भारतीय रेल : बदलाव का भूचाल
हम सबको सजग रहकर सुधार के सुझाव देने होंगे और बदलाव के लिए तैयार भी रहना होगा। रेलमंत्री और मंत्री समूह को भी लचीलापन और प्रगतिशीलता का परिचय देना होगा। केवल तभी नई सदी में रेलवे एक संगठन के रूप में बचेगी, अपनी सार्थक भूमिका निभा पाएगी
प्रेमपाल शर्मा*
रेलवे संगठन में इससे बड़े बदलाव की योजना कभी सामने नहीं आई। सचमुच में ऐतिहासिक और एक बड़े परिवर्तन की ओर अग्रसर। रेलमंत्री ने जो तस्वीर पेश की है, उसके अनुसार रेलवे की 8 सेवाओं की बजाए ‘भारतीय रेलवे प्रबंधन सेवा’ नाम का केवल एक केडर होगा। उन्होंने इसकी आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि 8 विभाग होने की वजह से कई बार उनमें आपस में डिपार्टमेंटल प्रतिस्पर्धा, गुटबाजी चलती रहती है। इससे रेलवे का संपूर्ण विजन लक्ष्य प्रभावित होता है। निर्णय लेने में भी देरी होती है। आपस में ऊंच-नीच का भाव भी एकीकृत सेवा से खत्म हो जाएगा।
दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय मौजूदा 9 सदस्यों के बोर्ड की बजाय पांच सदस्यों का बोर्ड रहेगा। अभी तक हर सदस्य अपनी तकनीकी योग्यता से जाना जाता था, जैसे मेंबर इंजीनियरिंग, मेंबर ट्रैफिक, मेंबर मैकेनिकल, मेंबर इलेक्ट्रिकल इत्यादि। इसकी बजाय अब सिर्फ 4 सदस्य होंगे। एक आधारभूत चीजें, जैसे ट्रैक, सिग्नल टेलीकम्युनिकेशन को देखेगा, उसे मेंबर इंफ्रास्ट्रक्चर कहा जाएगा। दूसरा मेंबर ऑपरेशन और बिजनेस को देखेगा, तीसरा फाइनेंस और चौथा रेल इंजन, डिब्बे पहिया-धुरा आदि।
शीर्ष पर इन सुधारों के साथ-साथ कुछ और भी सुधार होंग। जैसे महाप्रबंधकों की पोस्ट को भारत सरकार के सचिव के समकक्ष अपग्रेड किया जाएगा। रेल की बढ़ती जिम्मेदारियां और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए बदलते वक्त के साथ किसी भी विचार का स्वागत किया जाना चाहिए। इस पर तुरंत कोई निर्णय या फतवा देना भी जल्दबाजी होगी कि इससे रेलवे का कायाकल्प हो जाएगा या दूसरा पक्ष कि इससे रेल का बंटाधार हो जाएगा। वैज्ञानिक सोच तो यही कहती है कि यदि चीजें सुधारने में न आ रही हों तो कोई और रास्ता निकाला जाए। उस रास्ते को आप प्रयोग भी कह सकते हैं, सुधार की तरफ कदम भी कह सकते हैं।
अच्छी बात है कि रेलवे संगठन में पिछले 20 वर्षों से कई बार ऐसे विकल्पों पर विचार किया गया है और फिलहाल का निर्णय उन्हीं विकल्पों में से कुछ-कुछ सूत्र लेकर घोषित हुआ है। इस समय घोषित होने का कारण यह भी हो सकता है कि पिछले वर्ष में रेलवे का ऑपरेटिंग रेश्यो यानि कि उसकी कमाई एवं लागत का अनुपात और बिगड़ा है। ₹98 खर्च करके ₹100 कमाए जा रहे हैं।लोगों का तो यह भी कहना है कि खर्चा 100 से भी ज्यादा है। पिछले बजट में आने वाले दिनों के लिए जो घोषणाएं की गई हैं, उसको पूरा करने के लिए अगले 12 वर्षों में 50 लाख करोड रुपए चाहिए। रेलवे ट्रैक को सुधारना है, सिगनलिंग को मॉडर्नाइज करना है, ज्यादातर मार्गों पर स्पीड बढ़ानी है, कश्मीर में विस्तार करना है, तो नॉर्थ-ईस्ट में भी विस्तार करना है आदि आदि। इन सारे चक्रव्यूह के बीच ऐसा फैसला लेने के पीछे की नीयत को समझना होगा।
