#बोल कि लब आजाद हैं तेरे…
रेलमंत्री और सीआरबी को शायद राममंदिर का बनना और शिलान्यास होना रास नहीं आया!
लगता है कि प्रधानमंत्री से रेल मंत्रालय को चला रहे लोगों की कोई अंदरूनी दुश्मनी है? जिसे अब तक शायद वह समझ नहीं पाए हैं!
सुरेश त्रिपाठी
बुधवार, 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास और इसके निर्माण की शुरुआत होते देखकर जहां पूरा देश सदियों के इस सपने को साकार होता देख अभिभूत था, खुशी मना रहा था, दीप जलाने की तैयारी कर रहा था, वहां सीआरबी महोदय ने रेल अधिकारियों के लिए एक ऐसा फरमान उपहार स्वरूप जारी किया, जो पाकिस्तान का रेल मंत्रालय भी शायद ऐसा करने से पहले कम से कम आज के दिन तो एक बार जरूर सोचता।
रेल अधिकारियों में आज इतनी निराशा और हतोत्साह था कि एकाध रेलवे आवास को छोड़कर किसी भी आवास में आज दीपक जलाकर 5 अगस्त के इस ऐतिहासिक दिन का अभिनंदन नहीं किया गया।
ऐसा लगता है कि रेल मंत्रालय को चला रहे लोगों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई अंदरूनी खुन्नस है, जो वह मोदी जी के रेलवे और देश के लिए किए जा रहे हर अच्छे काम और हर कोशिश को हर मौके पर पलीता लगाने और उस पर पानी फेरकर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास करते नजर आते हैं। पिछले पांच-छह सालों से जो देखने में आ रहा है, उससे तो कम से कम यही निष्कर्ष निकलता है!
सीआरबी का किसी आतंकवादी मुखिया जैसा व्यवहार?
बहरहाल, जितना कोई आतंकवादी संगठन धमाकाकर और हजारों लोगों को मारकर निराशा, शोक और मनहूसियत का माहौल बना सकता था, उससे कहीं ज्यादा बड़ा उन आतंकवादियों का काम आज 5 अगस्त को रेल मंत्रालय के इस मैसेज में भेजे गए सीआरबी के फरमान ने किया।
“CRB has directed that not a single case of bungalow peon appointment shall be approved. All cases approved in the last one month should be reviewed immediately. This may please be confirmed”.
“Kind attention all PFAs: Hon’ble MR has desired that number of TADK appointments made w.e.f 01.07.2020 in each Railway/PU should be provided immediately. It is requested to provide the information by 12:00 hrs on 06.08.2020 for your railway. The same may be sent at financialcommissioner@gmail.com. This may be treated most urgent. -Naresh Salecha, AM/R”.
इस दिन की महत्ता और संवेदनशीलता को देखकर शायद ही कोई देशभक्त या रामभक्त आज इस तरह का कोई फरमान जारी करता।
एक तरफ प्रधानमंत्री का साष्टांग, देश के समस्त लोगों को अभिभूत कर रहा था और शुभ भविष्य का संदेश देता नजर आ रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ उनके एक मंत्रालय का कृत्य ऐसा बर्ताव कर रहा था मानो वह फिर से इस देश में रावण और बाबर की सत्ता के आगमन की आहट दे रहा हो।
सीआरबी और बोर्ड के उच्च अधिकारी पहले स्वीकार करें
“या तो सीआरबी और रेलवे बोर्ड में रिटायरमेंट के कगार पर बैठे तमाम “शिखंडी” उच्च रेल अधिकारी पहले यह स्वीकार करें कि बंगला प्यून उर्फ #टीएडीके रेलवे में शुरू से एक गैरजरूरी सुविधा रही है, या फिर यह रेल अधिकारियों की विशेष कार्य परिस्थितियों को देखते हुए निहायत ही जरूरी सुविधा मानकर उन्हें अब तक दी जाती रही है!”
