February 5, 2022

गार्ड उर्फ ट्रेन मैनेजर: भविष्य अंधकारमय, मगर रहेगा झंडा ऊंचा हमारा!

रेलवे में सभी पदों का अपना-अपना महत्व है, लेकिन यह बताने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि जिन पदों पर अकर्मण्य और अज्ञानी लोग काम कर रहे हैं, वह पद अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं और रेलवे से लगातार उनकी विदाई होती जा रही है! -एक लोको पायलट

क्या अब ‘ट्रेन सुपरिटेंडेंट’ भी ‘ट्रेन मैनेजर’ बन सकते हैं? शीर्षक से बुधवार, 2 फरवरी 2022 को प्रकाशित लेख पर जैसा कि अपेक्षित था, उससे बहुत बड़े पैमाने पर गार्डों की प्रतिक्रिया हुई है। ऐसा पहले भी एक बार हो चुका है। इससे जाहिर है कि इस कैटेगरी में न केवल बड़ी एकजुटता है, बल्कि अपने विपरीत जा रही किसी सही बात को लेकर कोहराम मचाने की भी तैयारी रहती है। इससे यह भी साबित हुआ कि मान्यताप्राप्त यूनियनों और फेडरेशनों को यह अपनी जेब में रखते हैं। लेख की प्रतिक्रिया में गार्डों के एक गैर मान्यताप्राप्त संगठन के एक बड़े नेता ने जो स्पष्टीकरण लिखकर भेजा, वही लगभग सैकड़ों गार्डों ने भी थोड़े-थोड़े हेर-फेर के साथ “रेलसमाचार” को फॉरवर्ड किया। किसी ने व्हाट्सएप पर, किसी ने ई-मेल पर, तो कुछ ने ट्विटर पर भी भद्दी भाषा में अपनी पहचान उजागर की! कुछ ने गालियां भी लिखीं हैं, तो कुछ ने देख लेने और परिणाम भुगतने की धमकी दी है, कुछेक ने कोसा भी है, तो कुछ ने लीगल नोटिस भेजे जाने की बात कही है। तथापि जितने फोन “रेलसमाचार” को गार्डों के आए हैं, उससे कई गुना अधिक इस लेख की सहमति में भारतीय रेल के रेलकर्मी, अधिकारी और उनके साथ-साथ सर्वसामान्य लोगों और यात्रियों के भी आए हैं। बहरहाल, अब गार्डों के नेताजी ने और गार्डों ने अपने पक्ष में जो स्पष्टीकरण लिखकर भेजा है, जिसमें उन्होंने अपनी विभिन्न कार्य स्थितियों का उल्लेख किया है, उनकी और अन्य लोगों की बात रखते हैं –

#RailSamachar को गार्ड उर्फ ट्रेन मैनेजर के ऊपर तकरीबन सैकड़ों टीका टिप्पणियां प्राप्त हुई हैं और अभी भी लगातार प्राप्त हो रहीं हैं। इसमें खुद गार्ड कैटेगरी से लेकर रेलवे के सभी विभागों के अधिकारी और कर्मचारी तो हैं ही, “रेलसमाचार” से जुड़े रेलवे के बाहर के बुद्धिजीवी लोग भी इस पर अपनी टिप्पणियां भेजे हैं, जिसमें रेलवे से जुड़ा व्यापारी वर्ग भी है।

मजे की बात यह है कि जहां नए गार्ड और सेवारत गार्डों का एक बड़ा समुह “ट्रेन मैनेजर” के इस नामकरण से बहुत ही प्रगल्भ अर्थात प्रफुल्लित है और इसे अपनी उपलब्धि मान रहा है, वहीं रिटायर्ड गार्डों का और अपने काम से काम रखने वाले गार्डों का ज्यादातर तबका इससे दुःखी दिख रहा है।

एक तो उनका “गार्ड” शब्द से भावनात्मक जुड़ाव इसका बहुत बड़ा कारण है, जो उनकी समाज में पहचान रहा है। दूसरा कारण उनका यह भी मानना है कि गार्डों की कोई भी मूलभूत सुविधा तो बढ़ नहीं पाई, जबकि ट्रेनें 10 गुना बढ़ गईं, लेकिन उनके अनुपात में न तो पोस्टें बढ़ाई गईं, और न ही जो वैकेंसी हैं उन्हीं को भरने का ईमानदार प्रयास किया गया।

