विडंबना और विसंगति के मारे रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी बेचारे!
भारतीय रेल के जनसंपर्क अधिकारियों की दुर्दशा पर एक नजर
सुरेश त्रिपाठी
भारतीय रेल आज जिस ऊंचाई पर है, आए दिन जिसका सोशल मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बहुत सारा प्रचार-प्रसार होता है, इसके पीछे रेलवे में कार्यरत जनसंपर्क अधिकारियों की लगन और मेहनत का बहुत बड़ा योगदान है। रेलमंत्री तथा रेल मंत्रालय के सोशल एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रचार-प्रसार से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं, जिसे बहुत सराहा जाता है। विशेषकर प्रधानमंत्री द्वारा भी इन सभी की तारीफ की गई है।
यह सब रेलवे के जनसंपर्क अधिकारियों की देन है, जो कि अपना पूरा समय और जीवन भर रेलवे के लिए काम करते हैं तथा पूरी नौकरी के दरम्यान अपना घर-परिवार सब कुछ भूलकर भारतीय रेल के लिए प्रचार माध्यम पर दिन-रात कार्यरत रहते हैं। परंतु उन्हें अत्यंत मानसिक पीड़ाओं एवं जिल्लतों का सामना करना पड़ता है। यह बात मीडिया सहित शायद रेल प्रशासन और रेलमंत्री के संज्ञान में नहीं है।
जनसंपर्क अधिकारी, जो कि ग्रुप ‘बी’ में आते हैं, भारतीय रेल के अधिकारी होने के बाबजूद रेलवे ने आज तक इनके लिए कुछ नहीं किया। विडंबना यह है कि आज तक इन अधिकारियों का एक कैडर भी नहीं बनाया जा सका है, जिससे कि उन्हें नौकरी के दौरान यथोचित पदोन्नति मिल पाती। सब जानते हैं कि रेलवे में सभी विभागों के अधिकारियों का अपना कैडर है, यहां तक कि राजभाषा एवं आईटी विभाग के ग्रुप ‘बी’ अधिकारी भी 15 से 17 सालों में, उप मुख्य राजभाषा अधिकारी तथा सीनियर ईडीपीएम तक बन रहे हैं।
अधिकांश जनसंपर्क अधिकारी, जिन्होंने 20 से 22 वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया है, उन्हें अभी तक ग्रुप ‘ए’ का दर्जा तक नसीब नहीं हो पाया है। जब उन्हें ग्रुप ‘ए’ ही नहीं मिल पाता, तो प्रमोशन मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसीलिए कोई भी जनसंपर्क अधिकारी, मुख्य जनसंपर्क अधिकारी नहीं बन पाता। सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों को सीनियर स्केल में, वह भी एडहॉक, पदोन्नति मिल पाई है।
वहीं इसके विपरीत भारतीय रेल के सभी जोनों तथा उत्पादन इकाईयों के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी, जिनका जनसंपर्क से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं, जैसे कि ट्रैफिक सर्विस, स्टोर्स सर्विस, इलेक्ट्रिकल एवं मैकेनिकल सर्विस के अधिकारियों को मुख्य जनसंपर्क अधिकारी में पदस्थापित किया जाता है और उनके हिसाब से रेलवे का जनसंपर्क विभाग कार्य करता है।
यहां यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह अधिकारी जिसने कभी भी जर्नलिज्म, मास मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं पढ़ी, वह उन जनसंपर्क अधिकारीयों को, जिन्होंने यह सब पढ़ा-कढ़ा होता है और इसकी डिप्लोमा-डिग्री भी ली हुई होती है, उन्हें वे जनसंपर्क का पाठ पढ़ाते हैं और निर्देश देते हुए कहते हैं कि “आप लोगों को कुछ नहीं आता! जो हम बोल रहे हैं, वही करिए!” इससे रेलवे के जनसंपर्क विभाग और अधिकारियों का मनोबल रसातल में चला जाता है।
