क्या अब “ट्रेन सुपरिटेंडेंट” भी “ट्रेन मैनेजर” बन सकते हैं?
विगत कुछ वर्षों में गार्ड – रेलवे का सबसे नकारा कैडर साबित हुआ है। खासकर तब से, जब से नई-नई तकनीक का उपयोग बढ़ा है। तथापि इसके पद का नया नामकरण करके इसका महिमामंडन करने का कोई औचित्य साबित नहीं हो रहा है। यह कहना है कुछ वरिष्ठ रेल अधिकारियों और कर्मचारियों का।
वह कहते हैं, अब तक रेलवे में जिस-जिस कैडर के पदनाम बदले गए हैं, वह उनकी कार्य स्थितियों से मेल नहीं खाते हैं, बल्कि समाज में केवल उन्हें महिमामंडित करते हैं। ऐसी ही स्थिति गार्ड को ट्रेन मैनेजर बनाने को लेकर भी है, क्योंकि गार्ड से उसके ट्रेन मैनेजर बन जाने से ट्रेन की व्यवस्था अथवा उसकी कार्य स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है।
अधिकारी कहते हैं, “कई बार इनके काम को देखते हुए यह सोचा गया कि इस कैडर को खत्म ही कर दिया जाए। दूसरे समकक्ष लोगों से दुगुना तनख्वाह लेने में और गुड्स/पैसेंजर या मेल/एक्सप्रेस अथवा राजधानी गाड़ियों में अवैध पैसेंजर ढ़ोने में या पार्सल पैकेज पर पैसा वसूलने के अलावा ये कुछ नहीं करते।”
वह कहते हैं, “कोई भी अधिकारी या सुपरवाइजर जब ट्रेन की फुट प्लेटिंग पर होता है, इनकी अकर्मण्यता का गवाह होता है। कभी-कभी अगर ड्राइवर से ऑलराइट सिग्नल एक्सचेंज कर लें, तो बहुत बड़ी बात है। जब से वाकी-टाकी आया है तब से तो ये बाहर झांकते भी नहीं हैं। पूरी यूनिफॉर्म और नेमप्लेट के साथ शायद ही इनमें से कभी कोई एक मिलता है।”
उनका कहना है, “और ये जब ट्रेन मैनेजर हैं, तो फिर ट्रेन सुपरिटेंडेंट (टीएस) क्या है? और दोनों में अंतर क्या है? जैसे एओएस, डीओजे, डीएस, सीओएस और बाद में एओएम, डीओएम, डीआरएम, सीओएम बन गए, वैसे ही क्या अब ट्रेन सुपरिटेंडेंट भी ट्रेन मैनेजर बन सकते हैं? लगता है कि पदनाम तय करने में भी बोर्ड के ट्रैफिक ऑफिसर और कार्मिक ऑफिसर आदतन दिमाग नहीं लगाए हैं।”
उन्होंने कहा कि आज ज्यादातर गार्ड का औचक निरीक्षण कर उनसे उनके सेफ्टी ज्ञान का परीक्षण किया जाए, तो 99.9% फेल करेंगे, और ये जेडटीसी से भी जैसे-तैसे निकल पाते हैं या फिर कुछ ले-देकर आते हैं? यही वस्तुस्थिति है इस कैडर की, जो मालगाड़ियों में लगे अतिरिक्त इंजनों में सोकर ड्यूटी कर रहा है अथवा यात्री ट्रेनों में कुछ अतिरिक्त कमाई?
वह कहते हैं कि बलिहारी है रेल प्रशासन की, जो मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता की उपनगरीय लोकल ट्रेनों में गार्ड को मोटरमैन बनाकर दोनों तरफ की कैब में तैनात करके यात्रियों के समय की बचत कराने में बीसों साल से असमर्थ रहा, मगर ट्रेन मैनेजर बनाने में उसने उन्हीं दलालों, बिचौलियों और यूनियनबाजों के सामने घुटने टेक दिए, जो गार्ड को मोटरमैन बनाने में अब तक उसके आड़े आते रहे हैं!
अधिकारी कहते हैं कि, “गैंगमैन” का पदनाम ट्रैकमैन या ट्रैक मेंटेनर में इसलिए बदला गया था, क्योंकि शॉर्ट फॉर्म में उसे भी “जीएम” बुलाया जाता था, जिससे कई बार असली “जीएम” (जनरल मैनेजर) को शर्मिंदगी महसूस होती थी। तथापि ट्रैकमैन या ट्रैक मेंटेनर पदनाम तो फिर भी कार्य के अनुरूप जान पड़ता है, मगर ट्रेन मैनेजर? ऐसे ही डिवीजनल मैनेजर हो गए? ट्रैफिक मैनेजर हो गए? फंड मैनेजर हो गए? यह ऊटपटांग सिलसिला आखिर कहां जाकर रुकेगा, जिसका वास्तविक कार्य स्थितियों से कोई साम्य नहीं है?
बहरहाल, उपरोक्त तमाम तथ्य, सही हैं या गलत, यह अधिकारीगण ही बेहतर जानते होंगे, या फिर संबंधित कैडर के कर्मचारीगण, मगर “रेलसमाचार” इन तथ्यों का न तो समर्थन करता है, न ही पुष्टि, क्योंकि “रेलसमाचार” केवल व्यवस्था के हित में प्रशासन के समक्ष विभिन्न विचारों और तथ्यों को रखने तक ही सीमित रहकर अपने कर्तव्य का पालन करता है। कुछ लोगों को उपरोक्त तथ्य गलत, खराब, बुरे लग सकते हैं, जो कि स्वाभाविक ही है, वे अपना पक्ष लिखकर ई-मेल पर भेज सकते हैं।
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