क्योंकि अब तक टीएडीके जैसी जरूरी सुविधा का उपभोग कर जब रेल छोड़ने की बारी आई, तो निहायत ही दोगलेपन से आप उस निहायत ही जरूरी टीएडीके की सुविधा को खत्म कर रहे हो, जबकि आप जानते हो कि रेल अधिकारी जिन कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं, वहां यह सुविधा कम, जरूरत ज्यादा है।
लेकिन फिर भी अगर आप लोग टीएडीके को गलत मानते हैं, तो सबसे पहले उसकी भरपाई करें और कम से कम लिखित में दें कि “हां, हमने इस सुविधा का अभी तक गलत उपभोग किया है, जबकि हमें इसकी जरूरत ही नहीं थी!” कम से कम ऊपर वालों को इसे नैतिक आधार पर जरूर स्वीकार (कन्फेस) करना चाहिए।
विषय और समय की गंभीरता को समझे बिना निर्णय
दूसरी बात इस कोविड-19 पैन्डेमिक जैसी भयानक वैश्विक महामारी जनित अनिश्चितता के दौर में इस तरह से बिना समुचित गंभीरता अपनाए, बिना इसके औचित्य का उपयुक्त मंथन किए, और बिना किसी समिति की अनुशंसा के एकाएक मैसेज देकर इसे रोकने का औचित्य क्या है? यह भी स्पष्ट किया जाए।
इस तुगलकी फरमान की एक विसंगति यह भी है कि “एलिजिबिलिटी” होने के बावजूद जिन अधिकारियों के पास अभी टीएडीके नहीं है, या जिनका प्रक्रिया में है, अथवा जिनके टीएडीके 1 जुलाई के बाद बहाल हुए हैं, या कैटेगरी चेंज करने के लिए जिनके टीएडीके की मियाद निकट भविष्य में पूरी होने वाली है, वे अधिकारी तब तक बिना टीएडीके के रहेंगे!
किसके भक्त हैं सीआरबी और बोर्ड अधिकारी!
रेल अधिकारियों के लिए 5 अगस्त का यह दिन जैसे युगों में आने वाले किसी ऐतिहासिक दिन का उपहार है! अब भारतीय रेल मंत्रालय इस दिन को इतिहास में उपहार के रूप में दर्ज कराना चाहता था, या उपहासास्पद और निराश करने वाले दिन के रूप में, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसके आधुनिक नीति-नियंता रामभक्त हैं या बाबर के अथवा मोहम्मद बिन तुगलक के भक्त हैं!
सर्वप्रथम पहल अपने से करें मंत्री और सीआरबी
वैसे भी अगर किसी भी जिम्मेदार और नैतिक नेतृत्व को इस तरह का कदम उठाना होता है, तो सर्वप्रथम उसकी पहल अपने से करनी चाहिए! गांधी की तरह!!
मंत्री, सीआरबी, बोर्ड मेंबर्स और बोर्ड में बैठे बाकी अन्य “ऊदबिलाव” जैसे रेल अधिकारी, जिनके सरकारी आवासों में 20/25 रेलकर्मी काम कर रहे हैं, इन सभी रेलकर्मियों को हटाकर सबसे पहले वे अपनी इस मुहिम की शुरुआत करें।
इसके साथ ही वह भी पहले खुद के टीएडीके भी हटाएं। अगर तब ये तथाकथित बड़े नीति-नियंता एक दिन भी काम कर लें, तब फिर इनको जो समझ में आए, वह करें और तब रेल अधिकारियों की इस टीएडीके नाम की कथित लक्जरी सुविधा की जरूरत का अंत कर दें।
लेकिन ऐसा अनर्थ नहीं होना चाहिए कि मंत्री, सीआरबी, बोर्ड मेंबर्स के आवासों में सरकरी आदमियों की फौज लगी हो और दूसरों के लिए आप आदर्शवादी प्रवचन दें।
“पर उपदेश कुशल बहुतेरे”
25 साल पहले तक जो रेलमंत्री रहे, चाहे रामविलास पासवान हों या लालू यादव, इन सभी पूर्व रेलमंत्रियों/नेताओं के घरों पर आज भी रेलवे के कई-कई कर्मचारी काम कर रहे हैं। कई बीसों साल पहले रिटायर जीएम, बोर्ड मेंबर्स और सीआरबी के घरों पर भी आज भी रेलवे के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी काम कर रहे हैं। सुशासन बाबू के घर से लेकर उनके टारगेट पर रहे पूर्व सीआरबी कांतारू के घर पर भी रेलवे के लोग आज भी काम कर रहें हैं। लेकिन है किसी में इतनी हिम्मत या साहस कि इनमें से किसी नेता या रिटायर्ड अधिकारी के घर से किसी आदमी को हटा दे?