इन विषम परिस्थितियों में भी जनसंपर्क अधिकारी निष्काम भाव से रेलवे की छवि बनाता है और अपना काम यथासंभव सुचारू रूप से करने का प्रयास करता रहता है। माना कि कुछ जनसंपर्क अधिकारी आजकल के सोशल मीडिया प्रचार के आदी नहीं हैं, लेकिन वे इन सभी को पूरी तरह से सीख कर आधुनिक प्रजन्म के टूल्स अपनाते हुए रात-दिन लगे हुए हैं।
लेकिन जब कोई काम बिगड़ता है, अथवा जाने-अनजाने कहीं कोई गलती होती है, तो इन्हीं जनसंपर्क अधिकारियों को बोला जाता है कि “डैमेज कंट्रोल करो।” वाह, क्या नियम-कानून है रेलवे का। जब अच्छा होता है, तो मुख्य जनसंपर्क अधिकारी अच्छा और काबिल है! और अगर बिगड़ता है या कुछ खराब होता है, तो जनसंपर्क अधिकारी नालायक एवं निकम्मा है। इससे यह उजागर होता है कि रेलवे में जनसंपर्क विभाग कैसे कार्यरत है।
यहां एक उदाहरण देखें, हाल ही में एक मंडल में पहली श्रमिक स्पेशल ट्रेन के संचालन की योजना बनी। इसके लिए जो प्रेस विज्ञप्ति तैयार की गई उसमें संबंधित जोन के जीएम और मंडल के डीआरएम सहित सभी संबंधित ब्रांच अधिकारियों के योगदान और प्रयासों को समाहित किया गया। इस विज्ञप्ति को संबंधित ग्रुप ‘ए’ ब्रांच अधिकारी ने ‘ओके’ भी कर दिया।
जब यह विज्ञप्ति प्रेस को भेजी जाने वाली थी, तभी किसी चापलूस रेलकर्मी ने उक्त मंडल के एक प्रभावशाली नेता, जो कि सरकार में उच्च सम्मानित पद पर हैं और उस समय वह उक्त मंडल स्थित अपने आवास पर भी नहीं, बल्कि दिल्ली में थे, जिनका उक्त ट्रेन के चलने से दूर-दूर तक कोई प्रयास या सरोकार नहीं था, के कार्यालय को वह विज्ञप्ति फारवर्ड कर दी। नेता जी के कार्यालय से तुरंत डीआरएम और जीएम को फोन आ गया कि उनके नाम और योगदान का उल्लेख किए बिना ऐसी विज्ञप्ति जिसने बनाने की हिम्मत की है, उसे तुरंत निलंबित करके मेजर पेनाल्टी चार्जशीट दी जाए।
अब सभी अधिकारियों के हाथ-पांव फूल गए। वह ग्रुप ‘ए’ अधिकारी महाशय, जिन्होंने उक्त विज्ञप्ति को ‘ओके’ किया था, अपनी बात से फौरन मुकर गए और सारा दोष विज्ञप्ति बनाने वाले जनसंपर्क कर्मचारी पर मढ़ दिया। परिणामस्वरूप उक्त कर्मचारी को मेजर पेनाल्टी चार्जशीट देने का आदेश हो गया और इसकी फीडबैक नेता जी के कार्यालय को देकर अपनी-अपनी खाल बचाई गई। रीढ़विहीन रेल प्रशासन का यह एक छोटा सा उदाहरण है, जबकि ऐसी रीढ़हीनता के ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण रेलवे में भरे पड़े हैं।
अब अगर रेलवे बोर्ड की ही बात करें, तो अन्य विभागों के ग्रुप ‘ए’ अधिकारी ही जनसंपर्क का पूरा कार्य देख रहे हैं। बोर्ड में इंफर्मेशन सर्विस के रिटायर्ड अधिकारियों को रखा गया है, जिससे कि उनकी कुछ न कुछ रोजी-रोटी चलती रहे। भारतीय रेल की जोनल रेलों तथा उत्पादन इकाईयों में पहले से ही जनसंपर्क विभाग है तथा बड़ी सरलता एवं सहजता से प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है। उनके यहां से रोज-रोज प्रेस विज्ञप्ति तथा अन्य प्रचार का कार्य जोर-शोर से चलता रहता है।
