राष्ट्रहित, रेलहित और कबीलाई हित में सर्वोपरि कौन?
रेलवे बोर्ड मेंबर्स और एक हाथी-छह अंधों की कहानी
जागो ग्राहक जागो, अठन्नी-चवन्नी से भला नहीं होगा
संजीव कुमार सिंह
भारतीय रेल की उच्चतर संस्था रेलवे बोर्ड को समझना हो तो हाथी और गांव के छह अंधों की कहानी को फिर से याद करना होगा. अंतर सिर्फ इतना है कि यहां इन छह अंधों के साथ-साथ ये लोग अपने अपने कबीले के सरदार भी हैं और अपनी बातों को परम सत्य मानते हैं. बुद्धिमान व्यक्ति के हस्तक्षेप के बाद ये छह अंधे तो हाथी को समझ जाते हैं और आपसी तर्क-वितर्क तथा झगड़े को समाप्त करके एक बेहतर ज्ञान का अवदान करते हैं. किंतु रेलवे बोर्ड के इन 6 कबीला प्रेमी अंधों को कोई बुद्धिमान नहीं समझा सकता, इसलिए यह राष्ट्रहित और रेलहित को कभी नहीं समझ पाते और हमेशा अपने कबिलाई हित को ही सर्वोपरि रखते हैं.
हाथी की कहानी में बुद्धिमान व्यक्ति के कौशल का भी लोहा मानना होगा कि उसने सभी अंधों के तर्कों को सुना और उसके बीच सामंजस्य बैठाकर एक नए ज्ञान का अनुबोध कराया. भारतीय रेल में बुद्धिमान व्यक्ति की भूमिका में दो व्यक्ति हैं. पहला, अध्यक्ष रेलवे बोर्ड तथा दूसरा, रेलमंत्री. दुर्भाग्य से पहला बुद्धिमान व्यक्ति, अध्यक्ष रेलवे बोर्ड कभी भी अपने कबीलाई प्रेम से बाहर नहीं निकल पाए और हमेशा उनके हितों को साधने की चेष्टा करते रहे हैं. यही कारण है कि दूसरे बुद्धिमान व्यक्ति अर्थात रेलमंत्री को हमेशा पक्षपातपूर्ण तरीके से प्रभावित करते रहे हैं, जिससे राष्ट्रहित की जगह कबीलाहित का पक्ष ज्यादा भारी रहा है. यही वजह है कि आजादी के समय चीन की रेलवे हमसे काफी पीछे थी, जो कि आज हमसे कई गुना आगे बढ़ चुकी है. चीन के इंजीनियर्स 300 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से बुलेट ट्रेन चला रहे हैं और हम आज भी 180 किमी प्रतिघंटा की गति की ट्रेन का ट्रायल कर रहे हैं.
मामला ‘सदस्य कार्मिक’ के पद को कार्मिक सेवा के अधिकारियों द्वारा भरे जाने का लें. प्रारंभ में वर्ष 1905 के ऐक्ट के द्वारा रेलवे बोर्ड के एक सदस्य सामान्य प्रशासन, यातायात तथा कार्मिक मामलों के लिए जिम्मेदार होते थे. तत्पश्चात वर्ष 1929 में कार्मिक मामलों हेतु एक अन्य सदस्य के पद का सृजन किया गया, जिसे सदस्य कार्मिक कहा गया. वर्ष 1980 में, भारतीय रेल के मानव संसाधन के अत्यधिक कुशल प्रबंधन हेतु भारतीय संसद ने एक नई विशिष्ट सेवा, ‘भारतीय रेल कार्मिक सेवा’ का गठन किया. वर्ष 1988 में एक और सदस्य के पद सृजन के साथ ही भारतीय रेल की उच्चतम निर्णयकारी संस्था ‘रेलवे बोर्ड’ में कुल छः सदस्य तथा एक अध्यक्ष हो गए.
इनमें सदस्य कार्मिक को छोड़कर पांचो सदस्यों का पद अपनी-अपनी सेवा के अधिकारियों से ही भरा जाता है. हाल ही में संवर्ग पुनर्गठन समिति, जिसके अध्यक्ष कैबिनेट सेक्रेटरी होते हैं, ने सदस्य कार्मिक के पद को कार्मिक सेवा के अधिकारियों द्वारा ही भरे जाने संबंधी अनुशंसा की है, जिसे कैबिनेट द्वारा अभी अनुमोदित किया जाना है. इससे पूर्व इस अनुशंसा को वित्तमंत्री तथा कार्मिक राज्यमंत्री का अनुमोदन प्राप्त हो चुका है.