इस सबका असर गार्डों के ऊपर काम के अतिरिक्त दबाव और छुट्टियों में कटौती के रूप में पड़ रहा है। उनका कहना है कि नेतागीरी चमकाने के लिए इस तरह की जगलरी तो ठीक है, लेकिन वस्तुतः यह इस कैटेगरी को समाप्त करने की एक सोची-समझी रणनीति है। एक अपुष्ट जानकारी के अनुसार बोर्ड द्वारा गार्डों को यह नया पदनाम अब तक की उनकी सभी रिक्तियों को तुरंत प्रभाव से सरेंडर कर दिए जाने के बदले में दिया गया है।

एक काफी प्रतिष्ठित रिटायर्ड गार्ड, जिनके बच्चे बड़े सफल रहे हैं और एक बेटा आईपीएस भी है, का कहना है कि गार्ड, टीटीई, स्टेशन मास्टर आदि शब्द इस देश की जनता की जबान ही नहीं, जीवन में रचे-बसे हैं। कई पीढ़ियों से ये शब्द आम जनता के लिए रेल की पहचान हैं। भारतीय जनमानस के लिए ये केवल पदनाम नहीं, बल्कि रेलवे के पर्यावाची शब्द रहे हैं।

उन्होंने कहा कि आज समाज में हमारा जो भी मान-सम्मान और प्रतिष्ठा है, गार्ड, टीटीई, स्टेशन मास्टर पदनाम की पहचान भारतीय जनमानस में रचे-बसे होने के कारण ही है, जिसे हमने कई दशकों की तपस्या और सेवा से ही अर्जित किया है। इन नामों का खत्म होना मतलब रेलवे का खत्म होना है। ये सारी कवायद रेलवे के निजीकरण की ओर ही इशारा कर रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश यह सब किसी को दिखाई नहीं दे रहा है।

एक रिटायर्ड जीएम, जो कि इलेक्ट्रिकल विभाग से थे, ने कहा कि स्टेशन मास्टर साहब, गार्ड बाबू, टीटीई नाम से जितना सम्मान जनता में रहा और जनता जैसे इन नामों से अपने को और रेलवे को रिलेट करती है, वैसा अब न एसडी (स्टेशन डायरेक्टर) से करती है, और न ही  ट्रेन सुपरिटेंडेंट (टीएस) या ट्रेन कैप्टन से करती है, और अब यही हाल ट्रेन मैनेजर (टीएम) का होगा, जो कि अब ट्रैकमैन (टीएम) या ट्रैक मेंटेनर (टीएम) से रिलेट किया जाएगा।

कई व्यापरियों, पार्सल/गुड्स लोडरों और रेलवे के ही दूसरे विभागों के कई लोगों की टिप्पणी इतनी तीखी और आपत्तिजनक हैं कि उन्हें सभ्य भाषा में लिखा नहीं जा सकता। यही हाल कमोबेश तथाकथित ट्रेन मैनेजर से संतुष्ट पक्ष के लोगों का भी है। जिसको एडिट करके भी नहीं लिखा जा सकता। दोनों तरह के सैकड़ों लोगों को इसीलिए ब्लाक भी करना पड़ा है।

एक गार्ड महोदय इस लेख को पूरी तरह से पक्षपाती और भ्रामक बताते हुए गार्ड से ट्रेन मैनेजर कहलाने का जबर्दस्त समर्थन करते हुए लिखते हैं, या अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि “ट्रेन मैनेजर को विभिन्न विभागों का समन्वय करना होता है और आवश्यकता के समय वह एक जिम्मेदार प्रबंधक के रूप में इन सभी विभागों के कार्यों को व्यक्तिगत रूप से निष्पादित करता है।”

अपनी बात रखते हुए ये कहते हैं, “अधिकारी पहले दिन से ही वातानुकूलित कक्षों में रहते हैं, जबकि ट्रेन प्रबंधक (चाहे वह पुरुष हो या महिला) को अपनी युवा अवस्था के 20 साल मालगाड़ियों में गलाना होता है, जहां पंखा, प्रकाश, शौचालय और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं होती हैं और उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता है! एक बीट के लिए लगातार 15 से 20 घंटे तक कार्य करना होता है। ट्रेन प्रबंधक अपने बेस स्टेशन (घर) से 72 घंटे के लिए दूर रहता है, जबकि अधिकारी पूरे साल अपने परिवार के साथ रहते हैं।”

वह लिखते हैं कि “सुबह सबसे पहले, ट्रेन प्रबंधक देश के लोगों की जरूरतों का ख्याल रखना एक सम्मान की बात समझता है, इसलिए नेचर के विरुद्ध कार्य करता रहता है, जबकि अधिकारी आराम से रात में सोते हैं। ट्रेन मैनेजर देश के लिए काम करते हैं। ट्रेन मैनेजर कैडर ही ऐसा कैडर है, जो इस डिजिटल दुनिया में भी रोशनी की सुविधा के बिना अंधेरे में कार्य करता है।”

