त्रिभाषा-नीति पर नई सरकार को खरा उतरना होगा !

अपनी मातृभाषा में होनी चाहिए पहली प्राथमिक शिक्षा

आर्थिक रूप से अमीर लोगों की भाषा बन गई है अंग्रेजी

शिक्षा नीति पर नए केंद्रीय शिक्षामंत्री के नाम एक मांग-पत्र

प्रेमपाल शर्मा

खुशी की बात यह है कि 30 मई को नई सरकार के शपथ ग्रहण करने से पहले ही 100 दिन के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उसमें शिक्षा भी शामिल की गई है. उसी के अनुरूप 31 मई को नए केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निषंग’ के कार्यभार संभालते ही सुझाव और विमर्श के लिए कस्तूरीरंगन रिपोर्ट देश के सामने रख दी गई है. इस रिपोर्ट में भी मोटा-मोटी उन्हीं बातों को पुनः दोहराया गया है जिन्हें इससे पहले पूर्व कैबिनट सचिव सुब्रमणियन ने अपनी विस्तृत सिफारशों में कहा था.

पहली प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में हो, अंग्रेजी लादी नहीं जाए, उन विकसित देशों से भी हमें सीखना चाहिए जो अपनी भाषा के बूते विज्ञान और तकनीक में हमसे बहुत आगे हैं. समिति का महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि अंग्रेजी आर्थिक रूप से अमीर लोगों की भाषा बन गयी है और वे सत्ता एवं व्यवस्था पर अपनी पकड़ के बूते सारे समाज और भारतीय भाषाओं को हासिए पर धकेल रहे हैं. सभी नौकरियों में अंग्रेजी की प्राथमिकता ने पूरी युवा पीढ़ी को निरुत्साहित किया हुआ है.

एक सच्चे लोकतंत्र के नाते यह मौका है कि वे हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के पक्षधर बनकर जनता की भाषा के साथ खड़े हों और पूरे उत्साह से आगे आएं. कांग्रेस हमेशा की तरह इसमें राजनीतिक दांव-पेंच खेलेगी और उसने दविड़ दलों के साथ यह खेल शुरू भी कर दिया है. वाम दलों की नियति केंद्र सरकार के अंध विरोध के चलते अवसरवाद की है. वाम दल बंगाल और केरल में अपनी भाषाओं की वकालत करते हैं, लेकिन हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी की. इसी का अंजाम है कि हिंदी का अधिकांश परजीवी लेखक अपने विनाश को देखते हुए भी चुप्पी साधे रहता है. यह खेल अब बंद होना चाहिए और रास्ट्रीय हित में त्रिभाषा सूत्र को सच्चे मन से पूरे भारत में लागू किया जाए.

देखा जाए तो नई सरकार और शिक्षा का नया सत्र साथ-साथ शुरू हो रहे हैं. यदि सरकार वास्तव में शिक्षा की तस्वीर बदलने के लिए गंभीर है और जनता तक उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप काम करना चाहती है, तो शिक्षा से बेहतर दूसरा मौका नहीं हो सकता. नेल्सन मंडेला से लेकर दुनिया के सभी राजनीतिक नेताओं, विचारकों ने बड़े परिवर्तन के लिए शिक्षा के महत्व को समझा है. पूरे देश में इस समय दाखिले की हलचल है स्नातक, स्नातकोत्तर, इंजीनियरिंग, कानून, प्रबंधन, डॉक्टरी आदि हर क्षेत्र में. लेकिन गौर कीजिए सभी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में दाखिले की प्रवेश परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा है.

27 मई को देश के विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा थी, लेकिन इसमें वही सफल हो सकता है जो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हो. जेएनयू दिल्ली में स्थित है चारों तरफ हिंदी भाषी राज्यों से घिरा हुआ. क्या चंपारण, छत्तीसगढ़, भुज. अजमेर, तेलंगाना, लखनऊ से लेकर लातूर का विद्यार्थी जो अपनी-अपनी भाषाओं में पढ़ा है, वह कभी जेएनयू में दाखिले के बारे में सोच सकता है?