इससे पहले वर्ष 1994 में प्रकाश टंडन कमेटी ने भी कुछ ऐसे ही सुझाव दिए थे। इसके बाद की श्याम नारायण कमेटी ने प्रकाश टंडन कमेटी की एकीकृत रेलसेवा की सिफारिश को खारिज करते हुए भिन्न रेल सेवाओं को टेक्निकल और नॉन-टेक्निकल नाम से केवल दो समूहों में रखे जाने की सिफारिश की थी।
इसके बाद सन् 2000 में राकेश मोहन कमेटी ने भी विभागों की आपसी लड़ाई को रेलवे की कार्यकुशलता में बाधक माना था। उन्होंने भी इन सुझावों को और आगे बढ़ाते हुए कहा था कि डीआरएम स्तर तक विभाग अलग रहें, उसके बाद उनको सबको जनरल मैनेजमेंट में शामिल किया जाए। विवेक देवराय, सैम पित्रोदा वाली समितियों ने भी अकाउंटिंग प्रोसीजर,जनरल मैनेजर को और शक्ति देने के साथ-साथ सुरक्षा, संरक्षा और भर्ती संबंधी अन्य तमाम सुझाव दिए थे।
अब पहले इसके कुछ खतरों या चुनौतियों की बात करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ लोक सेवा आयोग से चुने हुए सर्वश्रेष्ठ मेधावी नौजवान भारतीय रेल में आते हैं। यातायात, कार्मिक, लेखा सेवाओं में सिविल सेवा परीक्षा से और तकनीकी सेवाओं- सिविल इंजीनियरिंग, स्टोर्स, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल, इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा से। दोनों में ही पिछले कुछ वर्षों से लगभग 50% आईआईटी से निकले हुए छात्र होते हैं। शेष भी देश के सर्वोच्च संस्थानों से। ऊर्जा से भरे हुए। कोई अंतर नहीं होता इनकी मेधा, कार्यक्षमता और भारतीय प्रशासनिक सेवा या विदेश सेवा या पुलिस सेवा के अधिकारियों में।
एक या दो नंबर के आगे-पीछे से इनकी प्रतिभा नहीं बदल जाती। यह जीवन की हकीकत भी है। इसलिए यह कहना कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बेहतर या रेल के कमतर होते हैं, यह न सिर्फ बचकानी बात है, बल्कि इससे सप्रयास बचने की जरूरत भी है। और रेल के अधिकारियों को भी ट्रैफिक की सेवा, लेखा से विशिष्ट है, और लेखा की सिविल इंजीनियरिंग से, उससे भी आगे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की प्रतिभा को भी उन्हें अपने ही बराबर मानने की जरूरत है। समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को प्रशासनिक सेवाओं के नाम पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह सभी अधिकारियों के चेतन-अवचेतन में ठूंसने की जरूरत है।