ये महाशय अति उत्साह में अपनी यह महत्वाकांक्षा भी नहीं छुपा पाते हैं, और कहते हैं, “ट्रेन प्रबंधकों को यदि वाणिज्य ट्रेन प्रबंधकों के रूप में पुनः नामित किया जाता है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।” लेकिन इन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि गार्ड को पहले कब वाणिज्य ट्रेन प्रबंधक (ये कौन सी पोस्ट है? पता नहीं!) का काम दिया गया था? तथापि इनको सबसे ज्यादा जलन अधिकारी वर्ग से है। इस पर एक अधिकारी का कहना था कि “अधिकारी चौबीस घंटे सरकार की ड्यूटी पर होता है! जब इन्हें स्वयं अपनी जिम्मेदारियों का पता नहीं है, तब अधिकारियों की जिम्मेदारियों का अंदाजा इन्हें कैसे हो सकता है?”

एक अन्य गार्ड ने लिखा, “नया नामकरण – ट्रेन मैनेजर – हमारी पहचान है, जिसके लिए हम पिछले 17 वर्षों से विधिक ढ़ंग से मांग कर रहे थे। भारतीय रेल में वर्तमान में कितनी भी तकनीकी क्यों न आ गई हो, फिर भी गाड़ी से संबंधित किसी अस्वाभाविक घटना पर जो पहला नाम आता है, वह ट्रेन मैनेजर का ही है। अतएव रेलवे का कोई कैडर कोई विभाग नकारा हो ही नहीं सकता है।”

इनका कहना है कि “गार्ड नाम बिल्कुल ही हमारे पदनाम और कार्य के अनुरूप नहीं है, चूंकि भारतीय रेल का उद्देश्य यात्रियों के साथ-साथ अपने कर्मचारियों को भी संतुष्ट व उचित समाजिक प्रतिष्ठा देना है, इसलिए ट्रेन मैनेजर पदनाम करना आवश्यक था।” यह कहते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं है कि रेल प्रसाशन पिछले कुछ दिनों से अपने यात्रियों और कर्मचारियों के हितों को लेकर काफी सुधारात्मक हुई है और इसी सुधार के तहत पदनाम का बदलाव भी जरूरी था।”

यह गार्ड महोदय लिखते हैं, “आपके द्वारा ट्रेन मैनेजर ही नहीं वरन रेलवे बोर्ड, ट्रैफिक अधिकारी, जेडआरटीआई पर भी बिना तथ्य मिथ्या आरोप लगाए गए हैं, जिससे ये पता चलता है कि आप रेल की छवि धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं।”

इस पर #RailSamachar ने आरडीएसओ में पदस्थापित एक वरिष्ठ अधिकारी से राय जाननी चाही तो उन्होंने हंसकर कहा कि “ये पदनाम कुछ भी कर लें, चाहें तो “ट्रेन प्रधानमंत्री” ही रख लें, लेकिन बहुत जल्द यह कैडर इतिहास होने वाला है। आईओटीटी तकनीक विकसित होकर अभी पहले डीएफसीसी में लागू होने जा रही है, जिसमें ट्रेनें बिना ट्रेन मैनेजर/गार्ड के ही चलेंगी, जिससे डीएफसीसी और रेलवे को करोड़ों की बचत होगी और नेतागीरी से अलग मुक्ति मिलेगी। फिर डीएफसीसी के बाद इसको चरणबद्ध तरीके से पूरी भारतीय रेल पर लागू कर दिया जाएगा। और अगर पदनाम बदलने से कुछ विशेष होता, तो इनके ट्रैफिक अफसर जब “सुपरिटेंडेंट” से “मैनेजर” बने थे, तो कौन सा वैल्यू एडीशन हो गया, उल्टे उनकी रसूख और भी कम हो गई है।”

लखनऊ से एक वरिष्ठ पत्रकार महोदय ने लिखा है कि “रेलवे में इस तरह की बिना काम की बेगैरत नौटंकी चलती रहती है, लेकिन रेलवे का यह दुर्भाग्य है कि इसकी यूनियनों और इसके कर्मचारियों के लिए वह चीज ही मुद्दा होती है जिससे उनके जीवन में कोई वास्तविक और दीर्घावधि फायदा नहीं होना होता है। जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अब भी रेलवे के भ्रष्टाचार से त्रस्त है और किसी का पदनाम बदलने से भी उसकी इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने वाला है। हां, यह बात जरूर है कि भारी भरकम पदनाम होने से जरूरतमंद को उसके चढ़ावे का वजन भी बढ़ाना पड़ता है।”

