी रेलवे की तरफ से अब तक कोई मौखिक जवाब भी नहीं दिया गया है. यदि किसी को ‘रेलवे समाचार’ की इस बात पर यकीन न हो, तो सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर केस संख्या 22444/2017 की स्टेटस रिपोर्ट देखी जा सकती है. जहां इस मामले से संबंधित सभी जानकारियां तारीखवार उपलब्ध हैं.
जहां एक तरफ आजकल तमाम पूर्व एवं वर्तमान प्रमोटी अधिकारी संबंधित मामले में स्वयंसिद्ध जज बने हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ सर्वोच्च अदालत के साथ दिन-दहाड़े इतना बड़ा फ्रॉड और धोखाधड़ी सिर्फ रेलवे बोर्ड द्वारा ही की जा रही है, यह बेहद अशोभनीय और शर्मनाक है. इस फ्रॉड और धोखाधड़ी में लिप्त रेलवे बोर्ड के सभी संबंधित अधिकारियों को आईपीसी की धारा 420 के साथ ही पद का दुरुपयोग करने की अन्य धाराओं में बुक करके कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. जो भी सरकारी अधिकारी भारतीय लोकतंत्र के मूलभूत कर्तव्यों का हनन करता हो, उसे जेल की सलाखों के पीछे ही होना चाहिए.
अदालत ने जड़ा रेलवे बोर्ड के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा
गोवर्धन कुमार मामले में पटना कैट ने रेल प्रशासन की कड़े शब्दों में भर्तस्ना करते हुए उसे अंतिम मौका दिया है. कैट ने अपने आदेश की शुरुआत ही रेलवे द्वारा दिए गए गलत हलफनामे से की है. कैट के इस आदेश में चार महीनों के समय का स्पष्ट जिक्र किया गया है. ऐसा घोर कलयुग शायद ही कहीं देखने को मिलेगा कि सर्वोच्च न्यायालय में जवाब तो आज तक दाखिल ही नहीं किया गया, मगर कैट को यह दाखिल किया बताया गया. कैट ने अपने आदेश की शुरुआत में ही उस गलत हलफनामे का जिक्र करके इस झूठ को उजागर कर दिया है. पटना कैट को यह बखूबी मालूम है कि रेलवे झूठ बोल रही है, इसलिए आदेश की पहली पंक्ति में ही इसका जिक्र कर दिया. यह झूठ रेलवे बोर्ड को कितना भारी पड़ेगा, यह तो वक्त ही बताएगा, परंतु अब रेलवे बोर्ड को किसी भी हालत में चार हफ़्तों के अंदर वरीयता पुनर्निर्धारण कर अदालत को इसकी कंप्लायंस रिपोर्ट देनी है.
ऐसा क्या हुआ कि रेलवे बोर्ड ने इस पूरे मामले में ले लिया यू-टर्न?
जब से एडहाक जेएजी ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों के डिमोशन होने शुरू हुए हैं, तब से अचानक ऐसा क्या हुआ कि रेलवे बोर्ड ने इस पूरे मामले में एकदम से यू-टर्न ले लिया है? अदालत के आदेश का अक्षरशः पालन करने वाली ऑफिस नोटिंग पर पूर्व सीआरबी, मेंबर स्टाफ और सेक्रेटरी/रे.बो. ने बिना एंटी-डेंटिंग वाले नियम पर मंजूरी दी थी. परंतु वर्तमान मेंबर स्टाफ और सेक्रेटरी/रे.बो. के आने के बाद अचानक पूरा माहौल पुनः ‘प्रमोटी प्रेम’ में कैसे सराबोर हो गया, यह गहन विचार का विषय है. डिमोशन के बाद सभी प्रमोटी अधिकारी डरे और सहमे हुए हैं. इसी भय का लाभ उठाकर कहीं भारी मात्रा में धन उगाही तो नहीं हुई है? यह भी हो सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सख्त रुख देखने का बाद यह सारा फंड रेलवे बोर्ड के गलियारों में दान दिया जा रहा हो? फुल बोर्ड द्वारा ‘रिकैलिब्रेटेड’ एंटी-डेटिंग वरीयता के प्रस्ताव को मंजूरी देकर प्रमोटी अधिकारियों को पुरस्कृत करने के खेल के पीछे किसका हाथ है, इसे भली-भांति समझा जा सकता है. सही कहावत है कि ‘बिकता तो जहां है, सिर्फ बोली तगड़ी होनी चाहिए’.
