निजीकरण के आईने में भारतीय रेल और आत्मनिर्भर भारत !
यह कैसा गणतंत्र है, जो शासन-प्रशासन की ऐसी बीमारियां – भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद – खत्म करने के बजाय और बढ़ा रहा है! यदि वह इतना निकम्मा है, तो बाजार, निजीकरण अपना रास्ता तो खोजेगा ही!
आजादी के बाद जैसे-जैसे “भ्रष्टाचार” बढ़ता गया, वैसे-वैसे इस “केक” में हिस्सेदारी का हक भी, क्योंकि नैतिकता राजा से शुरू होती है, रंक से नहीं! इसलिए उसी अनुपात में सरकारी विभाग विनाश की तरफ बढ़ते गए और लगातार बढ़ रहे हैं!
रेल की खबरें भी मीडिया में टीआरपी बढ़ाने का अच्छा नुस्खा है। एक्सीडेंट हो, किराए में पैसे दो पैसे की वृद्धि हो, भर्ती का कोई प्रश्न हो या निजीकरण की छोटी-मोटी अफवाह। मीडिया की आंखों में चमक आ जाती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। वर्षों से हम सुनते भी आ रहे हैं कि रेलवे भारत की लाइफ लाइन है, धमनी हैं.. आदि आदि और इतनी बड़ी इतनी तेज कि इतनी बड़ी आबादी के लिए सबसे जरूरी और विश्वसनीय यातायात का साधन है। विकास का मानदंड भी।
लेकिन अफसोस इस बात का कि हम लगातार गिरावट की तरफ बढ़ रहे हैं। पिछले वर्ष ऑपरेटिंग रेश्यो 98% रहा है, यानि ₹98 खर्च करने पर औसतन 100 रुपए की कमाई। हाथी जैसी विशालकाय, संसाधनों के बावजूद मात्र ₹2 की बचत से आप रेलवे को कैसे आधुनिक बनाएंगे? कैसे चीन-जापान की तरह भारतीय रेल 200-300 किलोमीटर प्रति घंटा चलेगी? नई पटरियां, नया विस्तार कैसे होगा? यह प्रश्न आजादी के बाद से ही दूसरे अनेक मसलों की तरह अनुत्तरित हैं!
एक दंभ जरूर है कि हम कर्मचारियों की संख्या में दुनिया के सबसे बड़े नियोक्ता हैं। सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। तो क्या रेल सिर्फ रोजगार के लिए ही बनी है?
1 जुलाई 2020 को यह घोषणा हुई कि 109 मार्गों पर प्राइवेट कंपनियां रेल चलाएंगी, सिर्फ ड्राइवर रेलवे का होगा बाकी डिब्बे, मेंटेनेंस सब कुछ प्राइवेट हाथों में, रेल विभाग को यह प्राइवेट कंपनियां कुछ किराया देंगी।
अगले दिन 2 जुलाई को रेल मंत्रालय से एक और आदेश निकला, कि इस बीच जो भी रेलवे में रिक्तियां हैं, वह अभी नहीं भरी जाएंगी, उनमें कटौती की जाएगी। सिर्फ सेफ्टी पदों को छोड़कर। बस हो गया तूफान खड़ा।
विपक्ष के नेताओं से लेकर रेल कर्मचारियों के रोष की बातें मीडिया चलाता रहा। गुस्सा आना स्वाभाविक है, विशेषकर मौजूदा कोरोना काल में जब रेलवे ने सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश में न कहीं दवाओं की कमी होने दी, न किसी माल की। और जब जरूरत हुई तो आनन-फानन में 5000 श्रमिक गाड़ियां चलाकर लगभग एक करोड़ श्रमिकों को उनके घर पहुंचाया।
यह आसान काम नहीं था। जब पूरा देश कई महीने से बंद था, तब रेल कर्मचारी फील्ड में लगातार अपने काम पर जुटे हुए थे। रेल पुलों, कोचों, पटरियों के रखरखाव जैसे काफी समय से लंबित काम भी इसी बीच पूरे किए गए। मेरी नजरों में डॉक्टर, नर्स और सिविल प्रशासन के साथ-साथ रेल कर्मचारियों को भी कोरोना योद्धा में शामिल किया जाना चाहिए था, देर अब भी नहीं हुई।
लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि एक दिन पहले जिस रेल मंत्रालय ने रेलवे में शत-प्रतिशत पंक्चुअलिटी उर्फ समयपालन का रिकॉर्ड रेलवे के इतिहास में बनाया और उसकी घोषणा की, उसके अगले ही दिन निजी रेलवे की इजाजत भी ताबड़तोड़ दे डाली। यानी एक गाल पर प्यार की थपकी तो दूसरे पर तड़ातड़ तमाचे। वास्तविक जरूरत तो इस समय की यह है कि आने वाले दिनों की चुनौतियों को देखते हुए रेल कर्मचारियों की तारीफ कर उनमें और ज्यादा उर्जा भरी जाए, विशेषकर आत्मनिर्भर भारत बनाने की घोषणाओं के बरक्स।
कोरोना विपत्ति के पूरे दौर में पक्ष-विपक्ष दोनों यह महसूस कर रहे हैं कि सरकारी तंत्र ही ऐसी चुनौतियों से सबसे सक्षम ढ़ंग से निपट सकता है, चाहे वह स्वास्थ्य सुविधाएं हों, या सरहदों पर मंडराती चीन-पाकिस्तान की चुनौतियां। ऐसे में तो रेल जैसे विभाग को और अधिक चुस्त-दुरुस्त, मजबूत और विस्तार करने की जरूरत है।
लेकिन क्या यह चुस्त-दुरुस्त सिर्फ निजीकरण से ही संभव है? क्या सरकार के मौजूदा ढ़ांचे में कोई संभावना ही नहीं बची? अभी 6 महीने पहले ही रेलवे के ढ़ांचे में कुछ बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत हुई है, जैसे रेलवे बोर्ड में आठ सदस्यों की जगह सिर्फ चार रहेंगे और इंजीनियरिंग तथा सिविल सेवाओं को मिलाकर भी एक रेलवे मैनेजमेंट सर्विस बनाने की योजना है। तीन साल पहले रेल बजट को भी मुख्य बजट में शामिल करके एक बड़ा कदम उठाया था। और भी हलचलें जारी हैं, लेकिन उनकी दिशा अभी भी धुंधली और अस्पष्ट है।
ऐसी स्थितियों में कर्मचारियों का मनोबल और कमजोर होता है, जबकि देश की जरूरतों को देखते हुए उसे और मजबूत करने की जरूरत है। इस बात को भी कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि पूरे तंत्र की सिर्फ 5% रेल में यह शुरुआत की जा रही है और कि इससे रेलवे को फायदा होगा और देश की जनता यानि यात्रियों को बेहतर सुविधाएं मिलेंगी। विश्व स्तरीय। या कम समय में यात्रा कर सकेंगे और यह केवल निजीकरण के रास्ते से ही संभव है।
इस मोड़ पर रेलवे के कुछ हिस्से को प्राइवेट हाथों में देने के निर्णय से, भूतपूर्व ही सही एक रेल कर्मचारी होने के नाते फिलहाल निजीकरण पर मेरी भी पूरी असहमति है। हालांकि अभी सिर्फ प्रतिवेदन मंगाए गए हैं, लेकिन अच्छा हो कि निजी कंपनियों की तरफ देखने से पहले रेलवे के प्रशासनिक ढांचे की कमियों को ही दूर किया जाए। मेरी असहमति विपक्ष के उन कच्चे पक्के राजनीतिक नेताओं से भी है जो अचानक ही बरसाती मेंढ़कों की तरह टर्रा रहे हैं।
रेलवे में निजीकरण का यह पहला कदम नहीं है। यूपीए एक-दो के दौरान बिहार में जो कई रेलवे कारखाने खोले गए, वे सब इसी पीपीपी मॉडल के थे। और भी कई कदमों की शुरुआत उन्हीं दिनों हुई थी। यहां तक कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिंह राव जिनका जन्म शताब्दी वर्ष भी अभी पिछले ही हफ्ते शुरू हुआ था और उनकी तारीफ में सबसे बड़ा कशीदा यही कसा जाता है कि देश उदारीकरण और निजीकरण के रास्ते की शुरुआत उन्होंने की। जिसकी वजह से आज देश कई क्षेत्रों में कुछ कुछ आधुनिक और आत्मनिर्भर हुआ है। इसलिए तमाम राजनेताओं की बातें यकीन के लायक भी नहीं है। एक तरफ आत्मनिर्भर भारत की बात और दूसरी तरफ यह निजी कंपनियां, जो सब कुछ बाहर से मंगाकर यहां जोड़-तोड़ करती हैं और मुनाफा कमाती हैं।
