निचले स्तर की समस्याओं पर रेल प्रशासन का कोई ध्यान नहीं
कोई सुनने वाला नहीं, कहीं नहीं हो रही है सामान्य कर्मचारी की सुनवाई
रेलवे में जो भी रोटेशनल ट्रांसफर होते हैं, यह एक सच्चाई है कि उन पर सही तरीके से अमल नहीं हो रहा है। जो भी साधारण कर्मचारी हैं, उन्हें तुरंत ट्रांसफर पर रिलीव कर दिया जाता है और जो कर्मचारी अफसर का चहेता या यूनियनों का पदाधिकारी होता है, उसे रिलीव नहीं किया जाता।
जिस जगह कर्मचारी का ट्रांसफर होता है, उस जगह की पोस्ट को 6 महीने के लिए वहीं ट्रांसफर कर दिया जाता है, जहां यूनियन का पदाधिकारी चाहता है, या वहां जिस जगह उसको भेजा जाता है।
इसके अलावा 6-8 महीने बाद या एक साल बाद जब भी पुरानी जगह पर कोई वैकेंसी होती है, तब पुनः उस पदाधिकारी को वहां एडजस्ट कर दिया जाता है। यह खेल सभी मंडलों और जोनों में पूरी शिद्दत के साथ खेला जाता है।
लेकिन जब बारी साधारण कर्मचारी की आती है, फिर वह चाहे कितनी भी परेशानी बताए, उसकी कोई नहीं सुनता, न ब्रांच अफसर न ही डीआरएम, और न ही कोई यूनियन पदाधिकारी ! इसी तरह के हर मंडल में लगभग 300-800 मामले होंगे, जिनका ट्रांसफर हुआ और आज तक वह नई जगह नहीं गए या नहीं भेजे गए।
इसी प्रकार जो भी कमाऊ पूत होते हैं, उनके लिए भी कह दिया जाता है कि उनका ट्रांसफर कर दिया गया है परंतु वास्तविकता में उसे उसी जगह दूसरी टेबल दे दी जाती है, और वह बदस्तूर वहीं काम करता रहता है।
रेलवे की छोटी डिस्पेंसरियों में कोई भी विशेषज्ञ डॉक्टर, जो हफ्ते में एक बार आया करते थे, जैसे फिजिशियन, ईएनटी, आई स्पेशलिस्ट, गाइनो, अब सब को छोटी डिस्पेंसरियों में भेजा जाना बंद कर दिया गया है।
अगर कर्मचारी खुद किसी प्राइवेट हॉस्पिटल को दिखाए और वह दवा रेलवे से लेना चाहे, तो उसे उक्त दवाईयां देने से मना कर दिया जाता है। लेकिन यही यदि किसी अफसर या यूनियन नेता की बात हो, तो तुरंत लोकल खरीद करके दे दी जाती है।
जबकि सामान्य बीमार कर्मचारी को प्राइवेट हॉस्पिटल में रेफर करने में भी भारी आनाकानी की जाती है। नीचे स्तर पर इन तमाम समस्याओं को देखने वाला कोई नहीं है। आखिर सामान्य रेल कर्मचारी कहां जाए, उसकी सुनने वाला कौन है?
निचले स्तर पर ऐसी अनगिनत समस्याएं हैं, परंतु रेल प्रशासन का ध्यान निचले स्तर पर नहीं जा रहा है। रही बात मान्यताप्राप्त रेल संगठनों की, तो उन्हें अपनी सुख-सुविधाओं के सिवा बाकी कुछ नजर नहीं आता।