‘रिकैलिब्रेशन’ शब्द की ईजाद के पीछे आ रही है भारी भ्रष्टाचार की गंध
रेलवे बोर्ड ने अब जिस ‘रिकैलिब्रेशन’ नामक नए शब्द की ईजाद की है, उसके पीछे भारी भ्रष्टाचार की गंध आ रही है. जिस प्रकार वैधानिक स्थिति और एंटी-डेटिंग का नियम पहले भी ग्रुप ‘बी’ के पक्ष में नहीं था, और सर्वोच्च न्यायलय ने भी इसे एम. सुधाकर राव मामले में तीन जजों की विशेष पीठ बनाकर वर्ष 2013 में खारिज कर दिया था, मगर रेलवे बोर्ड इसे लगातार जारी रखने के लिए अभी भी सभी अनुचित और गैर-कानूनी रास्ते अपना रहा है. इसके अलावा वर्ष 2001 से 2009 के बीच स्क्रेप हुए लगभग चार हजार ग्रुप ‘ए’ के पदों को डस्टबिन से निकालकर उन्हें ग्रुप ‘बी’ को रेवड़ियों की तरह बांट दिया था, वह भी इसी तरह के भ्रष्टाचार की बदौलत ही किया गया था.
अब जिस तरह सभी जोनल रेलों और उत्पादन इकाईयों के अधिकारियों द्वारा करोड़ों रुपये जमा किए गए हैं, उससे भी यही गंध आ रही है कि इस बार भी रेलवे बोर्ड के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों को खरीदकर और अदालती आदेशों को धता बताकर अपने पक्ष में सारे मामले को मोड़ लिया जाए. क्योंकि अब तक की अदालती लड़ाई से यह तो लगभग पूरी तरह स्पष्ट हो ही चुका है कि यह मामला ग्रुप ‘बी’ के पक्ष में नहीं जाने वाला है और कानून और नियम भी उनका साथ नहीं दे रहे हैं. ‘रेलवे समाचार’ के पास ऐसे सबूत मौजूद हैं कि ज्यादातर अधिकारियों ने व्यक्तिगत रूप से एक से लेकर पांच-दस हजार रुपये तक दिए हैं, मगर कुछ ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों ने इसमें 25 हजार से लेकर लाखों रुपये तक का कंट्रीब्यूशन किया है.
जाहिर है कि उनके द्वारा किया गया यह ‘योगदान’ व्यक्तिगत नहीं हो सकता, बल्कि उन्होंने यह अपने मातहत काम करने वाले ठेकेदारों का गला दबाकर किया होगा. ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों ने भी आपस में चंदा उगाही की है. प्रधानमंत्री और रेलमंत्री जहां सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करते हैं, वहीं रेलवे में भ्रष्टाचार का यह नंगा नाच चल रहा है. यह सही है कि अदालती लड़ाई लड़ने के लिए दोनों पक्षों को पर्याप्त धन की जरूरत है. परंतु यदि रेलवे बोर्ड अपनी बेवकूफियों को त्यागकर अथवा स्वयं को अदालत से बड़ा मानने की कुप्रवृत्ति छोड़कर मामले का जल्दी निपटारा करने में अदालत का सहयोग करे, तो इससे न सिर्फ दोनों पक्षों का धन बचेगा, बल्कि उन्हें अनावश्यक मानसिक अवसाद एवं शारीरिक श्रम से भी निजात मिलेगी.