आईए, रेल मंत्रालय के एक कल्याणकारी विभाग रेलवे के स्कूलों की प्रयोगशाला से रेलवे में निजीकरण को समझने की कोशिश करते हैं। विशेषकर उनके लिए जो किसी न किसी पार्टी के साथ नाली-नाभि-नालबद्ध हैं और आडंबर में जीने के आदी हो चुके हैं।
किसी समय पूरे देश में रेलवे के 800 स्कूल थे। रेल कर्मचारियों की बस्तियों के बीच। खुले मैदान, अच्छी इमारतें, अच्छे शिक्षक। लाल बहादुर शास्त्री से लेकर अनेकों वैज्ञानिक इंजीनियर इन्हीं स्कूलों में पढ़े थे। अंग्रेज अपने उपनिवेश का शोषण करना जानते थे तो कल्याणकारी योजनाएं भी बनाते थे। अपने मातहत कर्मचारियों के लिए स्कूल इसीलिए खोले कि उनके बच्चों को बिना किसी चिंता के पढ़ने-लिखने आगे बढ़ने की सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हों। यहां तक कि रेल अफसरों के लिए मसूरी की पहाड़ियों में एक आलीशान रेजिडेंशियल ओक ग्रोव स्कूल भी 1888 में स्थापित किया। अपने कर्मचारियों की अगली पीढ़ियों के खातिर।
आज रेलवे में 8000 से ज्यादा तोप अधिकारी हैं। मेरा प्रश्न है कितने अधिकारियों ने ओक ग्रोव स्कूल में अपने बच्चों को भेजा है? यहां तक कि रेलवे के निचले स्तर के कर्मचारी भी अपने बच्चों को रेलवे के स्कूल में नहीं भेज रहे? पिछले 30 वर्षों में यह गिरावट बहुत तेजी से आई है जिन रेल अधिकारियों की सांस रेलवे के निजीकरण से फुल रही है, रेलवे की यूनियनें उतनी ही आराम तलब हो चुकी हैं, क्या उन्होंने ब्रिटिश विरासत की इस कल्याणकारी योजना यानि स्कूलों के बंद होने पर कोई मजबूत आवाज उठाई? क्या कभी किसी उच्च अधिकारी ने इन स्कूलों में जाकर शिक्षकों और स्कूल की परेशानियां सुनी? रेलमंत्री पुरस्कार कुछ समय पहले हर वर्ष 400-500 तक दिए जाते रहे हैं। क्या कभी किसी स्कूल शिक्षक या उनके प्राचार्य को दिया गया?
मैंने कुछ दिन रेलवे स्कूलों के प्रशासन को नजदीक से देखा है। वर्ष 2013 से 15 तक वाराणसी के डीएलडब्ल्यू स्कूल में कई विषयों के पोस्ट ग्रेजुएट टीचर (पीजीटी) के पद वर्षों तक खाली थे। वहीं के कई ट्रेंड ग्रेजुएट टीचर (टीजीटी) को प्रमोट किया जाना था। कारण पूछा, तो पता लगा कि पेपर कौन बनाए? कैसे बनाएं? उत्तर रेलवे में बरेली का एकमात्र रेलवे स्कूल बचा है। लंबी-चौड़ी जमीन है, क्या कभी उत्तर रेलवे के किसी अधिकारी ने उसकी बेहतरी के बारे में सोचा? यह चंद उदाहरण हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब यानि समूची हिंदी पट्टी में मुश्किल से कोई रेलवे स्कूल जिंदा बचा है। दो-चार हैं भी, तो वे भी मौत के कगार पर।
उन्हीं दिनों के बोर्ड एक सदस्य से जब इनकी बेहतरी के लिए कुछ अनुरोध किया, तो उनका जवाब था कि सरकारी स्कूल या रेलवे के स्कूलों में अब कौन पढ़ाता है? और हमें इनको तुरंत बंद कर देना चाहिए! आनन-फानन में ऐसी कमेटी भी बना दी जाती है, जो बॉस के मुंह को ताकते हुए तुरंत ऐसी सिफारिश भी करते हैं और बस संदेश पूरे देश को चला गया कि रेलवे के स्कूलों को बंद किया जाए। आश्चर्य यूनियनें भी चुप्पी साधे रहीं।