या है किसी वर्तमान मंत्री, सीआरबी या बोर्ड मेंबर में इतना नैतिक बल, कि अपनी कोठियों में एक भी रेलवे स्टॉफ या टीएडीके न रखे?
या है किसी सीवीसी में, सीबीआई में दम, जो अचानक इनकी कोठियों पर छापा मारकर देखे कि कितने सरकारी आदमी इनकी कोठियों पर काम कर रहें है?
ब्लैकमेलिंग पावर और सैडिस्टिक प्लेजर
लेकिन अपने को ज्यादा काबिल और आदर्शवादी दिखाने की जुगत में, जिनको जरूरत है और जिनका काम, मेहनत, योगदान ही जिनके अस्तित्व को जस्टीफाई करता है, उनकी जरूरतों का बलिदान करना उन्हें ज्यादती नहीं, वरन जायज लगता है, क्योंकि इसमें ज्यादा “ब्लैकमेलिंग पावर” भी है और उससे ज्यादा “सैडिस्टिक प्लेजर” भी !
जरा सोचिये, बुढ़ापे में जहां सीआरबी, बोर्ड मेंबर्स आदि घर में मात्र दो प्राणी ही होते हैं और सामाजिक जिम्मेदारी न के बराबर होने से नाते-रिश्तेदार भी न के बराबर ही आते हैं, अगर उन्हें 10-20 आदमी रखने की जरूरत और जस्टीफिकेशन है, तो फिर उनके जूनियर अधिकारी जिनके बच्चे अभी पढ़ ही रहे हैं, बीमार बुजुर्ग मां-बाप भी उनके साथ ही रहते हैं और सामजिक जिम्मेदारी का बोझ भी सबसे ज्यादा इन्हीं पर होता है तथा गांव-घर से नाते-रिश्तेदार भी गाहे-बगाहे आते ही रहते हों, तो फिर उनके लिए यह टीएडीके गैरजरूरी कैसे हो गया?
महान ईमानदार योगी बाबा उर्फ सुशासन बाबू
जिंदगी भर “रंगीला बादशाह की लाइफस्टाइल” से रेलवे का उपभोग करने वाले महान ईमानदार योगी बाबा उर्फ सुशासन बाबू (लौह… पुरूष) रेलवे के ऐसे पहले अधिकारी थे, जिन्होंने अपनी निजी छवि या दूकान चमकाने के लिए इसका कीड़ा अपने राजनीतिक आकाओं के दिमाग में घुसाया।
रेल अधिकारी भ्रष्ट हैं, नाकाबिल हैं, सुविधाभोगी हैं, ऐय्याशी करते हैं, मैनपावर का बहुत मिस्यूज करते हैं, आदि आदि यह सब इन्हीं सुशासन बाबू के द्वारा प्रतिपादित विचार थे, जो कि बहुत तेजी से आम जनता और वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व में भी “परसेप्शन” बन गए। (हालांकि यह भी माना जाता है कि दूसरों में ये सारे ऐब वही खोज सकता है, जिसमें ये सारे (अव)गुण खुद पहले से मौजूद रहे हों!)
