कार्मिक विभाग की कार्यप्रणाली की समीक्षा करे रेल प्रशासन
कथित एचआर एक्सपर्ट्स ने किया रेल के एचआर का बंटाधार
सर्विस रिकॉर्ड को लेकर सबसे ज्यादा दुखी रहता है अधिकारी वर्ग
व्यक्तिगत ईमानदारी, बेईमानी और कर्तव्यपरायणता की संभावना सभी विभागों में समान है -एल. बी. राय
सुरेश त्रिपाठी
भारतीय रेल का कार्मिक विभाग एक ऐसा विभाग है, जिससे हरेक रेलकर्मी और रेल अधिकारी को कोई न कोई शिकायत रहती ही है। कार्मिक विभाग की कार्यप्रणाली से कोई कर्मचारी संतुष्ट नजर नहीं आता। अन्य विभागों के अधिकारी इस बात से कार्मिक अधिकारियों से कुढ़ते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उन्होंने यूनियनों को सिर पर चढ़ा रखा है। तथापि वह यह भी मानते हैं कि यूनियनों की वजह से ही सही, कार्मिक अधिकारी रेलकर्मियों के कुछ काम तो करते हैं। प्रस्तुत है एक विस्तृत विश्लेषण-
रेलवे बोर्ड के एक उच्च पद से रिटायर और सीपीओ में काम कर चुके एक वरिष्ठ मेकैनिकल अधिकारी ने कहा कि “मूलतः ट्रैफिक और मेकैनिकल विभाग, और कुछ हद तक इंजीनियरिंग विभाग के नकारेपन से आज का रेल का सबसे नाकारा काडर आईआरपीएस बना। अगर उक्त विभाग काम के दबाब में आकर अपना कैडर मैनेजमेंट नहीं छोड़ा होता, तो यह नाकारा विभाग अस्तित्व में ही नहीं आता। पहले इन्हीं विभागों के अधिकारी सीनियर डीपीओ और सीपीओ बना करते थे और तब सिस्टम में आज के जैसा मेस नहीं था।”
जिस तरह ट्रैफिक वाले काम की अधिकता के कारण अकड़े होते हैं और एकाउंट्स वाले अपनी अनिवार्य महाजनी शक्ति के कारण अकड़ में रहते हैं, वैसे ही आईआरपीएस बिना काम के ही अकड़ में रहते हैं। ये कसम खाए होते हैं कि काम नहीं करना है। बोर्ड के ही एक अधिकारी ने बताया कि “आज की तारीख में रेलकर्मियों और रेल अधिकारियों की नजर में एकाउंट्स से ज्यादा बड़ा विलेन कार्मिक विभाग हो गया है।”
पूरी दुनिया में घूम-घूमकर अपने को एचआर का सबसे बड़ा एक्सपर्ट बताने वाले आईआरपीएस अधिकारियों ने रेल के एचआर का कितना सत्यानाश किया है, वह तो रेल के लोग ही बेहतर जानते हैं।
हां, यह बात जरूर है कि अपनी एकता के बल पर दूसरे मंत्रालयों में अच्छी-अच्छी जगहों पर जमे हैं और इनका प्रयास भी यह होता है कि इनकी जगह कोई इन्हीं के कैडर का और इन्हीं के जैसा तिकड़मबाज आए।
खैर, इसमें भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन जिस काम में जीएम या डीआरएम अथवा यूनियनों का डर न हो, वह काम अपनी मर्जी या अपने विवेक से करने में इन्हें कतई कोई रुचि नहीं होती है।
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ये तो भला हो प्रशासन का कि स्टॉफ के सर्विस रिकॉर्ड और पीएफ आदि पर जीएम, सीआरबी की दृष्टि से डरकर ये उस पर कुछ काम कर लेते हैं, अन्यथा या तो ये काम कन्हैया जैसे डिफाल्टर स्टॉफ का सही से करते हैं, या जिसने इनकी मुट्ठी गर्म कर दी हो, उसका करते हैं।
