एक श्रेष्ठ व्यंग्य संग्रह ‘मेरा इनाम वापस लो’
‘मेरा इनाम वापस लो’ प्रतिष्ठित व्यंग्यकार लेखक और बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. रवीन्द्र कुमार का यह मात्र एक व्यंग्य संग्रह ही नहीं है, वरन हमारे समाज, देश, दुनिया, संस्कारों, पीढ़ियों के व्यवहारगत परिवर्तन का एक विस्तृत आलोकन भी है, जिसमें यह सोचना पड़ता है कि क्या कोई महत्वपूर्ण विषय छूटा भी है? मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों का जैसा जीवंत, रोचक चित्रण इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं में है, उससे डॉ. रवीन्द्र कुमार की समाजिक जीवन के प्रति गहरी एवं पैनी दृष्टि सभी लेखों में दृष्टिगोचर होती है।
साहित्य की विधाओं में गद्य लेखन कठिन माना गया है। ‘गद्य कवीनां निकंष वदंति’ के अनुसार गद्य लेखन में लेखक की प्रतिभा का आकलन बेहतर तरीके से हो सकता है। गद्य लेखन में, व्यंग्य-लेखन तुलनात्मक रूप से अधिक चुनौती भरा है। डॉ. रवीन्द्र कुमार के विषय हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं, वे उन पर पैनी नजर रखते हुए समाज को आगाह भी करते हैं।
विषयों का ऐसा विस्तृत फ़लक उनके लेखों/रचनाओं/व्यंग्य में है, जिनकी बानगी यत्र-तत्र-सर्वत्र मिलेगी। प्रशासन, क्रिकेट, राजनीति, सरकारें, राजभाषा, भ्रष्टाचार, साक्षात्कार, फारेन रिटर्न, शिक्षा नीति, वेतन आयोग, सरकारी कार्यालय, अंग्रेज़ियत, भाषा नीति, जीवन शैली आदि आदि सभी क्षेत्रों पर माइक्रोस्कोपिक विश्लेषण इस संग्रह में सुलभ है। “बिन चमचा सब सून” में कार्यालयों में चमचागीरी पर पैनी दृष्टि डाली गई है।
“…चमचागीरी एक महत्वपूर्ण कला है… नौकरी के दौरान कदम-कदम पर आपको चमचों और उनकी कला से दो-चार होना पड़ता है। दफ्तरों में विदाई समारोह बड़े जोर-शोर से आयोजित किए जाते हैं। आपका विदाई समारोह हो तो भाषण सुनकर आपको वाकई लाग्ने लगता है कि आप कितने महान हैं और ये लोग अब कैसे जिएंगे? घबराएँ नहीं…. अपने अफसर की बदली या विदाई के समय चमचों की दशा बहुत दयनीय हो जाती है। यद्यपि तजुर्बेकार चमचे ऐसे भौतिक परिवर्तनों से घबराया नहीं करते।” (पृष्ठ 49)
सरकारी ज़मीन हड़पने वालों पर लेखक की दृष्टि जाती है – “ये पार्क शहर की सुरक्षा, समाज की सुरक्षा के लिए खतरा हैं। रात-बिरात अपराध, दिन में चरस-गाँजा, असामाजिक तत्व ही इसका प्रयोग करते पाये गए हैं। शाम ढलते-ढलते ज़रूर कभी-कभार वृद्ध लोग और सास-बहू सीरियल की सासें मजमा जमा लेती हैं…. कोई काम-धाम है या नहीं। भला हो आपका आपने ये पार्क घेर लिए।” (पृष्ठ 189)
अभी हाल में अवकाश प्राप्त हुए सरकारी सेवकों का चित्रण रोचक बन पड़ा है “अब आप समाचार पत्र पढ़ते नहीं हैं, बल्कि पूरा का पूरा चाट लेते हैं। एक-एक विज्ञापन तक पढ़ डालते हैं। आज शाम को क्या पकेगा? इस विषय पर आप सेमीनार तक कर सकते हैं। कहीं कोई समारोह हो, फंक्शन हो, आप सदैव जाने को तत्पर रहते हैं। वो बात दीगर है कि जबसे पता लगा है कि आप रिटायर हो गए हैं… इन्वीटेशन भी बहुत कम हो गए हैं।” (पृष्ठ 144)
इस व्यंग्य संग्रह के नाम वाली व्यंग्य रचना पुरस्कारों के वापस करने का रोचक और चुटीला चित्रण करती है। “आजकल इनाम लौटाने की होड़ लगी हुई है। मैंने भी सोचा मेरे पास भी एक दो इनाम हैं, भले साहित्य के न सही। दरअसल मेरे इनाम आलू दौड़ और तीन टांग दौड़ के हैं, स्कूल के टाइम के। आखिरकार इनाम तो इनाम हैं और उन्हें वापस करने में मुझे वैसी ही गरिमा और प्रतिष्ठा का एहसास कराना सरकार का कर्तव्य है जैसा कि वह अन्य साहित्यिक रचयिताओं को करा रही है। प्राइम टाइम में इस पर बहस होनी चाहिए। मैं चाहता हूँ कि पात्रा हों या गोस्वामी, रवीश हों या अभिज्ञान, सब दो-चार दिन गला फाड़-फाड़कर मेरा ही ज़िक्र करें।” (पृष्ठ 270)