बिहार के एक छात्र अंकित दुबे ने कुछ वर्ष पहले बताया था कि उसने बिहार से राजनीति शास्त्र ऑनर्स में स्नातक किया था. जेएनयू में दाखिले कि लिए प्रवेश परीक्षा में लगातार दो बार बैठने के बावजूद भी इसलिए सफल नहीं हुआ कि वह अंग्रेजी में उत्तर नहीं दे सकता था. हर मंच पर ऐसे विद्यार्थी आवाज उठाते, अनुरोध करते रहे हैं, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं. अच्छा हो नई सरकार न केवल जेएनयू, बल्कि दिल्ली यूनिवर्सिटी समेत सभी लॉ यूनिवर्सिटी आदि कालेजों में भी प्रवेश परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को जगह दे और अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था करे.

आश्चर्य की बात है कि कोठारी आयोग की सिफारिशों पर यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में तो भारतीय भाषाओं को वर्ष 1979 से कुछ जगह दी गई है, 40 साल के बाद दिल्ली में स्थित किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के बूते प्रवेश नहीं पाया जा सकता. इसका असर पूरे देश की शिक्षा नीति पर पड़ता है. यह अचानक नहीं है कि आज राजस्थान, उत्तर प्रदेश से लेकर देश के गांव-गांव में अंग्रेजी के नुक्कड़ स्कूल इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं सरकारी स्कूलों को तहस-नहस करते हुए. सरकार के अकेले एक कदम से ऐसी कई समस्याएं हल हो सकती हैं.

हमें नहीं भूलना चाहिए कि मोदी और शाह की जुगल जोड़ी की सफलता में सबसे अधिक योगदान उनकी अपनी भाषा हिंदी-गुजराती का सहज प्रवाह है. जन-जन तक उसी के मुहावरे और बोली में पहुंचने की क्षमता. 2014 में भी इसी भाषा की क्षमता के आधार पर उन्होंने देश का दिल जीता था. यहां केवल चुनाव जीतने का प्रश्न नहीं है. पिछली बार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही सर्वोच्च अंग्रेजी-दां नौकरशाह भी रातों-रात अपनी बात हिंदी में समझने-समझाने लगे थे.

हालांकि दिल्ली की फाइलों पर अभी-भी अंग्रेजी उसी तरह हावी है. नई सरकार से अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के लिए कुछ सार्थक कदम उठाए. संघ लोक सेवा आयोग पर अंग्रेजी का साया बहुत गहरा है. हाल ही में घोषित सिविल सेवाओं के परिणाम भारतीय भाषाओं के एकदम खिलाफ गए हैं. मात्र चार प्रतिशत. दरअसल वर्ष 2011 में तत्कालीन सरकार द्वारा सिविल सेवाओं की प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी लाद देने के दुष्परिणाम आज तक हावी हैं.

आयोग की अन्य राष्ट्रीय परीक्षाओं जैसे वन सेवा, इंजीनियरिंग सेवा, चिकित्सा सेवा में भी भारतीय भाषाओं की शुरुआत तुरंत की जाए. स्टाफ सेलेक्शन कमीशन में तो अंग्रेजी और भी ज्यादा हावी है. वरना अंग्रेजी और अमीरी के गठजोड़ से सिविल सेवाएं अंग्रेजी और अमीरी के द्वीप बनकर रह जाएंगी. क्या यह उस जनादेश के खिलाफ नहीं होगा जिस भाषा में जनता से वोट मांगे गए थे?

कस्तूरी रंगन समिति ने अपनी रिपोर्ट में इन अंग्रजीदां अमीरों की अच्छी खबर ली है. इसमें साफ कहा गया है कि भारतीय लोकतंत्र के ये सबसे बड़े दुश्मन हैं. यदि नौकरी के केंद्र में भारतीय भाषाएं आ गईं, तो पूरा परिदृश्य बदल जाएगा.