बड़ा प्रश्न यह है कि यदि सिर्फ एक प्रबंधन सेवा होगी तो उसकी भर्ती प्रक्रिया क्या होगी? रेलवे में तकनीकी और गैरतकनीकी दोनों ही अधिकारियों की जरूरत है और यह सिर्फ एक परीक्षा से संभव नहीं हो सकता है। अच्छा हो कि फिलहाल भर्ती की प्रक्रिया संघ लोक सेवा आयोग के तहत ज्यों की त्यों कुछ वर्षों तक रखी जाए और जैसा कि प्रकाश टंडन और राकेश मोहन कमेटी ने कहा है कि रेलवे में 5 वर्षों की सतत सेवा के बाद पर्याप्त प्रशिक्षण से एक कैडर का निर्माण किया जाए। यह सरकार की मौजूदा सोच से भी मेल खाता है कि आपकी अभिरुचि या सामर्थ्य दक्षता क्या है उसके आधार पर मैनेजमेंट सेवा के गठन में उन्हें उचित पद दिए जाएं। तकनीकी, गैर तकनीकी दोनों ही सेवाओं में इस समय लगभग 80% इंजीनियर यानी कि तकनीकी ज्ञान वाले होते हैं। यह बहुत अच्छा विकल्प साबित होगा।
लेकिन इसके बजाय अगले ही वर्ष प्रबंधन सेवा के नाम से भर्ती की जल्दबाजी, उसका परीक्षा का प्रारूप बनाना आदि से चीजें और बिगड़ सकती हैं। उम्मीद है कि सेक्रेट्रीज की कमेटी और मंत्री समूह इस बात को ध्यान में रखेंगे, क्योंकि अभी तो यह केवल एक विचार के रूप में घोषणा हुई है। अच्छे विचारों का मंत्री भी स्वागत करेंगे और कार्मिक मंत्रालय तथा संघ लोक सेवा आयोग के लिए भी मुश्किलें नहीं आएंगी। इस बीच देश/दुनिया के अनुभवों से सीखते हुए भर्ती प्रक्रिया के और विकल्पों पर भी विचार-विमर्श जारी रह सकता है। अधिकारियों का कोई समूह, जिसमें परिवहन और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ भी शामिल हों, को केवल भर्ती, प्रोमोशन के पक्ष पर रिपोर्ट बनाने को कहा जाए। रेलवे के पुराने अनुभवी अधिकारी भी ऐसे किसी सुझाव प्रक्रिया में शामिल हो सकते हैं।
बोर्ड मेंबर्स में कमी या उसका पुनर्गठन भी एक नई चुनौती पैदा करेगा, क्योंकि अभी तक तो वे अपनी अपनी सेवाओं की सीनियरिटी के हिसाब से शीर्ष पर सीधे पहुंच जाते थे। उसका भी एक बुरा पहलू यह था कि आपकी कार्यक्षमता से ज्यादा से महत्वपूर्ण यह होता था कि आप का जन्म कब हुआ और कितनी लंबी सेवा आपको करनी है। आधुनिक प्रबंधन में भारतीय रेल के लिए यह बहुत घातक साबित हो रहा है। अपनी कम उम्र की तड़ी में कुछ तो सेवा शुरू होने के वक्त ही मेंबर के से नशे में रहने लगते हैं बिना अपनी क्षमताओं को बढ़ाए।
यूरोप के देशों में या दुनिया के तेजी से बढ़ते संगठनों में उम्र और सीनियरिटी इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आपका योगदान, नयाचार, नई योजनाएं संगठन को आगे बढ़ाने की क्षमता। लेकिन हम ऐसे ही पुरातन नियमों के जाल में फंसे हुए हैं कि जहां सर्वश्रेष्ठ शीर्ष पर नहीं पहुंचता। वही पहुंचते हैं जो न निर्णय लेते हैं, न कोई नई सोच रखते हैं। अच्छे विचार कई बार तो उनकी समझ में भी नहीं आते और इसीलिए अड़ंगे भी लगाते हैं। और जब निर्णय नहीं लेंगे, तो वे किसी गलती से भी मुक्त बने रहेंगे। 360° मूल्यांकन सरकार के कुछ हिस्से में तो शुरू हुआ है। अब इसमें और सुधार करते हुए इसे रेलवे में भी तुरंत लागू करने की जरूरत है। इस तस्वीर को बदलने की जरूरत होगी।