रेलवे के समस्त कबीले भारत सरकार की उच्चतम विधायी संस्थाओं वित्त मंत्रालय तथा कार्मिक मंत्रालय के निर्णय को नहीं मानने के लिए दांव-पेंच कर रहे हैं. भारत सरकार की तमाम नियुक्तियों में योग्यता तथा अनुभव को प्राथमिकता दी जाती है, तो फिर सदस्य कार्मिक का पद कार्मिक सेवा में काम करने वाले 35 साल के अनुभवी अधिकारी को न देकर किसी अन्य अनुभवहीन अधिकारी को सौंपना क्या राष्ट्रहित में है? शायद नहीं.
उदाहरण स्वरूप यहां वर्तमान सदस्य कार्मिक को ही लें. महोदय इंजीनियरिंग सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं. आप इलाहाबाद में इंजीनियरिंग विभाग के एक उच्च पद पर कार्यरत थे. उस दौरान आपने इलाहाबाद मंडल तथा मुख्य कार्मिक अधिकारी के कार्यालय को कई अर्द्धशासकीय पत्र लिखे थे. मामला था 400 भूतपूर्व सैनिकों के पद परिवर्तन का. इन्हें इलाहाबाद मंडल में ट्रैकमैन के पदों पर नियुक्ति दी गई थी. किंतु ये भूतपूर्व सैनिक अपनी योग्यता तथा अनुभव का हवाला देकर उक्त पद पर कार्य करने के लिए इच्छुक नहीं थे. सैकड़ों ट्रैकमैन पद का त्याग कर चुके थे. 20-20 साल के अनुभवी व्यक्ति निम्नतर वेतनमान पर रेलवे में काम करने को तैयार थे. इनकी भर्ती में भी काफी पैसा और समय खर्च हुआ था. इस कारण सक्षम अधिकारी का अनुमोदन लेकर इन्हें इनकी योग्यता एवं अनुभव के अनुसार अन्य विभागों में पदस्थापित कर दिया गया.
मुख्य कार्मिक अधिकारी के कहने पर मैं आपके समक्ष हाजिर हुआ था. आपने दो-टूक शब्दों में कहा था कि चाहे सारे ट्रैकमैन पद त्याग कर दें, किंतु आप किसी भी कीमत पर इनके पद परिवर्तन नहीं कर सकते और आपने ऐसा किया है, तो न सिर्फ आपने नियमों को तोड़ा है, बल्कि आप विजिलेंस केस के लिए भी तैयार रहिए. हमने आपको बताया था कि सर, सिग्नल विभाग में अनुभवी आदमी की नितांत आवश्यकता थी. हमें खुली भर्ती में उस प्रकार के लोग नहीं मिल पा रहे थे. ये भूतपूर्व सैनिक यद्यपि ग्रुप ‘डी’ में भर्ती हुए हैं, किंतु अपने अनुभव के आधार पर सेक्शन इंजीनियर का काम कर सकते हैं. इनके त्यागपत्र देने से किसी का भला नहीं होने वाला था. इसलिए हमने इनका पद परिवर्तन करके इनका सदुपयोग किया है. इससे रेलवे के राजस्व की भी बचत हुई है और इलाहाबाद मंडल के काम में भी सुधार होगा.
बल्कि मैंने आपको यह भी सलाह दी थी कि कुशल और पढ़े-लिखे लोगों को ट्रैकमैन के पद पर रिटेन करने के लिए ट्रैकमैन के कार्य में सुधार हेतु उन्हें नवीनतम मशीनों से सज्ज कीजिए. इनकी हटों का आधुनिकीकरण कीजिए तथा इनकी ट्रेनिंग व्यवस्था में भी आमूलचूल सुधार लाने की जरूरत है. आपके हाव-भाव से मुझे लगा था कि आप सोच रहे होंगे, इसे मैं धमका रहा हूं और ये मुझे सलाह दे रहा है, अजीब आदमी है.
खैर, कार्मिक अधिकारी का कार्य संपूर्ण व्यवस्था को संबल प्रदान करना है. मानव संसाधन के लिए एक हॉलिस्टिक अप्रोच की आवश्यकता है. एक कबीलाई व्यक्ति कभी-भी एक सफल कार्मिक अधिकारी अथवा सदस्य कार्मिक नहीं हो सकता है. इसलिए वर्तमान कार्मिक अधिकारी तथा उनकी तरह बगैर कार्मिक सेवा के अनुभव वाले अधिकारी इस पद के लिए सर्वथा अनुपयुक्त हैं.