उन्होंने अपनी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा से अभियान शुरु किया कि किसी भी अफसर के घर पर टीएडीके के अलावा कोई अन्य रेलवे स्टाफ काम करता मिल गया, तो परिणाम बहुत बुरा होगा। अनुशासनिक कारवाही होगी, विजिलेंस कार्यवाही होगी, आदि आदि। हालांकि हुआ कुछ भी नहीं, सब कुछ टांय-टांय फिस्स हो गया। तथापि उनका निशाना कहां था और इसमें उनको कितनी सफलता मिली, यह तो रेलवे के लोग ही बेहतर जानते हैं, लेकिन इसका फायदा सुशासन बाबू को जरूर हुआ।
उनकी छद्म ईमानदारी का, आत्मप्रवंची प्रखर बहुमुखी प्रतिभा(?) का, बहरूपिया लोकलुभावन छवि का इतना जबरदस्त प्रभाव इस सरकार पर पड़ा कि उन्हें फिर से एयर इंडिया का बचा-खुचा बंटाधार करने – क्षमा करें – बचा-खुचा कार्य करने के लिए सीएमडी बना दिया गया।
इसके बाद ईमानदारी के प्रतिरूप महान योगी सुशासन बाबू की कथित बहुमुखी प्रतिभा के व्यामोह में पड़कर दक्षिण के एक राज्य ने इनसे अपनी सेवाएं देने का आग्रह किया और इन्होंने उसे अनुग्रहित कर कृतार्थ भी किया, लेकिन कहते हैं न कि “हीरे की असली परख जौहरी ही करता है” और सुशासन बाबू की परख भी इस देश की उन्हीं के जैसी एक बड़ी ईमानदार(?) कंपनी ने किया, जो सिर्फ अपने ईमानदार(?) कार्यों के लिए ही जानी जाती है, जिस पर आज तक कोई लांछन ही नहीं लगा !
कृपया यहां सिर्फ तीन लिंक देखने का कष्ट करें!
https://m.economictimes.com/markets/stocks/news/gmr-group-under-cbi-lens/articleshow/47278528.cms
http://www.cnbctv18.com/business/ashwani-lohani-joins-gmr-group-as-ceo-services-business-6431391.htm
https://www.firstpost.com/business/gmrs-big-steal-rs-24000-cr-land-for-rs-31-lakh-421326.html/amp
रेलवे और रेलकर्मियों-अधिकारियों की छवि को जानबूझकर किया गया छिन्न-भिन्न
रेलवे के अधिकारियों और कर्मचारियों की छवि को छिन्न-भिन्न करने का और उनकी जरूरत को सुविधा या विलासिता बताने का जो कुत्शित कार्य सुशासन बाबू ने शुरू किया था, उसे अंतिम रूप देने का कार्य वर्तमान सीआरबी वी. के. यादव उर्फ “वीकेन यादव”, भारतीय रेल का पहला “सीईओ” बनने की चाहत में कर रहें है।
“सुशासन बाबू” और “वीकेन यादव” की अजगरी प्रवृत्ति
किसी भी “ऑर्गनाईजेशन” के “मुखिया” के लिए उस ऑर्गनाइजेशन में काम करने वाले लोग उसके परिवार और बच्चों की तरह होते हैं और इनके जरूरी हितों की देखभाल और रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य होता है, लेकिन इस धरती पर “अजगर” जैसे भी कुछ जीव होते हैं, जो अपनी “भूख” मिटाने के लिए अपने बच्चों को ही निगल जाते हैं। “सुशासन बाबू” और “वीकेन यादव” ने भी अपनी महत्त्वाकांक्षा और भूख के लिए वही किया और कर रहे हैं, जो सदियों से “अजगर” करता रहा है।
समकक्ष व्यवस्था उपलब्ध कराए बिना वापस नहीं ली जा सकती कोई सुविधा