अधिकारी वर्ग इनसे सबसे ज्यादा दुःखी है, क्योंकि उसका कोई यूनियन, कोई रखवाला, कोई माई-बाप नहीं है। कई अधिकारियों ने बातचीत में बड़े क्षोभ के साथ कहा कि “उनके पीएफ से लेकर लीव एकाउंट तक गड़बड़ रखे जाते हैं। आप जब तक खुद इसके पीछे नहीं पड़ोगे, तब तक इसे न तो ये ठीक करेंगे और न ही अपडेट करेंगे।”
वह कहते हैं कि कार्मिक विभाग से आपका कोई भी काम हो, ये आपको ही काम पर लगा देंगे कि अपना सारा पेपर लाओ, जो इनके पास है, वो भी, और जो नहीं है, वो भी। जो-जो संबंधित सर्कुलर हैं, उन सबकी भी कॉपी लाओ और जब आप सब कर देंगे, ला देंगे, तो भी उस पके-पकाए काम को भी आगे बढ़ाने में आपसे हजार बार चिरौरी-विनती कराएंगे और कुछ “दक्षिणा” पाने की अपेक्षा करते हुए साथ में ऊपर से भारी एहसान भी जताएंगे।
काम न होने के पचास नियम-बहाने बताएंगे उनको जिनसे कुछ नहीं मिलना है, लेकिन जिनसे लात-गाली खाने का डर है, या मुद्रा मिलना है, उनके काम के लिए कोई नियम नहीं है। कार्मिक विभाग भी एकाउंट्स की ही तरह पूर्णतः बाबू ओरिएंटेड हो गया है।
कार्मिक अधिकारियों के लिए पैसे से लेकर शक्ति का भी स्रोत बाबू ही होता है! इसलिए कुछेक बेहतरीन ऑफिसर्स के व्यतिरिक्त कोट-टाई पहने अधिकांश कार्मिक अधिकारी अपने मातहत बाबुओं और प्रमोटियों की कठपुतली बने नजर आते हैं।
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इनके यहां सबसे सफल सीनियर डीपीओ वह होता है, जो डिवीजन ऑफिस में ही डीआरएम साहब का भव्य बर्थडे मना दे, सीपीओ साहब के भी बर्थडे में अपने और उनके कार्यालय को बैलून से सजा दे आदि। इस चाटुकारिता में प्रमोटी कार्मिक अधिकारियों को बड़ी महारत हासिल है।
अपने काम के अलावा जितने फालतू गैरजरूरी चाटुकारिता वाले काम हैं, आज की तारीख में कुछेक को छोड़कर लगभग सभी कार्मिक अधिकारी वही करने में अपनी आत्मश्लाघा समझते हैं। इसके कारण इनको दिए गए सारे कामों का सत्यानाश हो रखा है।
अभी हाल में ही डीआरएम का कार्यकाल पूरा करके आए एक वरिष्ठ अधिकारी का यह कहना था कि अब कार्मिक अधिकारी बाकी ब्रांच अफसरों की स्मूथ वर्किंग में भी रोड़ा बनते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि विगत कुछ समय में ये एक नई परंपरा शुरू कर दिए हैं, वह यह कि दूसरे ब्रांच अफसरों के एस्टेब्लिशमेंट पावर का पीछे से अतिक्रमण करने लगे हैं।
वह कहते हैं कि ब्रांच अफसरों के ट्रांसफर ऑर्डर्स को ये जानबूझकर लटकाते हैं, जिसके पीछे इनका मूल उद्देश्य स्टॉफ को यह संदेश देना होता है कि अगर मनचाही ट्रांसफर-पोस्टिंग चाहिए, तो तुमको मेरे पास आना पड़ेगा, और नहीं भी चाहिए, तो भी मेरे पास आना पड़ेगा।
एक समझदार डीआरएम और जीएम इनकी इस प्रवृत्ति पर नकेल डालकर इन्हें इनकी वास्तविक स्थिति में रखता है, जिससे मेन स्ट्रीम डिपार्टमेंट्स के कामों में व्यवधान न आए।