परंतु रेलवे बोर्ड के अकुशल मीडिया मैनेजरों द्वारा सभी जोनल एवं उत्पादन इकाईयों के जनसंपर्क अधिकारियों को निर्देश दिए जाते हैं कि वे उनके द्वारा बताए गए तरीकों पर प्रचार करें तथा अपनी डेली रिपोर्ट भेजें, जिसे वे मंत्रीजी को पेश करेंगे। सोशल मीडिया पर रोज टविट् और रीट्विट् करने को कहा जाता है। लेकिन यह सब वह रेलवे बोर्ड से नहीं कर सकते। मतलब यह कि काम दूसरे लोग करें और रेलवे बोर्ड में बैठकर यह तथाकथित मीडिया मैनेजर उसका क्रेडिट लेते रहें। रेलवे बोर्ड में मीडिया मैनेजर बनकर ऐसे लोग प्राइवेट एजेंसीज द्वारा काम चलाकर अपना नाम कमा रहे हैं। उनका रेलवे की छवि और प्रचार-प्रसार से कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ एजेंसियों को देखना है कि किससे कितना फायदा होगा, बस उसी से काम करवाना है।
बिगड़ा हुआ है रेलवे बोर्ड ‘जनसंपर्क’ का पूरा तंत्र
जनसंपर्क अधिकारियों ने अपनी पदोन्नति के लिए क्या नहीं किया। कैट में केस किया, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक गए। वहां से सभी निर्णय उनके पक्ष में भी आए। परंतु रेलवे बोर्ड के अधिकारियों और तथाकथित मीडिया मैनेजरों को यह बात बर्दास्त नहीं हुई। कुछ जनसंपर्क अधिकारियों को किसी न किसी बहाने इसके लिए दंडित भी किया गया कि उन्होंने केस क्यों किया। कुछ को प्रमोशन दिया, परंतु चार्ज लेने नहीं दिया गया। उनके रिटायरमेंट का इंतजार किया गया।
कुछ वर्ष पहले सारे जनसंपर्क अधिकारियों को ट्रैफिक सर्विस के साथ मर्ज किया जाना था। इसके लिए रेलवे बोर्ड स्तर पर तत्कालीन एएम/कमर्शियल आर. डी. शर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन भी किया गया था। इस कमेटी ने मर्जर की सभी मॉडेलिटीज और सेलेक्शन प्रोसेस भी तैयार करके अपनी रिपोर्ट मर्जर के पक्ष में दाखिल की थी। परंतु ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों के जोनल संगठनों से ही शिकायत करवाकर इसके केंद्रीय संगठन द्वारा इस मर्जर को रुकवा दिया गया, जिसमें इसके होनहार अध्यक्ष एवं महामंत्री की देन से सभी विभागों के ग्रुप ‘बी’ अधिकारियों के लिए प्रमोशन के लिए संग्राम होता है। परंतु जनसंपर्क अधिकारियों के लिए नहीं।
जनसंपर्क अधिकारियों (पीआरओ) को भारतीय रेल के ट्रैफिक ट्रांसपोर्टेशन एंड कमर्शियल कैडर में मर्ज करने की ताजा स्थिति (स्टेटस) के बारे में आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के तहत रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) ने जो जवाब दिया है, वह इस प्रकार है –
“It has been decided by the Board (MT & MS) that in the interest of fitness of things, scheme of merger of gazetted cadre of Public Relations (PR) Department with the gazetted cadre of TT&C Department of Indian Railways, since opposed by the both the stake-holders, and also not serving any administrative interest, may be dropped.”
