August 3, 2020

एलडीसीई की समस्त प्रक्रिया रेलवे बोर्ड द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर संयोजित की जाए

Think from the perspective of the people and take decision on time for the benefit of them.

सिद्धांततः एलडीसीई में ऑब्जेक्टिव के बाद सब्जेक्टिव पेपर और इंटरव्यू भी होना चाहिए

सुरेश त्रिपाठी

एलडीसीई में अब मनमाने तरीके से नहीं दे पाएंगे अंक” शीर्षक से “रेलसमाचार.कॉम” पर 24 जुलाई को प्रकाशित खबर पर बहुत सटीक और तीव्र प्रतिक्रिया कई विद्वान, वरिष्ठ और अनुभवी रेल अधिकारियों ने व्यक्त की है। इनमें कार्यरत एवं सेवानिवृत्त दोनों तरह के रेल अधिकारी शामिल हैं। उनकी सबसे पहली आशंका यह है कि एलडीसीई की यह जो नई गाइडलाइंस (पत्र सं. ई(जीपी)/2018/2/31, दि. 20 जुलाई 2020) रेलवे बोर्ड द्वारा जारी की गई हैं, उनके मद्देनजर किसी बड़े खेल की भावी तैयारी लग रही है, जो भविष्य में शायद ‘व्यापम’ से भी बड़ा घोटाला साबित हो सकती है। उनकी अनुभवी प्रतिक्रियाओं और विश्लेषणात्मक तथ्यों को रेल प्रशासन के समक्ष इस उद्देश्य से यहां प्रस्तुत किया जा रहा है कि इससे उसे अपनी विभागीय चयन प्रक्रिया को फुलप्रूफ बनाने में पर्याप्त मदद मिल सकती है।

रेलवे में ग्रुप ‘सी’ से ग्रुप ‘बी’ एक बहुत बड़ी छलांग होती है और यह जिम्मेदारी भी उतनी ही संवेदनशील होती है।राज्य सरकार या भारत सरकार के किसी भी विभाग में राजपत्रित अधिकारी बनाने के लिए सिर्फ “ऑब्जेक्टिव” से ही चयन प्रक्रिया पूरी नहीं की जाती है। आरआरबी, आरआरसी, एसएससी आदि ग्रुप ‘डी’ और ‘सी’ के सेलेक्शन होते हैं, उनके लिए तो यह ठीक हो सकती है, लेकिन राजपत्रित के लिए यह प्रक्रिया बिल्कुल भी उचित नहीं कही जा सकती। आरआरबी, आरआरसी आदि की ऑब्जेक्टिव आधारित चयन प्रक्रिया ज्यादा सहज (वल्नरेबल) होती है। आए दिन इसकी खबरें हम सुनते रहते हैं। इसमें संगठित और बड़े पैमाने पर अयोग्यों की नियुक्ति की आशंका होती है।

इसीलिए राजपत्रित स्तर की परीक्षाओं के लिए स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन और संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) का सिस्टम ज्यादा बेहतर और फुल प्रूफ माना जाता है, क्योंकि तीन स्तर पर मैनेज करना किसी के लिए भी अत्यंत मुश्किल होता है।

रेलवे बोर्ड में “राजपत्रित चयन बोर्ड” बनाया जाए

अब जहां तक बात रेलवे की आंतरिक विभागीय चयन परीक्षाओं की है, तो रेलवे की ऐसी सभी परीक्षाएं, अलग-अलग विभागों और जोनल स्तर पर न कराकर इसके लिए यूपीएससी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर रेलवे बोर्ड में एक “राजपत्रित चयन बोर्ड” बनाकर कराई जानी चाहिए। इससे अलग-अलग जोनों की विभागीय चयन प्रक्रिया में जो विसंगतियां हैं, वह भी समाप्त हो जाएंगी। इसके अलावा नालायक, निकम्मे, जोड़-तोड़ करने, पैसे की बदौलत सिफारिश और पहुंच रखने वाले जो उम्मीदवार इन चयन प्रक्रियाओं में बार-बार बाधा डालते हैं, एक तरफ उनसे निपटा जा सकेगा, तो दूसरी तरफ इससे समय पर रेलवे को आवश्यक राजपत्रित अधिकारी उपलब्ध होने के साथ ही योग्य उम्मीदवारों का चयन भी सुनिश्चित हो सकता है।