आदर्श व्यवस्था तो वह होती जिसमें सदस्य कार्मिक के पद पर मानव संसाधन (HR) में सर्वश्रेष्ठ अनुभवी व्यक्ति को नियुक्त किया जाता, चाहे वह भारतीय रेल कार्मिक सेवा से हो अथवा मानव संसाधान के क्षेत्र में काम करने वाले विश्व की कोई और हस्ती. किंतु ऐसा न करके किसी और अनुभवहीन व्यक्ति को कार्मिक सेवा का प्रभार देना कहीं से भी राष्ट्रहित में नहीं है.
भारतीय रेल कार्मिक सेवा में 13 वर्षों के कार्यकाल के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इन वर्षों में किसी भी सदस्य कार्मिक ने कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय रेल के मानव संसाधन के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. यहां तक कि उस क्षेत्र में होने वाले अच्छे प्रयासों को रोका. इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है-
1. भारतीय रेल के करीब 13.35 लाख कर्मचारियों के हित में एकीकृत मानव संसाधन व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है. इस कंप्यूटरीकृत मानव संसाधन व्यवस्था के लिए निरंतर कार्मिक सेवा के अधिकारियों ने प्रयास किया. किंतु अंत-अंत तक जाते-जाते सदस्य कार्मिक के स्तर पर इसे किसी न किसी प्रकार से दिग्भ्रमित कर दिया गया. इससे कार्मिक प्रबंधन में कर्मचारियों की अनंत समस्याओं का निष्पादन होता, वहीं कार्मिक विभाग की कार्य-प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन होता, जो राष्ट्रहित में था. सदस्य कार्मिक मानव संसाधन व्यवस्था को बनाने वाले ठेकेदार की खोज करते रहे, और आजतक नहीं कर पाए हैं. न उपयुक्त ठेकेदार मिला, न कंप्यूटरीकृत मानव संसाधन व्यवस्था बनी.
2. भारतीय रेल के अधिकांश कर्मचारी रेलवे आवासों की बदतर रख-रखाव और जर्जर व्यवस्था से अत्यधिक परेशान हैं. अधिकांश कर्मचारी यहां तक कि अधिकारी अपने घरों का रंगाई-पुताई स्वयं के पैसे से करते हैं. अधिकारियों को अपने कार्यालय की मरम्मत भी स्वयं अथवा जुगाड़ के पैसे से करवाना होता है. क्या रेल कर्मचारियों का कल्याण सदस्य कार्मिक का कार्य नहीं है? भारत सरकार के अधिकांश मंत्रालयों में आवासों संबंधी शिकायत दर्ज करने के लिए कंप्यूटरीकृत व्यवस्था की गई है. भारत के सबसे बड़े एंप्लॉयर (रेलवे) के पास ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं है? मरम्मत के छोटे से छोटे काम के लिए रेल कर्मचारी को कितने धक्के खाने पड़ते हैं, इसका सर्वे कराने से पता चलेगा. भारतीय रेल के इंजीनियर्स सामान्यता पारदर्शिता विरोधी हैं. एक पारदर्शी व्यवस्था लाने से इनके कबीले की आमदनी में कमी होगी, इस कारण कोई भी इंजीनियरिंग सेवा के सदस्य कार्मिक ऐसी व्यवस्था न लाते हैं, न ही प्रोत्साहित करते हैं.
3. भारतीय रेल के अधिकारी और कर्मचारी राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था से काफी परेशान हैं. कर्मचारियों के दिमाग में हमेशा इस बात का टेंशन है कि उनका भविष्य कैसा होगा. कुछ लोग रेल सेवा के साथ-साथ व्यक्तिगत स्तर पर कोई व्यवसाय अथवा अन्य कार्य के लिए प्रयासरत हैं. किंतु, अधिकांश रेल कर्मचारी अपने भविष्य के प्रति दिशाहीन महसूस कर रहा है. दोनों ही प्रकार से भारतीय रेल के प्रति उनके समर्पण में कमी हो रही है. सदस्य कार्मिक को अपनी पहुंच और काबिलियत का प्रयोग इन कर्मचारियों की दुविधा को दूर करने के लिए करना चाहिए, न कि लॉबिंग करके सदस्य कार्मिक के पद को अपने कबीले के लिए सुरक्षित करने में. रेल मंत्रालय रेल कर्मचारियों को इस दुविधा से निकालने में पूरी तरह सक्षम है. चाहे भारत सरकार नेशनल पेंशन सिस्टम में बदलाव न ला पाए. सदस्य कार्मिक के पास ऐसे संसाधन हैं अथवा उनको बढ़ाया जा सकता है, जिससे रेल कर्मचारियों को न्यूनतम पेंशन दिया जा सके. मेरा इशारा सामाजिक सुरक्षा स्कीम बनाकर न्यूनतम पेंशन में कमी की प्रतिपूर्ति करने से है.