विभागीय खींचतान और अपने-अपने सिलोस उर्फ खांचे-सांचे में आत्मकेंद्रित रहने या गिरोह बनाने की जहां तक बात है, इसमें जरूर कुछ सच्चाई है। लेकिन समाज के किस स्तर पर ऐसा विभाजन नहीं है? जातियों, उप जातियों के बंटवारे ने तो स्कूल, विश्वविद्यालय के बच्चों तक को भी अलग-अलग खानों में रख दिया है। बोया पेड़ बबूल का और उम्मीद करोगे कि उस पर आम आएंगे ।
जिस देश की पहचान भारतीय न होकर उसकी जाति और धर्म हो, उसका क्षेत्र हो, यदि उसमें रेल के बड़े छाते के नीचे उन्हें अपनी-अपनी तकनीकी सेवा की पहचान ज्यादा महत्वपूर्ण लगे तो कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। रेलवे की गंभीर दुर्घटनाओं के बाद यह विभागीय आरोप, प्रत्यारोप, दोष बार-बार साबित हुए हैं और इसी के इलाज की जड़ में एक भारतीय रेल प्रबंधन सेवा सोची जा रही है।
इसकी बुनियाद तो दरअसल राजनीतिक सत्ता में है, जो इसी के बूते पर शासन कर रही हैं। रेल के अधिकारियों को पूरा दोष देना सही नहीं होगा। हम वही बनते हैं, या होते हैं, जैसा हमें बनाया जाता है।
इतने मेधावी अधिकारी एक नेक इरादों के साथ नौकरी में प्रवेश करते हैं, लेकिन तंत्र का घटाटोप, उदासी, भेदभाव, निकम्मापन उनके सारे उत्साह पर पानी फिर देता है। इसके शीर्ष पर तो मंत्री ही होता है। राजनीतिक सत्ता ही होती है और यह भी उन्हें धीरे- धीरे नाकारा ही बनाती जाती है। जैसे साफ नदियों का पानी समंदर में गिरते ही खारे पानी में बदल जाता है।
कुछ और पक्षों पर विचार करने से पहले यदि दिल्ली मेट्रो जैसे विकल्प की तरफ बढ़ा जाए तो शायद ज्यादा अच्छा रहे। दिल्ली मेट्रो की एक ऐतिहासिक सफल यात्रा है। जहां सैकड़ों संगठन, सार्वजनिक उपक्रम आए और घाटा देकर चले गए, दिल्ली मेट्रो ने दिल्ली को ही पहचान नहीं दी, परिवहन व्यवस्था में पूरे भारत के द्वार खोले हैं और इसीलिए उस मॉडल पर 30 दूसरे शहरों में काम हो रहा है।
देखा जाए तो उसके संगठन, कार्य संस्कृति, अनुशासन, नई सोच, बदलाव के निर्णय से सीख लेने की जरूरत है। वह पूरी तरह सरकारी नहीं है। लेकिन सरकार के अधीन भी है, किसी निजी कंपनी की मनमानी नहीं है। उसमें भारत सरकार, शहरी मंत्रालय, दिल्ली सरकार और जापानी सरकार का भी कुछ हस्तक्षेप, नियंत्रण है।
बुनियादी फर्क यह है कि उसमें राजनीतिज्ञों का हर पल गैरजरूरी हस्तक्षेप कम से कम है। इसलिए पहले कदम के रूप में यदि रेलवे में सुधार लाना है तो उसे राजनीति से दूर रखना होगा। अधिकारियों के लिए भी सबक है कि वह ये न मानकर चलें कि वे सरकार के दामाद हो गए हैं, कुछ करें या न करें, उनकी नौकरी पक्की और पेंशन भी।
दिल्ली मेट्रो ने बहुत कुछ इनमें से छोड़ दिया है। आपका योगदान होगा तो नौकरी आगे बढ़ेगी वरना देश की बाकी जनता के हित में तुम्हें नौकरी से बाहर जाना होगा। सामाजिक न्याय का भी ध्यान रखा गया है लेकिन इतना भी नहीं कि अनुशासन भंग करने के बावजूद भी लोक नायक भवन में बैठे लोग आपको काम ही न करने दें।