मुगलसराय अर्थात पं दीनदयाल उपाध्याय मंडल से इस साल रिटायर होने वाले एक सीनियर गार्ड भी इस टीएम नामकरण से खुश नहीं हैं। वे इसे गार्ड का अस्तित्व खत्म करने वाला लॉलीपॉप ही मानते हैं। उनका कहना हैं कि हम लोग जिस समय जॉइन किए थे और हमसे पहले जो लोग थे, उन्होंने जो कठिनाईयां देखी हैं वह अब तो जो लोग नेतागीरी कर रहे हैं और टीएम से उछल-कूद रहे हैं, सपने में भी नहीं सोच सकते हैं। इसके बावजूद हमारी या बाकी किसी भी डिपार्टमेंट के लोगों की रेलवे के प्रति और अपने काम के प्रति जो प्रतिबद्धता, निष्ठा और अनुशासन रहा है, वह अब के लोगों में नहीं है।

उन्होंने लिखा कि, पहले हमारे लिए एसएम, गार्ड, टीटीई बनना ही बहुत बड़ी बात होती थी, इसलिए बनने के बाद काम पर ही सारा ध्यान होता था। किसी दिखावे से हम लोग दूर रहते थे। लेकिन आज तो गार्ड, एसएम, टीटीई बनना ही कौन चाहता है? सब आईएएस बनने की ही सोचते हैं, लेकिन गलती से मजबूरी से बन जाते हैं कुछ और, तभी इस तरह की ऊटपटांग बातों पर इनका ज्यादा ध्यान रहता है, लेकिन उस पद से जुड़े काम, ज्ञान, जानकारी और उस पदनाम के इतिहास तथा ऐतिहासिक महत्व से इन्हें कोई सरोकार नहीं है। आज काम पर सभी का ध्यान कम है, लेकिन बिना काम के नाम और दिखावे पर ज्यादा ध्यान है। वे आगे कहते हैं कि “आपने बात बहुत कडवी लिख दी है, लेकिन सत्य यही है।”

मुंबई के एक मैकेनिकल स्टाफ ने लिखा, “ट्रेन मैनेजर? ये मैनेजर का कौन सा काम करते हैं ट्रेन में? अगर सचमुच पूरी ट्रेन का दारोमदार किसी के द्वारा मैनेज होता है, तो वह लोको पायलट है। हजारों आदमी की जान-माल से लेकर करोड़ों के माल को वो मैनेज करता हुआ सुरक्षित पहुंचाता है। या फिर कंट्रोल ऑफिस में बैठे लोग ही सही मायने में पूरी रेल को चलाते हैं। फील्ड पर ट्रेन में किसी भी तरह की गड़बड़ी आने पर हर चीज को मैनेज करना और गंतव्य तक पहुंचाने का काम तो कंट्रोल ही करता है।”

इस स्टाफ न लिखा, “गार्ड का मतलब ट्रेन का प्रोटेक्शन करना, पीछे से गार्ड करना और वॉच करना ही है। दूसरी बात ऐक्सीडेंट या किसी अन्य आपदा के समय गार्ड पुकारने में कोई कन्फ्यूजन नहीं होता है, न रेलवे के आदमी को, न आम आदमी को। अब ट्रेन मैनेजर से सबके लिए कन्फ्यूजन होगा।”

द.पू.म.रे. से एक स्टेशन मास्टर ने फोन करके कहा कि यहां जो सबसे पहले रेलवे के “मास्टर” और “मैनेजर” कहलाए उनका तो भविष्य ही खराब कर दिया। ये तो अभी नए-नए मैनेजर बने हैं। गार्ड/ड्राइवर की तो सैलरी भी रेलवे में सबसे ज्यादा है, बाकी से 30% ज्यादा, और उसके हिसाब से ओवरटाइम अलग। 14 दिन में कोई गार्ड या ड्राइवर 104 घंटे से ज्यादा काम या तो अपनी मर्जी से करेगा या फिर ओवरटाइम लेगा, वो भी उतनी देर ही जितने घंटे वो काम करना चाहता है। निर्धारित घंटे से ऊपर उससे बिना उसकी मर्जी के कोई काम नहीं करा सकता है। बाकी समय वो अपने घर पर होता है। जिंदगी भर एक ही जगह पर या बहुत हुआ तो दो जगह पर नौकरी काट देते हैं। लेकिन एएसएम रेलवे का एक ऐसा अभागा कैडर है जो सबसे विषम परिस्थितियों में काम करता है।