सुचारु रूप से चल रही व्यवस्था में बदलाव या परिवर्तन उसमें तोड़फोड़ कर अथवा उसे बरबाद करके नहीं हो सकता और न ही इसे विकास या नई/अनोखी व्यवस्था का नाम दिया जा सकता है। तथापि प्रबंधन और व्यवस्था में सुधार करने के बजाय जो लोग ऐसा करते हैं, या करने का प्रयास कर रहे होते हैं, वह निहायत निकम्मे, नालायक, नामुराद, जाहिल, गंवार और सौतिया डाह रखने वालों की श्रेणी में गिने जाते हैं।
संवैधानिक व्यवस्था है और प्राकृतिक न्याय का तकाजा भी, कि “जनता अथवा सरकारी कर्मियों के लिए पहले से चली आ रही कोई सुविधा तब तक वापस नहीं ली जा सकती है, जब तक कि उसके समकक्ष वैसी ही दूसरी कोई सुधारित या परिष्कृत सुविधा उन्हें मुहैया न करा दी जाए!” पर ऐसा कुछ कभी इस देश में होता नहीं देखा गया, सिर्फ खुद के लिए सुविधाएं बटोरने का काम राजनीतिक नेतृत्व द्वारा किया गया, वह भी बाकायदा संविधान की डुगडुगी बजाकर!
कहते हैं कमजोर पर ही सबका वश चलता है और अभी रेल अधिकारियों-कर्मचारियों से ज्यादा कमजोर, बेचारा और लावारिस शायद इस देश में कोई और नहीं है।
सोची-समझी रणनीति के तहत उभारा गया विभागवाद
अभी तक भारतीय रेल को सफलतापूर्वक चलाने वाले अधिकारी और कर्मचारी आचानक पिछले चार-पांच सालों में आपसी “विभागवाद” के इतने तीखे विवाद में धंस चुके हैं कि न तो वह रेलवे का, देश का दूरगामी हित देख पा रहें हैं, और न ही अपना।
इनकी आपस की लड़ाई इन्हें इतना अंधा बना चुकी है कि इन्हें ये सब देखते हुए भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि रेलवे को बेचने वाले बहरूपिये इन्हें कितनी चालाकी से आपस मे लड़ाकर अपने गोल की ओर बढ़ रहे हैं और ये हर बीतते दिन के साथ कमजोर कठपुतली बनते जा रहे हैं।
मुंबई में फुट ओवरब्रिज गिरने पर जब रेलवे इंजीनियर्स को भ्रष्ट और नाकाबिल बताकर सेना को उनका कार्य दे दिया गया था, उस समय सबने एक होकर इसका विरोध करने के बजाय सिर्फ सिविल इंजीनियर्स का मामला मानकर बाकी विभागों ने खूब रस लिया।
फिर जब इलेक्ट्रिकल वालों के साथ अन्याय होना शुरू हुआ, तो मैकेनिकल वाले इसमें अपनी साम्राज्य विस्तार नीति की जीत मान रहे थे और बाकी डिपार्टमेंट इलेक्ट्रिकल-मैकेनिकल की आपसी लड़ाई मानकर मजा लूट रहे थे।
फिर जब ट्रैफिक वालों की बजाई जाने लगी, तो बाकी लोग इसका रसास्वादन करने लगे। ट्रैफिक वालों का भी अहंकार ऐसा कि यहां कोई अपने को बावन हाथ से कम नहीं मानता, परिणाम सामने है कि आज इस पूरे कैडर को ढ़केलकर दीवार से चिपका दिया गया है और अब इनकी चूं भी नहीं निकल पा रही है।
और अब जब इलेक्ट्रिकल सीआरबी ने मैकेनिकल वालों को पद-दलित करने के लिए चुटिया बांधकर कमर कसी हुई है, तब भी बाकी डिपार्टमेंट ताली बजा रहे हैं।