रेल के अधिकांश लोगों का मानना है कि ये लोग नारद का काम करते हैं। यूनियनों को इतना सिर चढ़ाकर रखते हैं कि डीआरएम/जीएम की नजर में इनका इम्पोर्टेंस बना रहे और बाकी लोग भी इनको अधिकारी मानते रहें।
कहते हैं लखनऊ में यूनियन के अधिवेशन में रेलमंत्री पीयूष गोयल की ऐतिहासिक बेइज्जती, रेलवे बोर्ड और दिल्ली डिवीजन में उस समय पदस्थापित कुछ कुटिल कार्मिक अधिकारियों के इशारे पर पूरी रणनीतिक (स्ट्रेटेजिकली) रूप से करवाई गई थी यूनियन के नुइसेंस और कार्मिक विभाग के औचित्य का अहसास कराने के लिए। हालांकि कार्मिक अधिकारियों के उस कोर ग्रुप के कुछ अधिकारी रेलमंत्री के प्रकोप की जद में भी आए थे, लेकिन फिर हाथ-पांव जोड़ कर बच गए।
भारतीय रेल में कार्मिक विभाग को बनाया ही इसलिए गया और 1980 में आईआरपीएस सेवा की शुरुआत ही इसलिए की गई, ताकि कर्मचारी अधिकारी सिर्फ काम करें और उन्हें नियमानुसार अपने अधिकार, सुविधा, प्रोन्नति, इन्क्रीमेंट, लीव रिकॉर्ड, पीएफ, पेंशन इत्यादि के लिए परेशान न होना पड़े। वे सिर्फ काम करें, क्योंकि यह सब करने के लिए ही कार्मिक विभाग और आईआरपीएस कैडर बनाया गया था।
लेकिन ईमानदारी से यदि देखा जाए तो वास्तव में धरातल पर उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो पाई है। रेल कर्मचारियों की परेशानी ये क्या दूर करेंगे, जब ये खुद समूची व्यवस्था के लिए आज एक बड़ी परेशानी बन गए हैं। जो कर्मचारी, अधिकारी रिटायरमेंट के नजदीक है, वही इस अनुभव को ज्यादा बेहतर बता सकते हैं कि इनकी अराजकता और उच्च स्तर की अनप्रोफेशनल (अव्यावसायिक) कार्यशैली से वे कितने हदस में रहते हैं।
कुछ कार्मिक अधिकारी तो इतने बड़े गिद्ध बन चुके हैं कि इन्होंने अखिल भारतीय स्तर पर अनुकंपा आश्रित बहाली को अपनी संविधान प्रदत उगाही और दैहिक-भौतिक शोषण का माध्यम बना लिया है। यह मानते हैं कि नौकरी ये देते हैं।
कई आईआरपीएस अधिकारी खुलेआम कहते हैं कि “नौकरी रेल नहीं, आईआरपीएस अधिकारी देता है। इसलिए भले ही तुम्हारे पिता या पति मर गए हों, लेकिन यह तुम्हारा राइट (अधिकार) नहीं बनता है कि तुम्हें नौकरी मिलेगी ही, यह तो हम डिसाइड करेंगे कि तुम्हें मिलेगी कि नहीं।”
इनके एजेंट, जो आम तौर पर कोई घुटा वेलफेयर इंस्पेक्टर होता है, बकायदा आश्रित को कन्विंस करता है कि “जब तुम्हें पिता/पति के मरने के बाद 25/30 लाख मिला है, तो उसमें से 10% देकर नौकरी लेने में तुम्हारा क्या जाता है, इतना तो तुम एक साल में ही कमा लोगे, वरना सालों चक्कर लगाना पड़ सकता है, चप्पल-जूते घिसने पड़ सकते हैं, जिसमें तुम्हारे समय का और इन्क्रीमेंट दोनों का नुकसान होगा।” अब मरता क्या न करता, मृत कर्मचारी का आश्रित वो सब करने को तैयार हो जाता है, जो कार्मिक अधिकारी और उसके एजेंट चाहते हैं।