उन्होंने कहा कि कई रोड साइड स्टेशनों पर बिना किसी मूलभूत सुविधा के सैकड़ों एएसएम/एसएम ड्यूटी करते हैं और कई बार शार्टेज के चलते लगातार शिफ्ट में काम करना असामान्य बात नहीं है। यहां हम ड्राइवर/गार्ड की तरह फिक्स ड्यूटी ऑवर के बाद दूसरा स्टाफ नहीं आने पर काम छोड़कर नहीं जा सकते। स्टेशन नहीं बंद कर सकते। पहले जो एक प्रोत्साहन होता था कि थोड़ा सीनियर होने के बाद किसी बड़े स्टेशन का स्टेशन मास्टर या स्टेशन मैनेजर बना दिए जाएंगे, लेकिन सरकार ने स्टेशन डायरेक्टर लाकर हमारा संपूर्ण भविष्य ही बाधित कर दिया।

इन स्टेशन मास्टर साहब का यह भी कहना था कि सरकार पदों का नाम बदलने का खेल छोड़कर सभी कर्मचारियों के लिए सही में कुछ भलाई का काम करे, जिससे उनको कैरिअर में आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध न हो और उनके कार्य तथा रहन-सहन की स्थिति में सुधार हो सके।

प.म.रे. के एक वरिष्ठ लोको पायलट को गार्डों द्वारा भेजी गई कुछ पोस्टें फॉरवर्ड करके उनकी ओपिनियन मांगी गई, तो उन्होंने लिखा कि रेलसमाचार अपने लेख में पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि तकनीकी दृष्टि से अधिकारी और कर्मचारी ही इसका अच्छी तरह विश्लेषण करने में समर्थ हैं। हम केवल उनके विचारों की यहां प्रस्तुति कर रहे हैं। फिर भी अगर इस संबंध में रेलसमाचार को गार्डों के एक बड़े तबके की ओर से बहुत सी शिकायतें, सुझाव, जानकारियां मिलीं हैं, तो यह अच्छी बात है, मेरी अपनी जानकारी के अनुसार मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि लेख में हो सकता है कि कुछ तथ्यों से गार्ड सहमत न हों, लेकिन उनके संगठन के एक बड़े नेता की ओर से जो संदेश लिखकर भेजा गया है, हम भी उससे पूरी तरह सहमत नहीं हैं, क्योंकि उसमें ट्रेन सुपरिटेंडेंट को एसी केबिन में बैठने वाला अधिकारी बताया गया है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है।

उन्होंने लिखा, ट्रेन सुपरिटेंडेंट भी एक सुपरवाइजर ग्रेड का ही कर्मचारी होता है। उसको ट्रेन की स्टार्टिंग से लेकर डेस्टिनेशन तक यात्री गाड़ियों की अनेकों जिम्मेदारियां तथा कमर्शियल स्टाफ, जिन्हें हम टीटीई कहते हैं, की अनेकों समस्याओं का निराकरण करना, उन पर अपनी पैनी नजर रखना कोई आम बात नहीं है, क्योंकि आजकल यात्री गाड़ियां आमतौर पर 22 से 24-26 डिब्बों की चल रही हैं, और एक ट्रेन सुपरिटेंडेंट इन सबकी जिम्मेदारी लगातार 24, 36, 40, 50 घंटे तक निर्वाह करता है। यदि रनिंग स्टाफ अपने घर से 72 घंटे तक दूर रहता है, जबकि वर्तमान में ऐसा कदापि नहीं है, फिर भी यदि बोर्ड के आदेशों को मान लें, तो ट्रेन सुपरिटेंडेंट को भी इतना ही और इससे ज्यादा घर से बाहर रहना होता है।

उन्होंने लिखा कि यह बिल्कुल सही है कि मालगाड़ी की ड्यूटी में गार्ड को बेहद अमानवीय स्थितियों में काम करना होता है, लेकिन यह बहुत अल्पकालीन होती है। जबकि अधिकांश समय यात्री गाड़ियों में काफी सुरक्षित और सुविधापूर्ण तरीके से बीतता है। मैं गार्ड्स और उनकी एसोसिएशन या संबंधित यूनियनों से जानना चाहूंगा कि जब वर्तमान में अधिकांश मालगाड़ियों से गार्ड हटा दिए गए हैं, ब्रेक वैन लगाया ही नहीं जाता है, गार्ड किसी इंजन में पीछे की केबिन में किसी यात्री की तरह यात्रा करते हैं। ऐसी परिस्थितियों का तथाकथित नेताओं ने कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया? या यह समझा जाए कि इंजन में बैठकर यात्रा करना गार्ड को ज्यादा सुविधापूर्ण, ज्यादा सुरक्षित तथा जिम्मेदारी से मुक्त महसूस होता है? इसीलिए इसका कोई विरोध नहीं हुआ?