पूरे शिक्षा जगत की तस्वीर कई स्तरों पर बदलने की जरूरत है. उचित तो यही होगा कि पाठ्यक्रमों में कुछ शब्द, कुछ अध्याय बदलने के हठ से मुक्ति पाते हुए कुछ बड़े परिवर्तनों की ओर बढ़ें. हर पैमाने पर हम दुनिया के विकसित देश अमेरिका, चीन से लेकर यूरोप के मुकाबले बहुत पीछे हैं. विकास का रास्ता केवल विज्ञान की बेहतर शिक्षा से ही संभव है. वैज्ञानिक चेतना, तर्कशक्ति के बूते. अतीत के किसी कालखंड में हमारी उपलब्धियां रही होंगी, लेकिन हम बहुत दिनों तक अतीत के नशे में नहीं रह सकते. हमें तुरंत विज्ञान शिक्षा, शोध के लिए कदम उठाने होंगे. सिर्फ इंजीनियरिंग कॉलेज-संस्थान खोलना पर्याप्त नहीं है. गुणवत्ता सुधारी जाए, वरना उन्हें बंद किया जाए. ये नकली संस्थान देश की गरीब जनता को शिक्षा के नाम पर ठग रहे हैं.

अफसोस की बात है कि पिछले दिनों कॉलेज की लैबोरेट्री लगभग गायब हो चुकी हैं. न संसाधन हैं, न शोध छात्र, न ही शिक्षकों का झुकाव. मत भूलिए डीएनए के खोजकर्ता वैज्ञानिक वाटसन, डार्विन के विकासवाद को आगे बढ़ाने वाले मिलर आदि ने ऐसी खोजें अपने कॉलेज के दिनों में ही की थीं, जिन पर आगे चलकर नोबेल पुरष्कार मिले. दुनिया के सर्वश्रेस्ट 500 संस्थानों में शामिल होने की बातें भी अभी हवा में ही हैं. इसके लिए विश्वविद्यालयों में नियुक्ति प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरुरत है.

तीन वर्ष पहले पूर्व कैबिनेट सचिव टी. एस. आर. सुब्रमनियन समिति ने यूपीएससी जैसा भर्ती बोर्ड बनाने की सिफारिश की थी. उस पर तुरंत अमल करने की जरुरत है. आज हमारे उच्च शिक्षा संस्थान यदि डूब रहे हैं, तो सही भर्ती, प्रशिषण की खामियों के चलते ही. वंशवाद ने भारतीय राजनीति को जितना बरबाद किया है, इसने विश्वविद्यालयों को उससे भी ज्यादा बरबाद किया है.

पुस्तकालय भी एक महत्वपूर्ण कदम बन सकता है शिक्षा में सुधार के लिए, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में. क्या बिना पुस्तकालय के किसी स्कूल, कॉलेज या आधुनिक समाज की कल्पना की जा सकती है? पुस्तकालय गांव-शहर में खोलने की बातें तो दसकों से हो रही हैं, सरकार को इसे एक मजबूत इरादे के साथ पूरा करना होगा.

अमेरिका और दूसरे देशों में शिक्षा की बेहतरी के लिए पुस्तकालयों ने शिक्षा की बेहतरी में एक विशेष भूमिका निभाई है और निभा रहे हैं. शिक्षा की गुणवत्ता के लिए ही हमारे लाखों छात्र हर साल अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा की तरफ कूच कर रहे हैं, वह भी लाखों-करोड़ों की फीस देकर. नयी सरकार को इसे रोकने के लिए तुरंत समयबद्ध कदम उठाने होंगे.

दुनिया की सबसे ज्यादा नौजवान पीढ़ी अच्छी शिक्षा के दम पर ही देश को आगे ले जाने में समर्थ हो सकती है. नयी सरकार, नए मंत्री के सामने चुनौती बड़ी जरुर है, लेकिन जनता ने जिस विश्वास से उन्हें चुना है, उस पर खरा तो उतरना ही होगा.

लेखक प्रेमपाल शर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय और जाने-माने शिक्षाविद हैं.