मिलावटखोरी तथा नकली सामानों की समस्या लेखक को विचलित करती है, “नकली से निजात नहीं। मिलावटी दूध से, नकली चाय से आपका दिन शुरू होता है। नकली मिर्च-मसालों में बना नकली अंडों के नाश्ते को खाने के बाद आप मिलावटी पेट्रोल के अपने वाहन में दफ्तर पहुँचते हैं। नकली टूथपेस्ट, नकली साबुन से धुले-धुलाये, मिलावटी अन्न-दाल खाकर आप बीमार पड़े, डॉक्टर के पास भागे जाते हैं। आपकी किस्मत से डॉक्टर अगर नकली नहीं है, तो दवाई जरूर नकली है। यहाँ तक कि इन सबसे तंग आकर अगर आप आत्महत्या भी करना चाहें, तो उतना आसान नहीं है। रस्सी टूट सकती है। (आपके वजन से नहीं, नकली है इसलिए) जहर खाकर भी आप बच सकते हैं। …तो देखिये, नकली का कितना बोलबाला है। नकली मेकअप, आभूषण पहनकर आधुनिकायेँ अच्छी-अच्छी सुंदरियों को भी मात दे देती हैं। ब्यूटी पार्लर तो नकली की नींव पर ही खड़े हैं। विग, भवें, नाखून, बोलो जी क्या-क्या खरीदोगे। …तरक्की करते-करते अब तो हम उस स्टेज पर आ गए हैं कि एक दिन पड़ोसी के बड़े ज़ोर से पेट में दर्द हुआ, बार-बार बाथरूम को दौड़े जाते थे, पता चला कि उन्होने कहीं से एक गिलास शुद्ध दूध पी लिया था और तभी से तबीयत खराब हो गई, आखिर शरीर को आदत जो न थी।” (पृष्ठ 25)
व्यंग्य की विधा में भी ललित लेख, लिखने में डॉ. रवीन्द्र कुमार समर्थ हैं। उसमें व्यंग्य का तड़का उसे और भी आनंदवर्धक बना देता है। लेखक निंदा पर लिखते हैं, “निंदा का हमारे देश में ऐतिहासिक महत्व है। हमारे ऋषि-मुनि भी कह गए हैं, “निंदक नियरे राखिए…” पर निंदा रस सभी रसों में सर्वोपरि है। आप कह सकते हैं कि निंदा रस सभी रसों का राजा है। निंदा ने यह पदवी, श्रंगार रस को पदच्युत करके हासिल की है। निंदा से बड़ा आत्मिक संतोष मिलता है और दोनों के मनो-मस्तिष्क में स्फूर्ति सी छा जाती है। दोनों यानि कि करने वाले और सुनने वाले दोनों के। वह भी बिना हींग फिटकरी के। दो निंदक जहां इकट्ठे हो जाएँ, वहाँ तो समझो दीवाली जैसे पटाखे फूटने लगते हैं। प्राय: भारत में जिस प्रकार सभी धर्मों के अनुयायी पाये जाते हैं, उसी प्रकार के निंदनीय से निंदनीय निंदक प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। फिर भी प्रमुखत: पड़ोसी-निंदक, रिश्तेदार निंदक, बॉस निंदक आपको सभी मौसमों और प्रदेशों में मिलेंगे।” (पृष्ठ 284)
“मुहावरे इक्कीसवीं सदी में“ में कुछ प्रचलित मुहावरों— ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’, ‘एकता में शक्ति’, ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’, ‘आज नकद कल उधार’, ‘सस्ता रोये बार-बार महंगा रोये एक बार’ और ‘नेकी कर कुएं में डाल’ पर आज के जीवन और सोच का रोचक एवं पैना चित्रण है।
साहित्य की आयुधशाला में व्यंग्य एक खंजर, गुप्ती, पनडुब्बी की मिसाइल जैसी होती है, जो बिना स्पष्टत: बताए सही जगह पर वार करती है। डॉ. रवीन्द्र कुमार निश्चित रूप से इन आयुधों के प्रयोग में प्रवीण हैं।
कहते हैं ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम’ परंतु व्यंग्यशास्त्र के प्रयोगधर्मी डॉ. रवीन्द्र कुमार के व्यंग्य संग्रह ‘मेरा इनाम वापस लो’ की एक बार शुरू करने के बाद आप बिना पूरा पढ़े, उसे छोड़ नहीं सकते। यह लेखक की रचना की उत्कृष्ट सफलता का प्रतीक है।
– ओमप्रकाश मिश्र
पूर्व रेल अधिकारी एवं पूर्व प्राध्यापक, अर्थशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
66, इरवो संगम वाटिका, देव प्रयागम, झलवा, प्रयागराज, उ.प्र. पिन 211015, मो.7376582525
‘मेरा इनाम वापस लो’
लेखक: डॉ. रवीन्द्र कुमार, Rtd. IRPS
समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद
वर्ष 2019, प्रथम संस्कारण
पृष्ठ 368, मूल्य छ्ह सौ रुपये।