इसीलिए तीन स्तरीय चयन प्रक्रिया – 1. ऑब्जेक्टिव 2. सब्जेक्टिव 3. इंटरव्यू – निश्चित रूप से होनी चाहिए और वह भी भारतीय रेल के स्तर पर। यह इसलिए भी जरूरी है, कयोंकि सिर्फ एक रेलवे ही पूरे देश में एकमात्र ऐसी संस्था है जिसमें कोई चतुर्थ श्रेणी में बहाल व्यक्ति अपनी जोड़तोड़ से मात्र 6-7 साल में तृतीय श्रेणी (ग्रुप ‘सी’) कर्मचारी बन जाता है और अगले 5 साल में वह राजपत्रित अधिकारी (ग्रुप ‘बी’) स्तर की विभागीय परीक्षा के लिए योग्य (एलिजिबल) हो जाता है।

सिर्फ रेलवे में चल रही अद्भुत व्यवस्था : खलासी को मिलता है ग्रुप ‘ए’ स्टेटस

यहां सबसे आश्चर्यजनक व्यवस्था यह भी है कि ग्रुप ‘बी’ में आने के 7-8 साल के अंदर उसे यूपीएससी से सीधी भर्ती अधिकारी – आईआरपीएस, आईआरटीएस, आईआरएसई, आईआरएएस इत्यादि – का दर्जा भी मिल जाता है। जबकि राज्यों में जो यूपीएससी के ही पैटर्न पर और उसी स्टैंडर्ड की परीक्षा से पीसीएस पास कर जो लोग सीधे ग्रुप ‘बी’ अधिकारी बनते हैं और एसडीएम, डीएसपी आदि में ज्वाइन करते हैं, उन्हें किसी भी राज्य में यूपीएससी से ग्रुप ‘ए’ का स्टेटस मिलने में कम से कम 20 साल का समय लगता है।

इस तरह से देखा जाए तो रेलवे बोर्ड द्वारा यह निर्णय भी या तो किसी पूर्व नियोजित और बहुत बड़ी साजिश के तहत लिया गया है, या फिर इसमें अपेक्षित संजीदगी के साथ रेल हित को ध्यान में रखकर पर्याप्त सोच-विचार नहीं किया गया है।

वर्तमान विभागीय चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव

अब जहां तक बात वर्तमान चयन प्रक्रिया में कमी की है, तो इसकी सबसे बड़ी कमी है यहां पूरी पारदर्शिता के साथ प्रश्न पत्र, परीक्षा हॉल की व्यवस्था, कॉपी चेक करने की गाइडलाइन, इंटरव्यू के मानक इत्यादि जानबूझकर स्पष्ट नहीं रखे गए हैं। इसके अलावा देश की सबसे बड़ी परीक्षाएं लेने वाली संस्थाओं – जैसे यूपीएससी, पीसीएस, सीबीएसई, स्टेट एग्जाम बोर्ड्स, यूनिवर्सिटी एग्जाम्स आदि – की परीक्षा प्रक्रियाओं को भी इसमें फॉलो नहीं किया जाता है। इसीलिए जब जो भी असफल और खुराफाती उम्मीदवार फेल होगा, वह पूरी प्रक्रिया को ही जब चाहे तब डिस्टर्ब कर देगा और किसी के भी ऊपर और कैसा भी आरोप लगा देगा।

सिर्फ ऐसी किसी परीक्षा में ही नहीं, बल्कि बाकी व्यवस्था में भी यह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है कि पहले तो नियम और व्यवस्था-प्रक्रिया ऐसी बनाई जाए, जो कि पूरी तरह से स्पष्ट, पारदर्शी, बिना किसी विरोधाभास के ईमानदारी से फूलप्रूफ तैयार की गई हो। इसमें इस बात को भी अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति या उम्मीदवार इसको कहां-कहां और कैसे-कैसे बदनाम अथवा दुरुपयोग (मिस्यूज) कर सकता है।