यह छोटे प्रश्न नहीं हैं। पूरे संगठन पर इसकी कार्यक्षमता का असर पड़ता है। रेल की यूनियन – संगठन का रेलवे के लिए योगदान कम नहीं है, लेकिन राजनीतिज्ञों की गोद में खेलते हुए रेलवे में अनुशासन हीनता के लिए यह भी उतने ही जिम्मेदार हैं। कायाकल्प की जरूरत तो वास्तव में रेल यूनियनों और संगठनों को भी है।
रेलवे ने भर्ती के पक्ष पर कुछ सुधार पिछले वर्षों में बहुत अच्छे किए हैं। जैसे ग्रुप ए की भर्तियों को छोड़कर बाकी सभी स्तरों पर साक्षात्कार को खत्म करना। इसमें इंटरव्यू के नाम पर पिछले दरवाजे से आने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। दिल्ली मेट्रो ने भी अपनी भर्ती प्रणाली ऐसी ही निष्पक्ष बनाई है। रेलवे भर्ती बोर्ड ने तो देश के दूरदराज तक बैठी प्रतिभाओं के लिए भर्ती परीक्षाओं में उनकी मातृ भाषाओं को शामिल करके कर्मचारी चयन आयोग और संघ लोक सेवा आयोग से भी बेहतर मिसाल पेश की है।
रेल अंग्रेजी से नहीं चलती, तकनीकी सूझबूझ, लगन और सरोकारों से चलती है। दिल्ली में बैठकर इसकी तारीफ इसलिए भी करनी पड़ती है कि वहां के विश्वविद्यालय और दूसरे संस्थानों में तो केवल इंटरव्यू के नाटक से पिछले दरवाजे से ही भर्ती हो रही है। और इसीलिए यह स्कूल-विश्वविद्यालय रेल के मुकाबले दशकों पहले डूब गए हैं।
रेल अभी भी इतनी सीमाओं के बावजूद यदि प्रतिदिन 11 हजार रेलगाड़ी और 3 करोड़ यात्रियों को हजारों मील एक जगह से दूसरी जगह पर्याप्त सुरक्षा और यकीन के साथ पहुंचा रही है तो उसमें भर्ती की निष्पक्ष प्रणाली आदि का भी उतना ही योगदान है। इसलिए सही भर्ती, फिर वह चाहे अफसरों की हो या नीचे के कर्मचारियों की, पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।यदि एकीकृत प्रबंधन सेवा होगी तो उसकी शाखाएं भी तो नीचे तक जाएंगी।
यदि राजनीतिक हस्तक्षेप कमीशन-टमीशन और मुफ्त यात्रा आदि को हटा लिया जाए तो रेल संगठन आज भी देश की सबसे कुशल संगठनों में गिना जाएगा। इसमें बहुत बड़ा योगदान ब्रिटिशों द्वारा स्थापित नियमों, कार्य प्रणालियों का भी है। जैसे सेना की आधारभूत बातें आज भी वैसे ही कायम हैं। कम से कम रेलवे ने अपनी कार्य प्रणाली में तो वही कायम रखा है।
नकारात्मक बदलाव हुआ है, तो राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से। जहां स्टेशन देने की जरूरत भी नहीं है वहां राजनीतिक दबाव में देना पड़े, जहां रियायत देने की जरूरत न हो वहां भी देना पड़े, तो उसके अंजाम तो ऐसे होंगे ही। याद कीजिए वर्ष 1996 के आसपास हजारों पास मुफ्त में अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को दे दिए गए थे।
ऐसे ही पेट्रोल पंप दे दिए गए थे। यह तो अफसरों के निर्णय नहीं थे। अंततः सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करके यह सब रोकना पड़ा। राजनीति, राजनीतिज्ञ की समझ पर संदेह नहीं, लेकिन कई बार वे लोकप्रिय, मसीहा बनने के चक्कर में गलत दिशा में भी बहक जाते हैं।