उन्होंने लिखा, यदि हम सबर्बन सर्विस की बात करते हैं, तो उसमें गार्ड का कोई रोल ही नहीं है। यह बात रेल अधिकारी, कर्मचारी तथा आम नागरिक भी जानता है। जैसा कि बताया गया है कि गार्ड को 15 से 20 घंटे तक लगातार काम करना होता है, यह बात निराधार है। वह अपने स्वार्थ के चलते, खुद को दिए गए संवैधानिक अधिकार का प्रयोग ही नहीं करना चाहते, अन्यथा उन्हें 10/11 घंटे से ऊपर कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा कदापि नहीं है कि मात्र गार्ड ही नेचर के अगेंस्ट कार्य करता है, जिस भी जगह पर 24 घंटे की शिफ्ट ड्यूटी होती है, वहां का हर रेलकर्मी नेचर के अगेंस्ट कार्य करता है, और यदि इस बात को मान भी लें, तो निश्चित रूप से चालक से ज्यादा नेचर के अगेंस्ट कार्य करने वाला भारतीय रेल में कोई कैडर नहीं है।

जहां तक बिना लाइट के, बिना शौच के कार्य करने की बात है, वह मात्र मालगाड़ी पर ही देखने में आ सकती है, जिसका गार्ड के जीवन में बेहद अल्पकालीन समय होता है। जहां तक रेलसमाचार की बात है, तो देखा जाए तो रेलसमाचार रेलकर्मियों के विचारों का एक मंच है। जो संदेश मुझे प्राप्त हुआ है, उसमें पक्षपातपूर्ण और घृणास्पद लेखों को प्रकाशित करने से बचने की सलाह दी गई है। लेकिन उस संदेश में भी अन्य पदों और कैडर के लिए बेहद घृणास्पद तरीके से लिखा गया है, जो कि उचित नहीं है।

वह कहते हैं, भारतीय रेल का हर कैडर अपनी-अपनी जगह पूरी जिम्मेदारी से अपने कार्य का निर्वाह कर रहा है। सभी का अपना-अपना महत्व है। लेकिन यह बताने में भी मुझे कोई संकोच नहीं है कि जिन पदों पर अकर्मण्य और अज्ञानी लोग कार्य कर रहे हैं, वह पद अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं और रेलवे से लगातार उनकी विदाई होती जा रही है।

एक सज्जन ने व्हाट्सएप के माध्यम से इस पूरे प्रकरण पर एक कहानी के माध्यम से बड़ी सटीक टिप्पणी की है। उत्सुकतावश कॉल करने पर पहले तो उन्होंने फोन नहीं उठाया, लेकिन नंबर महाराष्ट्र का था। बाद में मेरे कई बार कॉल करने पर जब उठाया तो उन्होंने बहुत कुरेदने पर बताया कि वे दो साल पहले गार्ड से ही रिटायर हुए हैं। उनके पिताजी भी गार्ड थे। बच्चे बाहर बहुत अच्छी जगह सेटल हैं और वह अब ब्रह्मकुमारी को अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिए हैं, लेकिन उन्होंने नाम न लिखने का आग्रह किया। “रेलसमाचार” के वे सालों से पाठक रहे और अब एक पूरी तरह से नई दुनिया में आ जाने के बाद भी रेलवे से जुड़ाव के कारण लगातार “रेलसमाचार” पढ़ते हैं। गार्ड की जगह ट्रेन मैनेजर कहे जाने से वे खासे व्यथित थे।

उनका कहना था कि यह एक महान परम्परा के अंत की शुरुआत है। जब तक एक नई पीढ़ी ट्रेन मैनेजर शब्द को समझकर खड़ी हो पाएगी तब तक रेल एक नया स्वरूप ले लेगी और ट्रेन मैनेजर का अस्तित्व ही 5-10 साल में खत्म हो जाएगा। फिर तब तक अगर मेरे जैसे आदमी जिंदा रहे तो लोग पूछेंगे कि रेलवे में गार्ड नाम का भी कोई जंतु था क्या? यह मेरे लिए अपनी पहचान खोने जैसा है। और जो ट्रेन मैनेजर है ये 10 साल बाद न पोस्ट रहेगी और न नाम जानने वाला।