चयन प्रक्रिया में शामिल लोगों को सेफगार्ड की जरूरत

इसके साथ ही रेल प्रशासन को अपनी व्यवस्था की चयन प्रक्रिया में शामिल लोगों को किसी भी तरह के परिवाद से बचाने अथवा सेफगार्ड करने के भी नियम स्पष्ट रखने चाहिए, जैसा कि यूपीएससी, पीसीएस, या अन्य परीक्षा बोर्डों में होता है। जैसे कि यह लगभग सभी लोगों को पता है कि आज की तारीख में असली खेल क्वेश्चन पेपर (प्रश्न पत्र) सेट करने वाला ही खेलता है। जो असल खेल होता है, वह यही है, जिसमें पहले से निर्धारित उम्मीदवार को पैसे के बदले या पैरवी के दबाव में क्वेश्चन बता दिया जाता है। चूंकि यह सबसे ‘सेफ’ है और सीबीआई के अलावा अन्य कोई, चाहे वह रेलवे विजिलेंस हो, या कोई विभागीय जांच समिति, इसे सिद्ध नहीं कर सकता। सीबीआई द्वारा भी सिद्ध करने के चांस बहुत ब्राइट नहीं होते हैं, इसीलिए धड़ल्ले से इसका ‘उपयोग’ होता है।

परीक्षा कक्ष में नकल अथवा अन्य प्रकार की जोड़-तोड़ या परीक्षा के बाद कॉपी में घालमेल की बात वह लोग करते हैं जिनको क्वेश्चंस नहीं मिले होते हैं और फेल हो जाते हैं। तभी वह अपनी भड़ास निकालने के लिए परीक्षा की हर स्तर की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार, पक्षपात, विसंगति और गलतियां देखते हैं। हालांकि अपवाद स्वरूप कई बार कुछ योग्य उम्मीदवार भी इसकी बलि चढ़ जाते हैं।

एग्जाम पेपर में मेनिपुलेशन का ‘स्कोप’ नहीं बचा, तथापि…

वर्तमान में अत्यंत जोखिमपूर्ण स्थितियों को देखते हुए कोई निहायत ही बेवकूफ अधिकारी भी एग्जाम पेपर में ‘मेनिपुलेशन’ की बात नहीं सोचता होगा, न ऐसा करता होगा, और न ही अब इसका कोई ‘स्कोप’ बचा है कि कोई कॉपी में परीक्षा के बाद कुछ और लिख पाए, क्योंकि परीक्षा के तुरंत बाद और कॉपियां सीलबंद करने से पहले प्रत्येक कॉपी में हर प्रश्न के उत्तर के बाद के बचे ‘स्पेस’ को ‘क्रॉस’ कर दिया जाता है, जिससे बाद उसमें कोई एक लाइन भी न लिख पाए। सभी परीक्षा कक्षों के निरीक्षक और कोऑर्डिनेटर इस प्रक्रिया को सुनिश्चित करते हैं और “विजिलेंस कंप्लेंट माफिया” भी इससे बखूबी वाकिफ है। इसीलिए विजिलेंस का अनुभवी घाघ माफिया इंस्पेक्टर अपनी कंप्लेंट में अधिकारियों के ज्ञान के आधार पर परीक्षा कक्ष में नकल या जोड़तोड़ की बात भी जरूर लिखवाता है, जिससे कॉपी में जोड़-तोड़ की कहानी आगे बढ़ाई जा सके।

सर्वप्रथम तो कॉपियां जांचने में होने वाले विवाद और जोड़-तोड़ की संभावनाओं से सभी अधिकारी परिचित होते हैं और इसीलिए अधिकांश अधिकारी इस जांच प्रक्रिया का हिस्सा बनने से पहले दूर से ही अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। तथापि यदि जबरदस्ती यह जिम्मेदारी उन पर डाल भी दी गई, तो ज्यादातर सतर्क और समझदार अधिकारी एकलाइन से सभी उम्मीदवारों को ‘फेल’ करने में ही अपनी भलाई समझते हैं, क्योंकि तब न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी!

उत्तर पुस्तिकाओं की पुनर्जांच और कंप्लेंट माफिया

लेकिन वहीं कुछ अधिकारी ऐसे भी होते हैं, जो मजबूरी में मिली जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाते हुए कॉपी चेक करते हैं और बाद में उसका दुष्परिणाम भुगतते हैं। कई वरिष्ठ रेल अधिकारियों का कहना है कि ऐसे ही अधिकारी कंप्लेंट माफिया का शिकार बनते हैं, क्योंकि सब्जेक्टिव पेपर में मॉडल पेपर के अलावा कॉपी चेक करने वाला अधिकारी अपने अनुभव से, जानकारी से, हैंडराइटिंग से लेकर उत्तर की शैली आदि कई तथ्यों को ध्यान में रखकर मार्किंग करता है। और यह तो तय है कि हर दूसरे आदमी की मार्किंग तथा उसके द्वारा दिए गए नंबर किसी दूसरे अधिकारी से हमेशा/शार्त्तिया भिन्न होगा।