इसीलिए रेलमंत्री बनना उत्तर भारत के नेताओं के लिए विशेषकर जागीर या दिल्ली की गद्दी की तरह लुभाता रहा है। तो क्या सारा दोष अधिकारियों का ही है? आपसी खींचतान का ही है? नहीं ! इसकी बुनियाद में वह राजनीतिक अपरिपक्वता, वोट बैंक की राजनीति और शीर्ष पर राजनीतिक दृष्टि का अभाव भी है।
अक्सर पूछा जाता है श्रीधरन मेट्रो मैन, दिल्ली मेट्रो में जितने सफल हुए, भारतीय रेल में क्यों नहीं? वे भारतीय रेल में भी अपनी सेवा के शीर्ष पर पहुंचे थे लेकिन हजारों अधिकारियों में से बस एक बनकर रह गए थे। यदि कुछ योगदान दे पाए तो इसलिए कि दिल्ली मेट्रो में उनके पास बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के सारी शक्तियां थी जो किसी भी सीईओ के लिए अनिवार्य है। उनकी इमानदारी, मेहनत, कर्मठता, नैतिकता की छाप उनकी पूरे रेल के जीवन में थी।
रेलमंत्री ने चेयरमैन कम सीईओ की घोषणा तो की है, लेकिन क्या उन्हें वैसी शक्तियां मिल पाएंगी? क्या रेलमंत्री उन्हें इतनी आजादी देंगे? क्या संसद की समितियां उनसे चार हाथ के फासले पर रहेंगी? क्या लोक नायक भवन में बैठे कमीशन सामाजिक न्याय के नाम पर रेल अधिकारियों को दंडवत करने के लिए नहीं बुलाएंगे? क्या नई प्रबंधन सेवा में जाति क्षेत्रों के विभाजन खत्म हो जाएंगे?
वह कौन सी जड़ी बूटी है जो निष्पक्ष, तुरंत निर्णय लेने में सक्षम बनाएगी? निश्चित रूप से भारतीय रेल जो देश की धमनी के रूप में जानी जाती है, उसे और स्वस्थ और कुशल बनाने की जरूरत है। इतने विशाल देश का परिवहन एक मजबूत रेल नेटवर्क से ही संभव है। अंग्रेजों ने भी इसी के बूते इस देश को बांध रखा था। इसे देश की रीढ़ भी कहा जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं।
लेकिन 21वीं सदी, समाज की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं के अनुरूप इसे बदलना ही होगा। 50 के दशक की समाजवादी नीतियां, अधिकारियों की फिजूलखर्ची, सामंतवादी सोच, लालफीताशाही, सरकारी ढर्रे से यह नहीं सुधर सकती। और न कारपोरेट पूंजी के सिर्फ मुनाफा कमाने के औजार के रूप में इसे बर्बाद करने की इजाजत दी जा सकती है।
‘निजीकरण’ शब्द सुनते ही उन नकली, सरकारी समाजवादियों से भी पूछने की जरूरत है कि क्या रेल को बचाने के लिए नई कार्य संस्कृति की जरूरत नहीं है? रेलवे के इस बड़े परिवर्तन को एक भूचाल की तरह चारों तरफ महसूस किया जा रहा है। रेल के अंदर और बाहर दोनों तरफ!
हम सबको सजग रहकर सुधार के सुझाव देने होंगे और बदलाव के लिए तैयार भी रहना होगा। रेलमंत्री और मंत्री समूह को भी लचीलापन और प्रगतिशीलता का परिचय देना होगा। केवल तभी नई सदी में रेलवे एक संगठन के रूप में बचेगी, अपनी सार्थक भूमिका निभा पाएगी।
*#प्रेमपाल शर्मा (पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय)।
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