उनका कहना था कि दशकों की तपस्या और सेवा के बाद कोई नाम जनता की जुबान पर चढ़ता है। इसका महत्व समझे बिना लोग अपनी ही समाप्ति की शुरुआत का जश्न मना रहे हैं। उन्होंने बिहार के किसी जिले की एक वास्तविक कहानी के साथ रेलवे के इस पदनाम बदलने के खेल का निहितार्थ और परिणाम बताया।  कहानी कितनी सही है, इसके विषय में तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन कितना सटीक है, यह पाठक खुद ही समझ सकते हैं –

“बखोरन की कहानी”

एक थे बखोरन। एक गाँव के आश्रम में उनके गरीब माँ-बाप आश्रम के साधु की सेवा करते थे और मंदिर तथा आश्रम की देखभाल भी करते थे। वैसे तो  बखोरन मंदबुद्धि बालक था लेकिन माँ-बाप के संस्कार से सेवा में अद्भुत था। रात-दिन की परवाह किए बिना साधु और मंदिर की सेवा में मगन रहता था। दिनों-दिन वृद्ध हो रहे साधु उससे बड़ा स्नेह रखते थे। माँ-बाप के गुजर जाने के बाद भी आश्रम की देखभाल और साधु की सेवा मे बखोरन ने कोई कमी नहीं होने दी। आस-पास के गाँव वाले भी बखोरन को सम्मान देते थे।

समय के साथ मृत्यु को नजदीक देख एक दिन साधु ने सारे गाँव के लोगों के सामने बखोरन को बुलाकर कहा, “बेटा मैं कुछ दिन का मेहमान हूं और मैं चाहता हूं कि मेरे बाद यह मंदिर और आश्रम तुम ही संभालो। आज से तुम्हारा नाम गरीबदास होगा।” इसके कुछ समय बाद साधु का देहावसान हो गया और गरीबदास पहले की तरह समर्पण से मंदिर और आश्रम की सेवा और देखभाल संभालने लगा।

गाँव वाले और आसपास के लोग भी गरीबदास को बड़े सम्मान और श्रद्धा से देखते थे। तभी उस इलाके के कुछ भू-माफियाओं की नजर आश्रम पर पड़ी। वे लोग भक्त के वेश में गरीबदास के पास उठना बैठना शुरू कर दिए। धीरे-धीरे वे समझ गए कि यह मंदबुद्धी का है। लेकिन समस्या यह थी कि गाँव वाले गरीबदास के सीधेपन से और सेवा से बहुत प्रभावित थे। वह माफियाओं की मंशा पूरी होने में बहुत बड़ा रोड़ा थे।

धीरे-धीरे माफियाओं ने गरीबदास को बोलना शुरू किया कि देखो, आप कितने बड़े आदमी हो। फिर भी लोग आपको उतनी इज्जत नहीं देते। आपकी तो इज्जत और पूछ तो कलेक्टर जैसी होनी चाहिए। लेकिन इसमें सबसे बड़ा रोड़ा आपका नाम गरीबदास है। ये क्या नाम रखा है? एक तो गरीब और ऊपर से दास! रोज-रोज यही सुनते-सुनते गरीबदास को लगने लगा कि सचमुच बात सही है।

एक दिन गरीबदास के इर्द-गिर्द उन्हीं दुष्टों की चौकड़ी जमी थी। तभी आश्रम के सामने सड़क पर हलचल होनी शुरू हुई। पुलिस वाले व्यवस्था बना रहे थे, लोगों पर लाठी फटकारते हुए सड़क से हटा रहे थे। लोग उत्सुकता और कौतुहल से अपने-अपने घरों व दुकानों से देख रहे थे। तभी सायरन बजाती गाड़ी दिखाई दी, जो कलेक्टर की थी। कलेक्टर की गाड़ी देख दुष्ट माफिया भाग लिए। बेचारे गरीबदास को यह समझ में तो आ गया कि कोई बहुत बड़ा आदमी था, जो ये सब उससे डरकर भागे और इतनी भीड़ उसके साथ थी, लेकिन यह समझ में नहीं आया कि वह कौन था?

अगले दिन जब वही दुष्ट फिर चौकड़ी जमाने आए तो गरीबदास ने उनसे पूछ लिया कि कल वो जो आया था, वो कौन था? जिसको देख कर तुम लोग डर से भाग लिए थे?

वे बोले बाबा वही तो कलेक्टर था।

गरीबदास ने फिर पूछा, लेकिन उसमें क्या था जो तुम लोग डर से भाग गए और उसको देखने के लिए इतने लोग उतावले थे?