अभी 2 जुलाई को जो रिक्तियों को न भरने का फैसला किया गया तो कुछ रेलवे ने अगले ही दिन इस ढंग से दोहराया कि बचे-खुचे रेलवे स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 50% कम कर दी जाए। आप सब की सूचना के लिए बता दें कि रेलवे के बचे-खुचे कुछ स्कूलों में पहले से ही 50% पद खाली पड़े हैं। उन्हें न भरने की कसम खा ली है। जैसे-तैसे काम चलाया जा रहा है। दक्षिण पूर्व रेलवे में रेलवे के स्कूल बहुत अच्छे चल रहे थे। यानि कि उनमें बच्चों के दाखिले की मारामारी थी। लेकिन धीरे-धीरे वहां भी बच्चे आने इसलिए कम हो गए, कयोंकि पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं।
संतरागाछी स्कूल में 2009 से 11वीं 12वीं के लिए बायोलॉजी का शिक्षक नहीं था और कई वर्षों से रसायन शास्त्र का भी नहीं। लेकिन क्या कभी उच्च अधिकारी ने वहां जाकर उनकी खबर ली? यदि जाते भी हैं तो वे स्कूल के वार्षिक समारोह में गुलदस्ता लेने और अपनी आत्मकथा के कुछ अंश बांटने!
मैं इन सब अधिकारियों की निष्ठा, विद्वता की तारीफ करता हूं लेकिन जब शिक्षा में निजीकरण हो, तो आप चुप लगाए रहते हैं और जब अपनी सेवाओं में कटौती हो, तो आप पूरे देश को जगाना चाहते हैं। यह बात गले नहीं उतरती दोस्तों!
मेरे आकलन के अनुसार देश के पूर्वी भाग यानि पश्चिम बंगाल में खड़कपुर, कोलकाता, आसाम, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, भिलाई, जैसी जगहों में अभी भी रेलकर्मी रेलवे के स्कूलों को ही प्राथमिकता देते हैं। मुंबई के कल्याण रेलवे स्कूल ने भी अपनी प्रतिष्ठा कायम रखी है, जहां पिछले कुछ वर्षों में कल्याण रेलवे स्कूल के बच्चे न सिर्फ आईआईटी और मेडिकल में भी चुने गए हैं, बल्कि अन्य स्कूलों से नाम वापस लेकर इसमें दाखिले की लाइन में खड़े हुए हैं।
साउथ ईस्टर्न रेलवे के संतरागाछी, खड़कपुर रेलवे स्कूल से भी पिछले वर्षों में नीट परीक्षा के तहत सरकारी मेडिकल कॉलेजों में रेल कर्मचारियों के बच्चे चुने गए हैं। यानि पर्याप्त संभावनाएं हैं रेलवे स्कूलों में, बशर्ते रेल प्रशासन इन स्कूलों की तरफ कभी ध्यान भी तो दे।
हाल ही में कोरोना संक्रमित समय में मुंबई के कल्याण रेलवे स्कूल ने आगे बढ़कर तुरंत बच्चों की मदद लेकर हजारों की संख्या में मास्क बनाए, सैकड़ों लीटर सैनिटाइजर आदि तैयार करके रेल प्रशासन और रेलकर्मियों को उपलब्ध कराया। जब भी पदों की कटौती की बात होती है या जमीन बेचने की, तो सबसे पहले रेल प्रशासन का ध्यान रेलवे स्कूलों की तरफ ही जाता है।
अब धीरे-धीरे वह सरकारी अस्पतालों की तरफ भी बढ़ रहा है। जबकि कोरोना की विपत्ति में इन दोनों विभागों का सबसे अच्छा इस्तेमाल रेल और देश के हित में हुआ है और आगे भी हो सकता है।
रेलवे के अफसरों के जब भी ट्रांसफर आर्डर होते हैं, उनकी एक वास्तविक चिंता अपने बच्चों की शिक्षा और पढ़ाई के लिए होती है। वे साफ कहते हैं कि हाजीपुर में अच्छे स्कूल नहीं हैं, न सोनपुर में, न गोरखपुर में, इसीलिए उन्हें दिल्ली चाहिए या फिर मुंबई, कोलकाता। काश, वे कभी यह भी सोच पाते कि बच्चों की चिंता खलासी, कार ड्राइवर या दूसरे फील्ड कर्मचारियों की भी तो होती है?