4. विवेक देवराय कमिटी की सिफारिशों के तहत भारतीय रेल की आठों संगठित सेवाओं को दो भागों में बांटने की अनुशंसा का क्या हुआ? सदस्य कार्मिक तथा पहले बुद्धिमान व्यक्ति का निर्णय हुआ कि नहीं जी, विवेक देवराय कमिटी की सिफारिशें दोषपूर्ण हैं. दो की जगह एक सेवा बना दी जाए अर्थात भारत-पाकिस्तान को एक कर दिया जाए. एक धर्मनिरपेक्ष और दूसरा धर्मपरस्त. जिससे सदा-सर्वदा के लिए सिविल सेवाओं पर तकनीकी सेवाओं का आधिपत्य कायम हो जाए. इस समय भी सदस्य कार्मिक ने राष्ट्रहित और रेलहित की जगह कबीलाई हित को ही सर्वोपरि माना. शायद यही कारण है कि विवेक देवराय साहब ने रेलवे की सिफारिश करने के बाद धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना शुरू कर दिया है. शायद उन्हें धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद, रेलवे की सिफारिश में समय व्यतीत करने से ज्यादा उपयोगी लग रहा है. वह इन छः अंधों को बुद्धिमान व्यक्ति की तरह समझाने की कोशिश कर रहे थे और खुद ही समझ गए कि यहां हाथ मारना पानी को पीटने के बराबर है.
5. कुछ महीने पूर्व माननीय रेलमंत्री ने कई टीवी चैनलों के माध्यम से घोषणा की कि रेल की समस्त समस्याओं का समाधान उन्होंने ढूंढ लिया है और अब संयुक्त सचिव के ऊपर के पदों पर जो लोग कायम हैं, उनकी सेवाओं को एकीकृत कर दिया जाएगा, जिससे विभागवाद की समाप्ति हो जाएगी.. और जब विभागों के उच्च पदों पर कोई विवाद नहीं होगा, तो नीचे भी विवाद समाप्त हो जाएगा. माननीय रेलमंत्री को जिस किसी ने भी यह ज्ञान दिया था, बड़ा ही शरारतपूर्ण था. ऐसा करने से पहले बुद्धिमान व्यक्ति के कबीले का साम्राज्य कायम हो जाता, क्योंकि उनकी सेवाओं में सबसे कम उम्र में अधिकारियों का आगमन होता है. सिविल सेवा के दो अन्य विंग ने इसका पुरजोर विरोध किया. किंतु कार्मिक सेवा के अधिकारियों ने रेलमंत्री के सुझाव का समर्थन इस सलाह के साथ किया कि इन पदों पर पदस्थापना करते वक्त आठों सर्विसेस के अनुपात का ध्यान रखा जाए. सदस्य कार्मिक को बताना चाहिए कि रेलमंत्री की उक्त घोषणा का क्या हुआ?
इस प्रकार के कई और मामले हैं जिनका समाधान और जिन पर विचार सदस्य कार्मिक को करना है, किंतु मैं उन बिंदुओं पर अभी यहां चर्चा नहीं करूंगा, बल्कि इससे इतर रेलवे बोर्ड और भारतीय रेल के सुचारु प्रबंधन के लिए कुछ सलाह देना चाहूंगा.
चलिए, विवेक देवराय समिति की सिफारिशों को लागू करना नहीं चाहते, कोई बात नहीं. तमाम विधायी मंत्रालयों की अनुशंसा के बावजूद भारतीय रेल कार्मिक सेवा के अधिकारियों को सदस्य कार्मिक का पद देना नहीं चाहते, कोई बात नहीं, लेकिन राष्ट्रहित में आप निम्न निर्णय अवश्य लें-
अ. सदस्य कार्मिक का पद एक निष्पक्ष और स्वतंत्र व्यक्ति के हाथ में दें, जिसे मानव संसाधन का विशेष ज्ञान हो एवं मानव संसाधन के विषय में निरंतर कार्य करते रहे हो, आप निजी क्षेत्र के किसी अनुभवी व्यक्ति को पदस्थापित करें अथवा प्रशासनिक, शैक्षिक और सामाजिक क्षेत्र के किसी विद्वान व्यक्ति को, हमें कोई आपत्ति नहीं, लेकिन ऐसे सदस्य कार्मिक को कार्मिक प्रबंधन की उन तमाम शक्तियां प्रदान करें, जो किसी निजी क्षेत्र में होता है अर्थात समस्त स्थानांतरण, पदोन्नति, कर्मचारी संबंधित नियम, विधान. साथ ही साथ अनुशासनात्मक कार्रवाई तक की शक्तियां निहित हों.