इस जवाब में स्पष्ट है कि ये दोनों तथाकथित स्टेक होल्डर कौन हैं? इनमें से निश्चित रूप से एक वह है जिसने उस अदालती मामले में बिचौलिए की भूमिका निभाई और मामला कोर्ट से वापस करवाया था जिसमें रेल प्रशासन की हार सुनिश्चित थी। इसमें आठ लाख की दलाली के बाद संबंधित जनसंपर्क अधिकारी को बोर्ड ने मुख्य जनसंपर्क अधिकारी का दर्जा देकर अपना पिंड छुड़ाया था। यानि इसका मतलब यह है कि जो लड़ेगा, उसी को उसका हक मिलेगा। जाहिर है कि इस मामले में ये 50-60 जनसंपर्क अधिकारी कमतर साबित हो रहे हैं।
विडंबना यह है कि जो ग्रुप ‘सी’ कर्मचारी 1998 में ग्रुप ‘बी’ अधिकारी बने थे, वह आज की तारीख में सेलेक्शन ग्रेड के ग्रुप ‘ए’ अधिकारी बने हुए हैं। ट्रैफिक वालों को 15/18 सालों में, स्टोर्स वालों को 16/17 सालों में, एकाउंट्स वालों को 18 सालों में, इलेक्ट्रिकल वालों को 15 सालों में तथा मैकेनिकल वालों को 15 सालों में ग्रुप ‘ए’ मिल जाता है। रेलवे में यह कितनी बड़ी विडंबना और विसंगति है कि जहां खलासी/हेल्पर से चतुर्थ श्रेणी में भर्ती हुआ कोई कर्मचारी अपने पैसे और पहुंच के बल पर देखते-देखते सेलेक्शन ग्रेड और सीनियर एडमिनिस्ट्रेटिव ग्रेड (एसएजी) तक पहुंच जाता है, वहीं जनसंपर्क अधिकारियों को बीस-पच्चीस सालों तक सीनियर स्केल तक भी नसीब नहीं हो पाता!
यदि देखा जाए तो रेलवे में लगभग 50/60 ही ग्रुप ‘बी’ के जनसंपर्क अधिकारी होंगे। पीयूष गोयल के रेलमंत्री बनकर आने के बाद से रेलवे की कार्य प्रणाली में काफी बदलाव हुए हैं। एक ओर कैडर रिस्ट्रक्चरिंग की बात हो रही है, तो दूसरी ओर सभी अधिकारियों और कर्मचारियों के हित के लिए रेलवे में मूलभूत परिवर्तन किए जा रहे हैं। लेकिन रेलवे बोर्ड में बैठे महानुभाव लोग सिर्फ जनसंपर्क अधिकारियों का शोषण कर रहे हैं और बदले में पूरे के पूरे जनसंपर्क अधिकारियों की जमात को एक सिरे से खत्म करने की जुगत भिड़ा रहे हैं।
अब पता चला कि रेलवे के जनसंपर्क विभाग का नया रिक्रूटमेंट रूल बनाया जा रहा है। पता नहीं यह किस विद्वान ने बनाया है। जरा इसका हिसाब-किताब देखें – पीआरओ – 52, सीनियर पीआरओ – 3, सीपीआरओ – 9। इसमें नीचे और ऊपर के पद ज्यादा तथा बीच के पद कम रखे गए हैं। जबकि कार्मिक प्रबंधन का आधारभूत नियम है कि ऊपर के उच्च पदों की अपेक्षा बीच के मध्यवर्ती पदों की संख्या हमेशा ज्यादा रहेगी। यह तब किया जा रहा है जब अभी कोर्ट केस के निर्णय के बाद सीनियर स्केल के दो पद ट्रैफिक से जनसंपर्क विभाग को वापस किए गए हैं तथा अभी-भी 6 पद और वापस लौटाए जाने हैं। बाकी पद वापस न देकर यह मूर्खतापूर्ण नियम बनाया जा रहा है, जो अदालत की अवमानना का सीधा-सीधा मामला है।