एकाउंट्स जैसे कुछ डिपार्टमेंट अपने को सबसे ज्यादा काबिल, अभिजात्य और दूसरे ग्रह से आया प्राणी मानकर सिर्फ अपनी बात करते रहे हैं, जबकि व्यवस्था को आगे बढ़ाने के काम में सबसे बड़ा अड़ंगा यही हैं।
यही हाल तकरीबन कार्मिक, स्टोर्स, आरपीएफ आदि अन्य विभागों का भी रहा। जहां-जहां ऑर्गनाइजेशन के हित को ध्यान में रखकर सबको कैडर से अलग हटकर एकजुट होना चाहिए था, वहां-वहां सबने “इंडिविजुअल कैडर इंटरेस्ट और एजेंडा” को लेकर चतुराई से चलना शुरू किया।
“फूट डालो, राज करो” की अंग्रेज नीति का अनुसरण
चालाक-चतुर नेतृत्व ने इन सबकी इसी कमजोरी को पकड़ा। और अंग्रेजों की दी गई “फूट डालो, राज करो” की नीति को बिना किसी प्रभावी प्रतिरोध के सफलता से लागू कर दिया। इसी का दुष्परिणाम है कि आज रेलवे के सभी अधिकारी-कर्मचारी इस बद्तर हालात में लावारिस खड़े हैं, जहां हांक लगाने पर भी उनका साथ देने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है।
दरअसल ये सब यह भूल गए थे कि ट्रैफिक, सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल, पर्सनल, स्टोर्स, एकाउंट्स आदि तथा टेक्निकल-नॉन टेक्निकल आप एक-दूसरे की नजर में ही हो, लेकिन राजनीतिक आकाओं और दुनिया की नजर में आप सिर्फ और सिर्फ एक मामूली “सरकारी अधिकारी” या “कर्मचारी” ही हो, इससे ज्यादा कुछ नहीं! और यह भी कि आड़े वक्त लोगों के काम आकर जनमानस में आपने कभी अपनी छवि सुधारने की कोशिश नहीं की!
कोई भी बड़ा या छोटा दिखने वाला निर्णय, जो रेलवे को निजीकरण (#privatization) या निगमीकरण (#corporatization) की तरफ लेकर जाने वाला होगा, वह सभी के सभी “रेल अधिकारियों और रेल कर्मचारियों” के लिए होगा, न कि किसी एक कैडर विशेष के लिए!
“स्टोरकीपर”, “सुशासन बाबू” और वर्तमान “वीकेन यादव” के काल का ही सिर्फ रेल अधिकारी और कर्मचारी शांत दिमाग से आकलन कर लें, तो उनकी समझ में बखूबी आ जाएगा कि कबीरदास की चक्की ही चल रही है, जिसमें बचना किसी को नहीं है।
ए. के. मित्तल (ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे) के समय जो लोग अपने साम्राज्य विस्तार का जयघोष कर रहे थे, सुशासन बाबू के काल में वे ही पाटन के बीच आ गए। और सुशासन बाबू के समय जो लोग (मैकेनिकल वाले) अपने साम्राज्य विस्तार का उत्सव मना रहे थे, आज अपना अस्तित्व बचाने की जुगत में हलकान हुए पड़े हैं। इसलिए यदि अभी भी यह सब देख और सीखकर सुधर जाएं, तो रेल भी बचे और देश भी।
कैडरिज्म युक्त मारिज़ुआना का नशा
एक बात का और ख्याल रखें कि कैडर का भला सोचने से एक-दो अफसरों या मुठी भर लोगों का ही भला होता है और स्टोरकीपर, सुशासन बाबु, वीकेन यादव सरीखे अक्षम, परंतु अति चालाक या छुपे रुस्तम टाइप के लोग ही इस कैडर मानसिकता की आड़ में राज भोग लेते हैं, बाकी कैडरिज्म युक्त मारिज़ुआना के नशे में ऐसे धुत्त पड़े रहते हैं कि भले ही वे 22/25 साल की नौकरी और काबिलियत के बाद भी एसएजी में किसी सड़ी हुई जगह पड़े रहें, लेकिन इसी में आह्लादित रहते हैं कि मानो वही सीआरबी बन गए हों।