अंग्रेजों ने इन स्कूलों को प्राथमिकता इसीलिए तो दी थी कि वे एक समान शिक्षा पा सकें और चिंतामुक्त होकर रेलवे में पूरी निष्ठा से अपना योगदान दे सकें।
मौजूदा उच्च अधिकारियों के सपने में भी कर्मचारियों के कल्याण की ऐसी बातें नहीं आतीं, वरना बोर्ड के सदस्य ऐसा नहीं कहते कि रेलवे के स्कूल बंद कर दिए जाएं। वैसे इमानदारी से ही यह उनके मुंह से निकला, क्योंकि उन्हें अब इतनी मोटी तनख्वाह मिलने लगी है और इतने ज्यादा भत्ते कि उस पैसे से वे बहुत मजे से दिल्ली के संस्कृति, मॉडर्न, डीपीएस या अशोका, जिंदल जैसे महंगे स्कूलों – यूनिवर्सिटी में अपने बच्चों को पढ़ा सकते हैं और फिर सीधे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर।
इन अमीरों में सवर्ण, दलित, सारा क्रीमी लेयर शामिल है। उन्हें अंग्रेजी चाहिए और निजी स्कूल। अपनी सरकारी यात्राओं के लिए भी उन्हें रेल नहीं चाहिए। वे प्राइवेट एयरलाइंस से जाना पसंद करते हैं। भले ही किराया कितना भी हो, क्योंकि उसमें नाश्ता अच्छा मिलता है। लेकिन अपनी नौकरी सरकारी ही चाहिए।
अपने कैडर का एक भी पद इधर-उधर होने से उनकी आत्मा हिलने लगती है। उन्हें तुरंत संविधान याद आता है। रोस्टर का एक-एक पॉइंट याद आ जाता है। सारे काम छोड़कर वकीलों की तलाश में जुट जाते हैं। कोर्ट कचहरी में मुकदमेबाजी होती है।
लेकिन इन बेचारे नौकरशाहों को क्यों दोष दिया जाए, यह तो उन सपेरों की धुन पर नाचते हैं। विपक्ष के एक नौजवान मगर पूर्व नेता ने निजीकरण के विरोध में वक्तव्य देने से पहले काश यह सोचा होता कि 10 साल तक उनकी पार्टी के जो प्रधानमंत्री रहे वे निजीकरण के सबसे बड़े पहरुए हैं। नरसिंह राव तो नाम के ही प्रधानमंत्री थे, उदारीकरण और निजीकरण की इबारत तो उन्हीं ने लिखी थी। और वे भले भी इतने हैं कि कभी उसे छुपाते भी नहीं।
तो रेलवे में यह सब शुरुआत उन्हीं दिनों पूरी रफ्तार से हो गई थी। रेलवे स्कूल सबसे कमजोर कड़ी थे, इसलिए वे लगभग 80% बंद हो चुके हैं। क्या स्कूलों के बंद होने पर आपने मीडिया की तरफ से कभी कोई बेचैनी सुनी?क्योंकि देश अमीर और गरीब में बंट चुका है। जो अमीर हैं उनके लिए अंग्रेजी और निजी स्कूल! गरीब के बच्चे के लिए सरकारी स्कूल कुछ दिन और उसके बाद वह भी रास्ता बंद।
सरकार और सरकारी स्कूलों के डूबने की कहानी लगभग एक सी ही है और वह है सरकारी नौकरी को एक ऐसे स्वादिष्ट खुशबूदार केक की तरह देखना, जिसमें सिर्फ खाने को हिस्सा चाहिए, करने को नहीं। आजादी के बाद जैसे-जैसे भ्रष्टाचार बढ़ता गया, वैसे-वैसे इस केक में हिस्सेदारी का हक भी, क्योंकि नैतिकता राजा से शुरू होती है, रंक से नहीं। इसलिए उसी अनुपात में सरकारी विभाग विनाश की तरफ बढ़ते गए और लगातार बढ़ रहे हैं।
आज हर जाति के हर विभाग में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संगठन मौजूद हैं, उनके दर्जनों प्रेसिडेंट, महासचिव, सचिव और सैकड़ों-हजारों की संख्या में अन्य पदाधिकारी हैं। काम करने के लिए किसी को जगह मिले न मिले, उनको उसी दफ्तर में अलग कमरा चाहिए नेतागिरी के लिए। यह तथाकथित राष्ट्रीय संगठनों के अलावा हैं। राष्ट्रीय यूनियन राष्ट्रीय नेताओं के इशारों पर चलती है।