इसका मूलभूत कारण यह समझ में आता है कि कैडर रिस्ट्रक्चरिंग होने के बाद से नीचे के अधिकारियों के पद कम हो गए और ऊपर के अधिकारियों के पद ज्यादा बना लिए गए हैं। ऊपर में अधिकारियों के पास कोई काम नहीं होता, सिर्फ पद होता है। इसीलिए उनको दूसरों का काम करने की चाहत जागती है। ऐसे अधिकारी, जो अपने कैडर में किसी काम के लायक नहीं रहते, उन्हें दूसरे के काम ज्यादा लुभावने लगते हैं। ऐसे में बड़े अधिकारियों की सिफारिश पर अपने लिए मुख्य जनसंपर्क अधिकारी का पद प्राप्त करते हैं और मीडिया में रहने के लिए पहले से कार्यरत जनसंपर्क अधिकारियों का शोषण करने में जुट जाते हैं।
यही हाल रेलवे बोर्ड का भी है। दिल्ली में स्टूल-पोस्टिंग तक लेने के लिए और किसी भी पद पर कार्य करने की तैयारी दर्शाकर सिफारिश कराई जाती है। इसीलिए मक्खियां मारते बैठे हैं 5/6 साल से कुछ लोग। कुछ तो रिटायरमेंट के बाद भी बकायदा अपनी रोटी सेंक रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि उनको रेलवे बोर्ड में बैठकर उन्हें सिर्फ अपना ही उल्लू सीधा करना है। वर्षों से शोषित-पीड़ित जनसंपर्क अधिकारियों के कैरियर और भविष्य की उन्हें कोई चिंता नहीं है।
जोनल रेलों में सभी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी तथा उत्पादन इकाईयों में कार्यरत जनसंपर्क अधिकारी, उप महाप्रबंधक या महाप्रबंधक के सचिव, जो कि डिफेक्टो मुख्य जनसंपर्क अधिकारी ही होते हैं, ये सब मिलकर बोर्ड में बैठे मीडिया मैनेजरों के साथ मुख्य धारा से जुड़े रहते हैं और रेलवे के विचार को प्रवक्ता के हिसाब से मीडिया में संप्रेषित करते हैं। इससे वे मीडिया में लगातार बने रहते हैं। शायद यही आकर्षण उन्हें मुख्य जनसंपर्क अधिकारी बनने के लिए प्रेरित करता है।
उपरोक्त तमाम तथ्यों से यह पता चलता है कि इन्हीं सब कारणों से भारतीय रेल में कार्यरत ग्रुप ‘बी’ जनसंपर्क अधिकारियों में भारी रोष व्याप्त है, जिनको उनका वाजिब हक आज तक नहीं दिया गया है। भारतीय रेल में कार्यरत सभी अधिकारियों में अगर कोई सबसे उपेक्षित, शोषित और पीड़ित वर्ग है, तो वह जनसंपर्क अधिकारी का है, जो गिनती में बमुश्किल 50 या 60 ही होंगे। परंतु पूरी भारतीय रेल के प्रचार-प्रसार की बागडोर को बखूबी संभाले हुए हैं। मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (ग्रुप ‘ए’) तो भिन्न कैडर से और भिन्न प्रकार से आते हैं तथा दो-तीन वर्षों में चले जाते हैं। परंतु जनसंपर्क अधिकारी जोनल रेलों तथा उत्पादन इकाईयों में जनसंपर्क का कार्य लगातार निभाते रहते हैं।
उम्मीद की जाती है कि रेलमंत्री एवं अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड, अपना कुछ कीमती समय निकालकर रेलवे में कार्यरत जनसंपर्क अधिकारियों की फजीहत को थोड़ा समझेंगे और इस भारी विसंगति का निवारण करने का यथोचित प्रयास करेंगे।