प्रतियोगी परीक्षाएं और शिक्षा नीति
क्या भाषा के बिना कोई संस्कृति बची रह सकती है?
देश के लिए घातक है केंद्रीय परीक्षाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व
देश की नौकरशाही आखिर क्यों अंग्रेजी का दामन थामे रखना चाहती है?
आरक्षण पर रक्षात्मक होने के बजाय क्यों न इस पर कोई आयोग पुनर्विचार करे!
प्रेमपाल शर्मा
नई सरकार के काम संभालते ही नई शिक्षा नीति को लेकर जो बहस शुरू हुई है, उस पर लगातार विचार-विमर्श जारी है. 17-18 अगस्त को ऐसा ही मंथन ‘ज्ञानोत्सव’ के नाम से आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के सानिध्य में दिल्ली में संपन्न हुआ. ‘ज्ञानोत्सव-2’ नाम से प्रचारित पहले दिन शिक्षा की नीतियों पर बात हुई, तो दूसरे दिन का विषय था ‘प्रतियोगी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की निरंतर अनदेखी’.
थोड़ा ठहरकर विचार करें, तो शिक्षा व्यवस्था की बहुत सारी खामियां नौकरियों में भर्ती प्रक्रिया का ही परिणाम हैं. यदि नौकरियों में सिर्फ अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा, तो इसी की गूंज उच्च शिक्षा से होती हुई अब प्राथमिक शिक्षा तक पहुंचने लगी है और शिक्षा के गिरते स्तर, शोध में गिरावट के रूप में इसके दुष्परिणाम उसी अनुपात में सामने भी आ रहे हैं. यह निष्कर्ष नई शिक्षा नीति के अध्यक्ष कस्तूरी रंगन रिपोर्ट में भी उभर कर आया है, जिसमें कहा गया है कि ‘अंग्रेजी के प्रभुत्व ने नौकरशाहों के अंदर एक विशेष ‘एलीटिज्म’ पैदा किया है और जनता से दूरी भी. इसे रोकने की जरूरत है और इसे केवल भारतीय भाषाओं को यथोचित अंग्रेजी के बराबर स्थान देकर दूर किया जा सकता है’.
यह जाहिर हो चुका है कि नौकरियों की भर्ती प्रक्रिया की खामियों में सबसे प्रमुख मुद्दा अंग्रेजी का अवाँछित प्रभुत्व है. आंकड़ों की भाषा में कहा जाए, तो सबसे नवीनतम सिविल सेवा परीक्षा 2018 के परिणामों में कुल 760 की भर्ती में भारतीय भाषाओं के मात्र 40 प्रतिभागी ही चुने जा सके हैं. यानि मुश्किल से 5%. इसमें भी शुरू की 200 रैंकों में भारतीय भाषाओं का कोई भी प्रतिभागी नहीं है. अफसोस कि 5% से कम अंग्रेजी जानने वाले देश में 95% ‘अंग्रेजी दां नौकरशाहों’ का बोलबाला है. अंग्रेजी का यह रथ यहीं नहीं रुकता, प्रशिक्षण केंद्रों में भारतीय भाषाओं से चुने हुए लोगों को जो माहौल मिलता है, जिस ढंग से उन्हें एक हीनभावना से देखा जाता है, उसी का अंजाम कि वे भी अपनी अंग्रेजी सुधारने में लग जाते हैं.
भारतीय भाषाओं के पतन या कहें कि नजरअंदाज करने की यह प्रवृत्ति आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो जाती है अथवा यह कह सकते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के साथ ही भारतीय भाषाओं की भी हत्या हो गई. आईसीएस से नाम बदलकर आईएएस उर्फ भारतीय प्रशासनिक सेवाएं जरूर हुआ, लेकिन उसकी भर्ती, शिक्षा और अंदाज आजतक वैसा ही बना हुआ है. यह भी कह सकते हैं कि उसमें भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, निकम्मापन और जुड़ गया. इसमें जातिवादी बंदरबांट तो राजनेताओं ने शुरू किया, इसे जनता के करीब लाने के कदम उठाने से वे दूर ही बने रहे.
इसे सुधारने की पहली कोशिश वर्ष 1979 में तब हुई, जब दौलत सिंह कोठारी समिति की रिपोर्ट के आधार पर सभी केंद्रीय सेवाओं की भर्ती में आठवीं अनुसूची में शामिल अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं में भी उत्तर देने की छूट दी गई. डॉक्टर कोठारी का तर्क था ‘सारी प्रतिभा अंग्रेजी में ही नहीं होती. देश के जो नौजवान अपनी-अपनी भाषाओं में पढ़ रहे हैं, उन्हें भी इन उच्च सेवाओं में आने का उतना ही अधिकार है.’ होना तो यह चाहिए था कि उसके बाद यूपीएससी द्वारा संचालित भारतीय वन सेवा, इंजीनियरिंग, मेडिकल, रक्षा, आर्थिक सेवा इत्यादि सभी महत्वपूर्ण केंद्रीय परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को छूट मिलती, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा को छोड़कर आज तक किसी भी सरकार ने इस पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया, बल्कि इसका उल्टा हुआ.
वर्ष 2011 में जब सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण में ही तत्कालीन सरकार ने बिना सोचे-समझे अंग्रेजी अनिवार्य कर दी. परिणाम यह निकला कि वर्ष 2010 तक भारतीय भाषाओं के जो नौजवान 15 से 20% इन सेवाओं में चुने जाते थे, वह घटकर 3% से भी कम रह गए. इसके खिलाफ 2014 में दिल्ली और देश के दूसरे भागों में आंदोलन हुआ और मोदी सरकार के आने के बाद अगस्त 2014 में सीसैट के प्रारंभिक चरण से अंग्रेजी हटाई गई. न्यायालय ने भी संघ लोक सेवा आयोग से पूछा कि आखिर इतनी अंग्रेजी की जरूरत क्यों है? न आयोग के पास इसका कोई जवाब था, न सरकार के पास. लेकिन इससे इतना नुकसान हो चुका है कि अब धीरे-धीरे भारतीय भाषाएं गायब ही हो जाएंगी.