विश्वसनीयता खो चुके हैं दोनों अधिकारी संगठन
जहां एक तरफ चापलूसी और दलाली के चलते एक अधिकारी संगठन लगभग खत्म हो चुका है, वहीं दूसरी तरफ दूसरे अधिकारी संगठन के पदाधिकारी विश्वसनीयता खोकर शिखंडी साबित हो रहे हैं। रेल अधिकारियों में एफआरओए (#FROA) को लेकर काफी गुस्सा है। उनका कहना है कि इसमें ऐसे लोग पदाधिकारी हैं जो अधिकारियों की और रेल हित की बात करने के बजाय अपने पद का उपयोग व्यक्तिगत हित साधने और अपनी अच्छी पोस्टिंग सुनिश्चित करने के लिए करते हैं।
उनका कहना है कि वर्तमान का एफआरओए पहले से ही उस बात की भूमिका बनाने/गढ़ने लगता है जो वास्तव में सीआरबी या रेलमंत्री चाहते हैं। उन्होंने बताया, टीएडीके के मामले में भी कल रात चली मैराथन मीटिंग में इन्होंने कहने के लिए टीएडीके का मुद्दा उठाया। पर जब रेलमंत्री ने कहा कि “टीएडीके की व्यवस्था को खत्म नहीं किया जाएगा, लेकिन पर्सनल चॉइस नहीं होगी।” तब ये इसका प्रोटेस्ट किए बिना और उसका औचित्य समझाए बिना ही मान गए, जबकि इन्हें रेलमंत्री को तत्काल बताना चाहिए था कि टीएडीके की पर्सनल चॉइस के पीछे कई महत्वपूर्ण तथ्य रहे हैं, जो किसी अन्य तरीके से या आरआरसी जैसे पूल से देने से न सिर्फ अधिकारी के परिवार की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, बल्कि टीएडीके उसके लिए एक बहुत बड़ा सिरदर्द भी साबित हो सकता है। अधिकारी अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर टीएडीके इसलिए लगाते हैं, क्योंकि जरूरत पड़ने पर वह चौबीसों घंटे भी उनके साथ परिवार के एक सदस्य की तरह रहता है।
कुछ अधिकारियों ने आरआरसी जैसी व्यवस्था यानि कि दूसरे की “अनुशंसा” या किसी अन्य “कंसिडरेशन” के आधार पर, और बिना व्यक्तिगत पसंद को वरीयता दिए जब टीएडीके बहाल किए हैं, तो भारी मुसीबत में पड़े हैं।ऐसा भी नहीं है कि आरआरसी जैसी कोई भ्रष्ट और छद्म व्यवस्था अभी नहीं है?
जांचे-परखे बिना लिए गए टीएडीके की असलियत
प्रायः हर जगह एक संगठित गिरोह सक्रिय रहता है, जो शुरू में ही ताड़ लेता है कि किस अधिकारी को टीएडीके की जरूरत है और उसके पास खोजने का समय नहीं है। तब धीरे से वह अपना कैंडिडेट लेकर पहुंच जाता है, कुछ दिन खूब सेवा करता है, जब अधिकारी प्रभावित होकर उसे बहाल कर लेता है, तब फिर वह अपना असली रंग दिखाना शुरू करता है और अधिकारी एवं उसके परिवार का जीना हराम कर देता है। कोर्ट केस से लेकर अन्य कई झूठे आरोपों में फंसा देता है।