उनमें से एक दुष्ट बोला, — बाबा उसका नाम!
गरीबदास — क्या था? —— “कलेक्टर”

फिर उस दुष्ट ने गरीबदास की मनोदशा को भांपकर कहा, वैसे बाबा आप उससे कम थोड़े हो, लेकिन सारा खेल आपके इस नाम ने बिगाड़ रखा है – गरीबदास!

गरीबदास को आज उनकी बात सौ पते की लगी।
गरीबदास ने तत्क्षण कहा कि मेरा नाम ही “कलक्टर” कर दो। न रहेंगे दास और न रहेंगे गरीब!

दुष्टों की आँखों में चमक आ गई। उनकी महीनों की तपस्या सही होती जान पडी। उन्होंने ढ़िंढ़ोरा पिटवाकर गरीबदास का नाम “कलेक्टर” कर दिया।

अब जब भी कोई गरीबदास को कलेक्टर बोलता, तो उनकी आंखें बिना बंद हुए अपने को उस कलेक्टर के रूप में देखने लगतीं और एक जाली सा रुआब भी पूरे शरीर में अकड़न के साथ आ जाता।

अब गरीबदास अपने “कलेक्टर” नाम के अनुरूप दिखने में इतने अकड़ते चले गए कि धीरे-धीरे लोग उनसे दूरी बनाने लगे। कहां पहले गरीबदास के नाम से ही आश्रम जाना जाने लगा था। दूर-दूर तक गरीबदास की सरलता और सेवा से प्रभावित लोग आश्रम आते थे। मंदिर और आश्रम में भीड़ लगी रहती थी। गरीबदास की एक आवाज पर पूरा गाँव भागा चला आता था।

लेकिन अब गरीबदास का नाम जब से कलेक्टर हुआ, पुराने लोग उनके नाम अनुरूप बदले बर्ताव से कटने लगे थे। उनके प्रति स्वतः उत्पन्न श्रद्धा खत्म हो गई। जो नए लोग गरीबदास का नाम सुनकर आते थे, जब उन्हें पता चलता कि यहां गरीबदास बाबा नहीं कोई “कलेक्टर” है, तो वे खट्टे मन से वापस चले जाते थे। जितना गरीबदास सबसे दूर हुआ चला जाता था, दुष्टों की चौकड़ी उसकी और वाहवाही करती थी।

एक समय ऐसा भी था, जब बाबा गरीबदास फोन पर भी किसी को बोलते थे कि “मैं गरीबदास बोल रहा हूँ”, तो सम्मान के साथ वह उनके सारे काम कर देता था। लेकिन दुष्टों की चौकड़ी के जाल में गरीबदास ऐसे फंसे कि अब जब किसी को फोन भी करते और बोलते मैं कलेक्टर बोल रहा हूँ, सामने वाला कोई पागल समझकर झिड़ककर फोन काट देता था। अब हालात ऐसे हो गए कि धीरे-धीरे लोगों का मंदिर और आश्रम में आना कम हो गया। खाने के भी लाले पड़ गए। गांव वाले अब इनसे बिदकने लगे थे।

एक दिन समय देखकर दुष्टों की चौकड़ी ने जमीन के कागज पर अंगूठा लगवा लिया और उसके अगले दिन कलेक्टर साहब उर्फ गरीबदास को उनके झोले-झंटे के साथ उठाकर गाँव से बाहर फेंककर आश्रम की जमीन पर अपना दाखिल कब्जा कर लिया। अगले दिन सुबह गाँव वाले उठकर देखते हैं कि आश्रम के गेट पर “बाबा गरीबदास डेवलपर एंड कॉलोनाइजर” का बड़ा सा बोर्ड लगा है!

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1. यूपी: बिना गार्ड के ट्रैक पर नए अत्याधुनिक सिस्टम से लैस चलेंगी मालगाड़ियां, गार्ड केबिन में लगेगी डिवाइस

2.Railways conduct trials for EoTT devices to run goods trains without guards

उम्मीद है कि उपरोक्त तमाम स्पष्टीकरण से गार्डों के अहं की संतुष्टि हो जाएगी। अंत में हमारा यही कहना है कि हमारा किसी भी रेलकर्मी, किसी भी रेल अधिकारी अथवा किसी कैडर या कैटेगरी विशेष से कोई दुराव नहीं है। हमारे लिए सब समान हैं। हम किसी व्यक्ति विशेष, कैडर विशेष के लिए नहीं, बल्कि केवल व्यवस्था के हित में काम करते हैं। अतः असभ्य वर्तन, असभ्य व्यवहार और असभ्य भाषा कतई स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि हमें जड़ें खोदना बहुत अच्छी तरह से आता है।

-संपादक

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