केवल यूपीएससी में ही नहीं, बल्कि स्टाफ सेलेक्शन कमीशन अर्थात कर्मचारी चयन आयोग में तो अंग्रेजी और भी 100 गुना ज्यादा है. जहां सिविल सेवाओं में अंग्रेजी सिर्फ क्वालीफाइंग है, वहीं कर्मचारी चयन आयोग में इसका भारांश प्रारंभिक परीक्षा में 25% और मुख्य परीक्षा में 50% है. आपको याद दिला दें कि कर्मचारी चयन आयोग लगभग एक लाख की भर्ती प्रतिवर्ष करता है और इसीलिए यहां अंग्रेजी का प्रभुत्व और भी घातक है.
एक सीधा समाधान यह उभरकर आया कि सिविल सेवा परीक्षा का पैटर्न कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षाओं में भी लागू क्यों नहीं किया जा रहा? कर्मचारी चयन आयोग में धांधली और दूसरी शिकायतों के चलते पिछले 5 वर्ष में सिर्फ दो बार भर्ती हुई है और उनके मामले भी कोर्ट में लंबित हैं. लेकिन दुखद पक्ष यह है कि वहां के अध्यक्ष को नियमों को ताक पर रखकर मानो आक्षमता के लिए सेवा विस्तार भी दे दिया गया है. बैंक भी ऐसा क्षेत्र हैं, जहां हर साल लाखों की भर्ती होती है और यहां भी अंग्रेजी वैसी ही हावी है. एक वाजिब मांग यह उठी कि देशभर के सामान्य आदमी से बातचीत करने के लिए भारतीय भाषाओं की जरूरत होती है और एक मैट्रिक पास कर्मचारी भी इस काम को आसानी से कर सकता है, तो फिर इतनी ऊंची अंग्रेजी की जरूरत किस लिए? बीबीसी संवाददाता मार्क टुली ने भारतीयों की अंग्रेजी पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि ‘ये तो शेक्सपियर-मिल्टन को अंग्रेजों से भी ज्यादा रटते और पढ़ते हैं.’
क्या लोकतंत्र के बावजूद भी ऐसी नीतियों से ज्यादातर भारतीय जनता को बाहर नहीं किया जा रहा? क्या उसे नौकरियों के लालच या दबाव के चलते अपनी भाषा-संस्कृति से दूर रखने की यह एक सोची-समझी साजिश नहीं है? क्या भाषा के बिना कोई संस्कृति बची रह सकती है?
लोकतंत्र में सरकार जन-आकांक्षाओं का दर्पण या विस्तार होती है. इस सरकार से भी लोगों की यही अपेक्षा है कि वह अंग्रेजी के इस दबदबे को तुरंत रोके. आश्चर्य की बात है, डॉक्टर कोठारी आयोग, कोठारी समिति, यशपाल समिति, टीएसआर सुब्रमनियन से लेकर कस्तूरी रंगन तक भारतीय भाषाओं के पक्ष में लगातार आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन गरीब की भाषा को कोई सुनना ही नहीं चाहता. क्या मौजूदा नौकरशाही की संवेदनशीलता, अक्षमता, जनता से दूरी और दूसरी बुराइयां सीधे इसी का दुष्परिणाम नहीं है? जब देश के प्रधानमंत्री महात्मा गांधी की तर्ज पर पूरे देश की जनता के साथ निसंकोच हिंदी या हिंदुस्तानी में संवाद कर सकते हैं और वैसा ही राज्यों के मुख्यमंत्री भी, तो देश की नौकरशाही क्यों अंग्रेजी का दामन मजबूती से थामे रखना चाहती है?
ग्लोबलाइजेशन के तर्क से अंग्रेजी की वकालत करने वाले यह भी समझ लें कि ग्लोबलाइजेशन तो चीन, जापान, इजराइल सभी देशों में आया है, तथापि उन्होंने अपनी भाषाओं को और मजबूत किया है. विदेशी भाषा के आगे उन्होंने अपने घुटने नहीं टेके. मोदी-2 ने कई लंबित समस्याओं पर ध्यान दिया है. उम्मीद है कि भारतीय भाषाओं के पक्ष में जल्दी ही कुछ ठोस नीति सामने आएगी.
दो दिन चले विमर्श में आरक्षण के एक ‘प्रायोजित’ प्रश्न के जवाब में आरएसएस प्रमुख ने सिर्फ यह कहा कि दोनों पक्ष मिल-बैठकर फैसला करें, लेकिन अखबारों की सुर्खियां में सिर्फ आरक्षण ही था. जाहिर है यह शब्द भी इस देश के विमर्श में अनटचेबल बनता जा रहा है. वैज्ञानिक तर्क पद्धति तो यही कहती है कि इस प्रश्न पर भी क्यों न कोई आयोग फिर से विचार करे. इसमें इतना उबलने या रक्षात्मक होने की क्या जरुरत है?
प्रेमपाल शर्मा, एक वरिष्ठ साहित्यकार और संयुक्त सचिव पद से सेवानिवृत्त वरिष्ठ रेल अधिकारी हैं. पता: 96, कला बिहार, मयूर विहार, फेज-1 एक्सटेंशन, नई दिल्ली-110091. संपर्क: 9971399046.