ब. भारतीय रेल चीन की तुलना में विकसित क्यों नहीं हो पाई, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि भारतीय रेल के समस्त उच्चाधिकारी अपना अधिकांश समय अपने कैडर प्रबंधन अथवा कुप्रबंधन, अपने कबीले के लिए अत्यधिक सामान्य प्रशासन के पद आदि हड़पने तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई इत्यादि में लगाते हैं. अपने विभाग से संबंधित इंजीनियरिंग का काम शायद ही करते हैं और यदि करते भी हैं, तो एक ही काम की निगरानी विभिन्न स्तरों पर की जाती है, जिससे बड़े पैमाने पर मानव संसाधन की क्षति हो रही है.
स. मानव संसाधन के कार्य से अन्य सभी अधिकारियों को मुक्त करने से उनका ध्यान अपने विभाग के कोर कार्यों पर जाएगा, जिससे विभिन्न स्तर के सुधार कर पाएंगे. अभी रेल का पूरा महकमा यथास्थिति को बरकरार रखने में पूरी एनर्जी लगाता है. उसकी जगह कुछ रिसर्च और नई जानकारी भी इकट्ठा कर पाएंगे, जिससे राष्ट्र और रेलवे का भला होगा.
द. चेयरमैन, रेलवे बोर्ड का पद भी एक निष्पक्ष विशेषज्ञ द्वारा भरा जाना चाहिए. आप नंदन नीलकेणी, सुंदर पिचाई अथवा ऐसी ही किसी अन्य शख्सियत को इस पद पर बैठा सकते हैं. कम से कम भारतीय रेल में दो लोग सदस्य कार्मिक और चेयरमैन, रेलवे बोर्ड तो निष्पक्ष सोच के होने ही चाहिए. इन दोनों पदों पर हमेशा कबीलाई सोच के व्यक्तियों के कब्जा रहने से रेल और राष्ट्र का बड़ा नुक़सान हो रहा है. रेलमंत्री जी आज की तारीख में भारतीय रेल की उच्चतम संस्था में महज चेयरमैन, रेलवे बोर्ड और सदस्य कार्मिक का पद ही एक्स-कैडर है. हम चाहते हैं कि आप इसे एक्स-रेल कर दें, जिससे विश्व के सर्वोत्तम लोग इन दोनों पदों को सुशोभित कर सकें. फिर भारतीय रेल की समस्या सुधारने तथा विकास को गति देने की जिम्मेदारी इन दोनों पर छोड़ दें. शायद इससे अच्छा योगदान भारतीय रेल और राष्ट्र के लिए रेलमंत्री रहते हुए कुछ और नहीं हो सकता. वर्ष 1901 में अंग्रेजों ने फ्रैंक डिसूजा नामक एक गार्ड को पहली बार (एक भारतीय को) रेलवे का मेंबर बनाया था, जबकि अन्य दो सदस्य भारतीय सिविल सेवा के अंग्रेज अधिकारी थे. इसकी सीख यह है कि विकास को दिशा देने के लिए हमें सर्वश्रेष्ठ दिमाग को मौका देना चाहिए, न की कबिलाई सोच के उन व्यक्तियों को, जिनका एक मात्र उद्देश्य अपने कबीले और अपना हितसाधन करना है.
महोदय, एक रेल अधिकारी होते हुए इस प्रकार के निबंध लिखने की शक्ति का स्रोत आप कहीं और मत ढूंढिएगा. इसका स्रोत टीवी पर आने वाला एक सरकारी विज्ञापन है, जिसमें कहा जाता है- ‘जागो ग्राहक जागो. अब जरा सोचिए, आप अठन्नी-चवन्नी के लिए हमें जगा रहे हैं, तो क्या राष्ट्र और रेलवे की बेहतरी के लिए हम सोए रहेंगे?
(लेखक भारतीय रेल कार्मिक सेवा [आईआरपीएस] के 2005 बैच के अधिकारी हैं और फिलहाल भारत सरकार, कार्मिक मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति पर कार्यरत हैं)
साभार : “नेशनल व्हील्स” पोर्टल