इसीलिए आमतौर पर जब अधिकारी अपनी पसंद से और परखकर टीएडीके बहाल नहीं करता है, तो उसकी यही गति होती है। यही कारण है कि अधिकारी की पसंद से रखे गए टीएडीके जब कैटेगरी चेंज होकर दूसरी जगह पर जाते हैं, तो अन्य माध्यमों से आए कर्मचारियों से वह ज्यादा व्यवहार में सभ्य और अपने काम के प्रति समर्पित साबित होते हैं। इस तरह रेलवे को एक ज्यादा बेहतर मानव संसाधन की प्राप्ति भी होती है। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण ऐसे मौके पर एफआरओए के मूर्धन्य पदाधिकारियों को रेलमंत्री के संज्ञान में लाकर पर्सनल चॉईस के औचित्य को जस्टीफाई करना चाहिए था।
पर्सनल चॉइस का अन्य औचित्य
इसके अलावा टीएडीके की पर्सनल चॉइस की सुविधा कहीं न कहीं रेलवे में आने और रहने का एक बड़ा मोटिवेटिंग फैक्टर तथा इंसेंटिव भी है। अभी तक इसका लाभ ले चुके सीआरबी और उनके जैसे अधिकारियों को यह बात रेलमंत्री को बतानी चाहिए और एफआरओए को भी इसी बात को स्पष्ट करना चाहिए। लेकिन वर्तमान में एफआरओए के जो पदाधिकारी हैं, वे अधिकारियों के बीच तो आईआरएमएस (#IRMS) के विरोध में अपना सुर मिलाते हैं, मगर वही जब रेलमंत्री के सामने जाते हैं, तो सब पर अपना समर्थन देकर/हाथ खड़ा करके चले आते हैं और फिर बाहर आकर यूनियन वालों की तरह अपनी झूठी कहानी सुनाते हैं। इसीलिए उन पर जयचंद का ठप्पा लग चुका है और अब उन पर न किसी को भरोसा रह गया है, न विश्वास।
अब टीएडीके विषय पर लिए बनाई गई समिति के सदस्यों से यह अपेक्षा की जा रही है कि उन्हें किसी प्रकार के दबाब में आए बिना टीएडीके को वर्तमान स्वरूप में ही बनाए रखने की अनुशंसा करनी चाहिए।
दिल्ली से हटकर बनाए जाएं अधिकारी संगठनों के पदाधिकारी
रेल अधिकारी जब तक दक्षिण रेलवे, पूर्व तट रेलवे, पूर्व रेलवे, दक्षिण पूर्व रेलवे या पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे अथवा दिल्ली से हटकर किसी अन्य रेलवे के अधिकारियों के हाथ में अधिकारी संगठनों की कमान नही थमाएंगे तब तक दिल्ली और रेलवे बोर्ड से बनाए गए इनके अध्यक्ष और महामंत्री आदि पदाधिकारी अपनी ही डीलिंग करते रहेंगे। एनएफआर वाले को या एसआर वाले को तो कोई यह कहकर धमका नहीं सकता है कि तुम्हें वहां भेज देंगे जहां तुम हो! किसी भी हाल में उनको खोने को कुछ नहीं होगा। उनके लिए जो भी होगा, उससे बेहतर ही होगा। इसीलिए वे निर्भीक होकर हर फोरम में सच्ची बात ही बोलेंगे।
अगर रेल अधिकारियों और कर्मचारियों में अभी भी और थोड़ी सी भी गैरत बची है तथा रेल के प्रति निष्ठा और देश के प्रति थोड़ी सी भी राष्ट्रभक्ति जिंदा है, तो मेरे हिसाब से टीएडीके का मसला अब जरूरत, सुविधा या बार्गेनिंग के लिए कमजोर नस दबाने का न होकर सभी रेल अधिकारियों-कर्मचारियों के लिए स्वयं की, रेल की अस्मिता का और रेल को निजीकरण, निगमीकरण से बचाने की बची जिजीविषा की ज्वलंत प्रतिक्रिया और इसके लिए लड़ी जाने वाली अंतिम लड़ाई के रूप में होनी चाहिए।
#बोल कि लब आजाद हैं तेरे,
#बोल कि जबां अब तक तेरी है!
#बोल कि सुतवां जिस्म है तेरा,
#बोल की जां (रेल) अब तक तेरी है!!
—फ़ैज़