इसीलिए इसी बात का ध्यान रखकर जितने भी एग्जाम बोर्ड और संस्थाए हैं, उन्होंने अपने नियम बहुत स्पष्ट बना रखे हैं, जिससे किसी उम्मीदवार के क्लेम या कंप्लेंट करने पर उत्तर पुस्तिका की पुनर्जांच (री-चेकिंग) में कॉपी के हर प्रश्न पर दिए गए नंबरों को जोड़कर देखा जाता है और यह भी देखा जाता है कि कहीं पर दिया गया नंबर जुड़ने से तो नहीं रह गया? यदि रह गया है, तो उसे जोड़कर परिणाम बता दिया जाता है। इसी प्रकार अगर किसी प्रश्न पर परीक्षक द्वारा नंबर देना छूट गया है, तो उसे ठीक करके परिणाम निकाल दिया जाता है।

कुछ परिस्थितियों में जहां पर परीक्षार्थी यह आरोप लगाता है या आशंका जताता है कि उसने लिखा बहुत था, लेकिन उस अनुपात में उसे नंबर नहीं दिए गए हैं। तब उस कॉपी की दुबारा चेकिंग दूसरे सक्षम व्यक्ति से कराई जाती है और उसमें परिणाम कुछ भी आए, चाहे नंबर पहले से भी कम हो जाएं, तो भी वह परिणाम फाइनल होता है। कायदे से रेलवे में भी यही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, लेकिन यहां “विजिलेंस कंप्लेंट माफिया” के गाइडेंस में वैसी ही जलेबियां बनाई जाती हैं, जैसी वे चाहते हैं। नियम, तार्किक विश्लेषण और इस संबंध में दूसरी जगहों पर अपनाई जा रही रीति-नीति इत्यादि उनके लिए कोई मायने नहीं रखती।

किसी भी नौकरी या शैक्षिक परीक्षा व्यवस्था में जिनको कॉपी चेक करने की जिम्मेदारी दी जाती है, वह उनकी प्रोफेशनल कैपेबिलिटी और सभी क्रेडेंसियल्स को देख कर ही दी जाती है और उनकी गरिमा (रेपुटेशन) तथा सम्मान की रक्षा भी की जाती है।

अधिकारियों की प्रोफेशनल इंटीग्रिटी और उनकी दुर्वस्था

रेलवे में भी खासकर कॉपी चेकिंग में महाप्रबंधक सभी ऑफिसर्स में जिसके क्रेडेंशियल सबसे अच्छे होते हैं और जिनकी प्रोफेशनल इंटीग्रिटी तथा कंपीटेंसी सबसे विश्वसनीय होती है, उसे ही तमाम फीडबैक और सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर नामित करते हैं। लेकिन रेलवे में विडंबना यह होती है कि जैसे ही कंप्लेंट माफिया और विजिलेंस में उसके स्लीपर सेल्स सक्रिय होते हैं, वही ईमानदार अधिकारी तुरंत संदिग्ध और अपराधी मान लिया जाता है और व्यवस्था की पूरी सोच ही विजिलैंस माफिया/कंप्लेंट माफिया के नैरेटिव के अनुसार सेट हो जाती है। फिर भले ही अन्ततः सत्य की जीत होती हो, लेकिन तब तक उस अधिकारी की मानहानि हो चुकी होती है और आगे के लिए उसे स्पष्ट सीख भी मिल जाती है कि या तो इन माफियाओं के अनुसार चलो या इनके रास्ते से हट जाओ, भले ही पूरा सिस्टम भाड़ में चला जाए।

ऐसी स्थिति में अधिकारी को इस बात का अहसास हो जाता है कि उसने पेपर चेक करके बहुत बड़ा पाप कर दिया, क्योंकि कंप्लेंट माफिया किसी भी स्तर पर उत्तर कर कंप्लेंट करता है और आरोप लगाता है, जिसमें लोगों को चटखारे लेने का कम से कम मौका तो मिल ही जाता है। इससे अधिकारी की सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ-साथ सहकर्मियों के बीच उसकी छवि भी प्रभावित होती है, क्योंकि केस सच है या झूठ, इसमें दूसरों की कोई रुचि नहीं होती, उनको तो मजा सिर्फ इतने से ही मिल जाता है कि सामने वाला उनसे ज्यादा नहीं तो कम से कम बराबर ही गिरा हुआ जरूर है।