कोई भी जीएम या डीआरएम भले ही कितना भी ईमानदार और कर्मचारियों-अधिकारियों के वेलफेयर को लेकर सजग रहता हो, उसकी भी नाक के नीचे ये अपना संस्थागत भ्रष्टाचार जारी रखते हैं।
कर्मचारियों के कुछ मामले यूनियनें उठा भी देती हैं, लेकिन अधिकारियों की स्थिति तो और भी दयनीय है, क्योंकि उनके लिए अभी तक पीएनएम जैसा कोई मैकेनिज्म विकसित नहीं किया गया है, जिसमें रेलमंत्री, सीआरबी/सीईओ, जीएम और डीआरएम आदि आवधिक कार्यालयीन बैठक करके अधिकारियों की ग्रीवांसेस को सुनकर बेलगाम पर्सनल और एकाउंट्स डिपार्टमेंट को यथोचित रूप से टाइट कर सकें।
इनके लिए कोई काम समयबद्ध नहीं होता है कि कितने दिन में कर्मचारी/अधिकारी के किसी भी तरह के आवेदन या अन्य मामले निस्तारित कर दिए जाएंगे? और करके उसका कम्प्लायंस उस अधिकारी/कर्मचारी तक कब तक पहुंचाएंगे, क्योंकि यही तो इनका काम है, जो ये कभी नहीं करते हैं?
जबकि वास्तव में होता यह है कि ये उसी अधिकारी/कर्मचारी को पहले हजार बार दौड़ाएंगे, फिर उसी से सारे डाक्यूमेंट्स इकट्ठा करवाएंगे, भले ही वे सारे डॉक्यूमेंट्स पहले से ही इनके यानि कार्मिक विभाग के पास मौजूद हों या खुद कार्मिक विभाग द्वारा ही जारी पत्र क्यों न हों।
फिर जब आप सब दे देंगे, तो हाथ जोड़कर दीनभाव से बाबू, एपीओ और बड़े बाबुओं के पास थोड़ा जल्दी करने की चिरौरी-विनती करते रहिए। हर बार आपके सामने ही इशारे इशारे में बाबू और बड़े बाबू एक-दूसरे को देखेंगे, मानो दोनों एक-दूसरे से किसी विशेष इशारे की प्रतीक्षा कर रहें हों और जब वह घटित हो जाता है, तो आपकी फाइल चल पड़ती है।
इस पर एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना था कि “दुःख तो तब होता है जब कुछ अपवाद स्वरूप बचे क्रांतिकारी कार्मिक अधिकारी भी अपने विभाग की इस हकीकत को नकारते हैं और कई बार कैडरवाद में आकर जस्टीफाई भी करते हैं।”
वह आगे कहते हैं कि “तब लगता है कि सचमुच ये सारे कैडर खत्म कर एक ही कैडर हो जाना चाहिए, क्योंकि तब तो कोई व्यवहारिक और अपने काम को समझने वाले व्यक्ति को भी पहले की तरह कार्मिक विभाग संभालकर रेल कर्मचारियों और अधिकारियों को उनकी इस आत्मिक पीड़ा से मुक्ति दिलाएगा, जो आईआरपीएस के रहते तो कतई संभव नहीं लग रही है।”
लोग कहना शुरू कर दिए हैं कि एकाउंट्स का जो भी खुरपेंच है, वह प्रायः सरकारी मामलों में होता है और कोई निहायत ही घटिया एकाउंट्स अधिकारी व्यक्तिगत मामलों में खुरपेंच करता है, लेकिन पर्सनल (कार्मिक) वाले तो व्यक्तिगत और सरकारी दोनों मामलों में भारी खुरपेंच करते हैं।
पर्सनल के कई फायरब्रांड आईआरपीएस अधिकारी, जो आम तौर पर नए रिक्रुट के लिए आदर्श और लीजेंड माने जाते हैं, वे खुलेआम सिखाते हैं कि जिसको सबक सिखाना है, उसका सर्विस रिकॉर्ड ही गायब कर दो और पीएफ से लेकर इंक्रीमेंट, ग्रेड तक में इतनी गड़बड़ कर दो कि वह मरने तक बिलबिलाता रहेगा।