रोजमर्रा के ट्रांसफर, विभागों के बंटवारे में प्रशासन की इमानदारी, पारदर्शिता किसी खूंटी पर टंगी रहती है। धीरे-धीरे एक नौजवान सरकारी दुर्ग में प्रवेश करने के कुछ ही वर्षों में किसी जाति या संगठन का सदस्य बनकर रह जाता है। भाड़ में गया उसका संविधान पढ़ना और नैतिकता की शपथ लेना।
इस तरह या तो कमीशनखोर बनिए या कमीशनवॉज। लोकनायक भवन आदि में बैठे कमीशन में दौड़ने की क्षमता रखिए। ये सब कमीशन संविधान की दुहाई देते हैं, इसीलिए संवैधानिक तरीके से “कमीशन” करते हैं हैं। यदि उनकी मर्जी से आपने ट्रांसफर/पोस्टिंग नहीं की, उनकी झूठी शिकायत पर किसी को दंड नहीं दिया, तो वह रोज आपको लोकनायक भवन की सीढ़ियों पर खड़ा रखेंगे।
प्रशासन की रीढ़ इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह कोई नैतिक स्टैंड ले ही नहीं पाता। ऐसे में क्या तो हम चीन से मुकाबला करेंगे और कौन सी विश्वस्तरीय आत्मनिर्भर रेल चलाएंगे?
रोस्टर के झगड़े और मुकदमे वादियों में कैट-हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में हजारों केस भरे पड़े हैं। हर पक्ष जर्रा जर्रा इसका जिम्मेदार है। फिर से जर्मन कवि बर्टोल्ड ब्रेस्ट के शब्दों में – “वे सब भी जिम्मेदार हैं जो यह सब देखते हुए चुप रहते हैं।” यह कैसा गणतंत्र है, जो शासन-प्रशासन की ऐसी बीमारियां – भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद – खत्म करने के बजाय और बढ़ा रहा है और यदि वह इतना निकम्मा है, तो बाजार, निजीकरण अपना रास्ता तो खोजेगा ही!
आप सब ने उस जर्मन कवि की कविता भी पढ़ी होगी जो उसने हिटलरशाही के दौर में लिखी थी –
पहले उन्होंने कम्युनिस्टों को मारा/ मैं चुप रहा/ क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था/ फिर उन्होंने सोशलिस्टों को घेरा/ मैं तब भी चुप रहा/ क्योंकि मैं सोशलिस्ट नहीं था/ अंत में मुझे घेर लिया गया/ लेकिन तब तक/ देखने वाला भी आस-पास कोई नहीं था !
रेलवे भी देश का हिस्सा है। जब निजीकरण की बाढ़ इतनी आगे बढ़ चुकी हो जिसमें बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पासपोर्ट, पैन कार्ड, सिक्योरिटी गार्ड इत्यादि पूरी तरह आ चुके हों, तो रेलवे में भी बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी? रेलमंत्री जी! बीमारी कुछ है, इलाज आप कुछ दूसरा कर रहे हैं! वक्त के साथ प्रशासनिक नीतियों को बदलिए, भ्रष्टाचार को रोकिए, जातिवाद, लालफीताशाही, निकम्मेपन पर लगाम लगाईए! रेल वह कीमती विरासत है, जो देश को आत्मनिर्भर भारत के रास्ते पर सबसे तेजी से लेकर जा सकती है!
#प्रेमपालशर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय
संपर्क: 99713 99046
ईमेल: ppsharmarly@gmail.com
वेबसाइट: www.prempalsharma.com