इसके अलावा अधिकारी के परिवार पर उसके इस “ईमानदार एडवेंचर” के कारण क्या बीतती होगी, इतनी दूर तक भी कौन सोचता है! कुल मिलाकर इस तंत्र का ताना-बाना ऐसा बुना गया है कि ईमानदारी, निष्पक्षता, निर्भीकता, कर्मठता, योग्यता इत्यादि हमेशा हासिये पर रहें और बेईमानों, फरेबियों, अवसरवादी, निक्कमे, निकृष्ट तथा अयोग्य लोगों का ही वर्चस्व बना रहे।

“विजिलेंस संरक्षित और गाइडेड कंप्लेंट माफिया” का मकसद

रेलवे में स्थिति यह है कि यहां “विजिलेंस माफिया” अपनी मर्जी से कुछ भी लिखवा देता है और जांच करने वाला उसके गाइडेंस के हिसाब से तब तक जांच करता रहता है, जब तक कि “विजिलेंस संरक्षित कंप्लेंट माफिया” का मकसद पूरा नहीं हो जाता। वह कहेगा उक्त प्रश्न में 5 अंक मिलने चाहिए थे, 10 मिलने चाहिए थे, तो 5 की जगह 3 मिला या 10 की जगह 8 मिला, या फिर 5 की जगह 7 मिला, अथवा 10 की जगह 12 मिला। और फिर उसी की मानसिकता के प्रशासन में बैठे लोग उसी के हिसाब से मामले को देखने लगते हैं।

किसी परीक्षा में या प्रायः सभी परीक्षाओं में कई बार एक ही नंबर पर कितने लोग होते हैं और एक नंबर से ही कितने रैंक का अंतर हो जाता है, इसी पर संबंधित उम्मीदवार का पास-फेल होना निर्भर करता है। उसमें इस तरह की सोच और परिवाद को रेलवे की तरह डील करने पर तो न तो कभी किसी भी एग्जाम का रिजल्ट आ पाएगा और न ही कोई एग्जाम से संबंधित व्यक्ति या कॉपी चेक करने वाला अधिकारी बिना चार्जशीट के बच पाएगा।

रेलवे की जांच पद्धति अपनाने पर यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में किसी नीचे की सर्विस पर 300 के रैंक वाला यह कह सकता है कि मेरे तक तो मार्किंग ठीक है, लेकिन मेरे से ऊपर जितने हैं, सबको पैसा लेकर ज्यादा नंबर दिया गया है, या क्वेश्चन पहले बता दिया गया था, अथवा पूरा एग्जाम हॉल बिक गया था, इसलिए मुझे आईएएस मिलना चाहिए। या फिर फेल होने वाला कोई भी उम्मीदवार इसी तरह से पूरे रिजल्ट को गलत ठहरा सकता है।

कंप्लेंट माफिया की कुंठित और भ्रष्ट मानसिकता

“कंप्लेंट माफिया की कुंठित और महाभ्रष्ट मानसिकता के लोगों का मकसद सिर्फ इतना ही होता है कि या तो लाइन उनसे शुरू हो, या फिर वे पूरी प्रक्रिया ही दूषित कर देंगे।” लेकिन रेलवे में ऐसी स्पष्ट व्यवस्था नहीं होने से “विजिलेंस संरक्षित और गाइडेड कंप्लेंट माफिया” यह खेल खूब खेलता है और कई बार पैनल भी कैंसल करवा लेता है। अधिकारियों को चार्जशीट मिलती है, सो अलग।

इस पर कार्मिक एवं अन्य विभागों के कई अनुभवी वरिष्ठ अधिकारियों का यह कहना है कि कोई भी अधिकारी अपनी नौकरी जोखिम में डालकर कुछ पैसों के लालच में अथवा किसी के दवाब में आकर पेपर में कुछ नहीं कर सकता है। उनका यह भी कहना है कि अगर कोई अधिकारी पैसा ही कमाना चाहे, तो उसके पास इसके कई सुरक्षित स्रोत और अवसर होते हैं। अधिकारियों का यह भी कहना है कि एग्जाम को फुलप्रूफ बनाने का एक तरीका यह भी हो सकता है – जिसे कई एग्जाम बोर्ड खासकर यूपीएससी फॉलो करता है – सब्जेक्टिव पेपर का मॉडरेशन। रेलवे के एग्जाम में इसे ऐसे किया जा सकता है कि एक अधिकारी के एक पेपर चेक करने के बाद कोई दूसरा अधिकारी भी उसी पेपर को पुनः चेक करे और फिर दोनों के मॉडरेशन से जो नंबर फाइनल किया जाएगा, वही अंतिम परिणाम का आधार होना चाहिए।