इस विषय पर तमाम रेलकर्मियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं। उनमें से एक रेलकर्मी का कहना है कि “जिस उद्देश्य के लिए कार्मिक विभाग का गठन किया गया था, उसमें पूरी तरह से विफल रहा है यह विभाग।”
उपरोक्त तमाम तथ्यों पर जब एक वर्किंग वरिष्ठ कार्मिक अधिकारी से बात की गई तो उनका स्पष्ट कहना था – कमोबेश तथ्य तो सही हैं, पर कुछ अतिरेक भी है। उनका कहना है कि रेलवे में सभी सर्विस ऑफीसर्स का पीएफ, सर्विस बुक इत्यादि एस्टेब्लिशमेंट एकाउंट्स विभाग मेनटेन करता है। यह कार्मिक विभाग के पास नहीं होता है। उन्होंने बताया कि कार्मिक विभाग सिर्फ ग्रुप ‘सी’ और ग्रुप ‘डी’ रेलकर्मियों का ही सर्विस रिकॉर्ड रखता है।
पूर्व पीसीपीओ/पूर्वोत्तर रेलवे एल. बी. राय का कहना है कि यह सही और संतुलित नजरिया नहीं है। उनका कहना है कि मुकदमों के चार क्षेत्र हैं – सेवा और सेवा शर्त, वाणिज्यिक दावे, भूमि संबंधी, आरपीयूपी से संबंधित मुकदमे – इन चारों क्षेत्रों के विश्लेषण के पश्चात ही कुछ कहना सही होगा।
उन्होंने कहा कि “सेवा संबंधी मामलों में कार्मिक और कार्यकारी विभाग दोनों की भूमिका आती है। अनुशासनिक मामलों में कार्यकारी अधिकारी की भूमिका और निर्णय बहुधा अतार्किक और भावातिरेक में होते हैं, जो कष्टकारी होते हैं। अध्ययन के पश्चात ही सही तथ्य सामने आएंगे, अन्यथा सामान्यीकरण का निर्णय अच्छे अधिकारियों को हतोत्साहित करेगा।”
उन्होंने आगे कहा कि “यहां भी कोई संतुलित अवधारणा नहीं है। यह जिस किसी सज्जन के विचार हैं, वह विभागवाद की बीमारी से ग्रसित है। ऐसा कुछ भी नहीं है कि किसी विभाग के सभी अधिकारी, या सभी कर्मचारी ईमानदार अथवा बेईमान हैं। व्यक्तिगत ईमानदारी, बेईमानी और कर्तव्यपरायणता की संभावना सभी विभागों में समान है।”
श्री राय का मानना है कि “व्यक्ति अपवाद हो सकते हैं, पर विभाग नहीं। सेवा संबंधी कार्मिक सेवाओं में सभी क्षेत्रों में गुणात्मक सुधार हुआ है। परंतु व्यक्तिगत स्वार्थवश कहीं-कहीं नुकसान को भी नकारा नहीं जा सकता।”
वह कहते हैं कि “एक संतुलित नजरिए से आलोचना सार्थक हो सकती है। जहां कमी है, भ्रष्टाचार या कठिनाई है, उसका उल्लेख है, तो अच्छाई की भी पहचान और प्रशंसा होनी चाहिए।”
बहरहाल, भारतीय रेल के कार्मिक विभाग की उपरोक्त कड़वी सच्चाई पर यदि रेल प्रशासन और केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय सहित प्रधानमंत्री कार्यालय ने समय रहते उचित संज्ञान नहीं लिया, तो कार्मिक विभाग की विसंगतियां सतह पर आ जाएंगी। इससे न सिर्फ व्यवस्था में भारी व्यवधान पैदा होगा, बल्कि सरकार एवं व्यवस्था की भी बदनामी होगी। कार्मिकों और उनके सर्विस रिकॉर्ड का जो नुकसान होगा, सो अलग!
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