निश्चित है हर दूसरे अधिकारी की चेकिंग/मार्किंग में अंतर

इन विद्वान और अनुभवी अधिकारियो का कहना है कि भले ही पेपर चेक करने वाले जिन अधिकारियों की मनगढ़ंत कंप्लेंट हुई हो, अगर उसी पेपर को डीआरएम, जीएम, एसडीजीएम, पीईडी/विजिलेंस, सीआरबी या खुद रेलमंत्री अथवा सीवीसी भी चेक करेंगे, तो सबकी मार्किंग अलग-अलग ही होगी और सब पर भी “कंप्लेंट माफिया” पैसा लेकर बढ़िया से बढ़िया मेनिपुलेशन की कंप्लेंट कर सकता है और रेल प्रशासन यदि अपनी रेलवे विजिलेंस की कार्यशैली तथा परम्परा का निर्वहन करेगा, तो उस कंप्लेंट के आधार पर इन सभी को निश्चित रूप से मेजर पेनाल्टी चार्जशीट मिल ही जाएगी।

इन वरिष्ठ अधिकारियों का दावा है कि यदि उनकी इस बात पर भरोसा न हो, तो इसको उपरोक्त में से कोई भी अथॉरिटी कभी भी आजमाकर देख सकती है।

मन-मुताबिक न होने पर होती है “स्ट्रक्चर्ड कंप्लेंटबाजी”

यह बात भी सही है कि जब भी किसी विभागीय परीक्षा में विजिलेंस इंस्पेक्टर कंडीडेट होते हैं, तो उन एग्जाम्स में संबसे ज्यादा परीक्षा समिति के सदस्यों पर ये हर तरफ से दबाब डलवाते हैं और इनके मन का नहीं होने पर सबसे ज्यादा ‘स्ट्रक्चर्ड कंप्लेंटबाजी’ भी उन्हीं सदस्यों के खिलाफ होती है। 

दूसरी तरफ रिटायरमेंट के करीब पहुंचे अधिकारियों को क्वेश्चन पेपर सेट करने और विभागीय चयन की प्रक्रिया से तुरंत रोका जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कुछेक मामलों में इसकी संभावना रहती है कि पैसे के लोभ में कुछ क्वेश्चन कुछेक चुनिंदा लोगों, जिनसे डील हो गई हो, को बेच दिया जाए, या फिर उस अधिकारी के सीधेपन और अपने सचिवालय पर अतिविश्वास तथा निर्भरता के चलते उसके सचिवालय के कॉन्फिडेंसियल स्टॉफ और सेक्रेटरी, जो क्वेश्चन पेपर टाइप/प्रिंट करते हैं, क्वेश्चंस को बेच दें। इसके एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण खुद रेलवे बोर्ड के संज्ञान में पहले से ही हैं। अतः सेवाकाल के अंतिम वर्ष में और रिटायरमेंट के करीब पहुंचने वाले विभाग प्रमुखों को इस चयन प्रक्रिया से सर्वथा विलग किया जाए, इससे उनका ही भला होगा।

आमतौर पर जितने घाघ कंडीडेट होते हैं, वे परीक्षा की संभावना के आधार पर एक साल पहले से ही विभाग प्रमुख (पीएचओडी) के सेक्रेटरी और गोपनीय मामले देखने/डील करने वालों तथा टाइपिंग करने वालों की प्रदक्षिणा करने लगते हैं और अंततः उन्हें अपने चक्कर में ले ही लेते हैं।

आज की तारीख में यही सबसे सुरक्षित और एकमात्र तरीका है रेलवे की आंतरिक विभागीय परीक्षाओं में भ्रष्टाचार करने का और अयोग्य कंडीडेट्स को फायदा पहुचाने का। और हकीकत में बाकी तथ्य तो  सब सिर्फ पानी पर लाठी पीटने जैसे ही हैं।