सिविल सेवा परीक्षा—सपना और हकीकत—कुछ जरूरी प्रश्न

इन प्रश्नों का संबंध सिविल सर्विस परीक्षा से इसलिए है कि जब तक इसमें चुने हुए नौकरशाहों की नीयत ईमानदार नहीं होते, भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होते, राजनीतिक हस्तक्षेप कम नहीं होता, और जब तक पूरी परीक्षा प्रणाली और शिक्षा में सुधार नहीं होता, तब तक हमारा सर्वश्रेष्ठ इन सेवाओं में नहीं जाएगा। गलती इन नौजवानों की नहीं है, गलती उस लोकतंत्र के पूरे ढ़ाँचे की है और सरकार को इसे तुरंत बदलने की नितांत आवश्यकता है!

केंद्रीय लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आयोजित देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सिविल सेवा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों की गूंज हर वर्ष की तरह चारों तरफ है। सोशल मीडिया और अनगिनत चैनलों के चलते पिछले कुछ वर्षों में इतना अवश्य हुआ है कि देश के दूरदराज हिस्से तक भी इस परीक्षा और इसके रुतबे को लोग जानने लगे हैं। अब किसी भी सूचना के लिए केवल सरकारी रेडियो-टेलीविजन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता और इसी का परिणाम है कि गांव-कस्बे के बच्चे आईएएस, आईपीएस परीक्षा के बारे में बेहतर जानकारी रखते हैं, बल्कि शहरी-महानगरी अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों से ज्यादा, क्योंकि वहां तो केवल एमबीए, चार्टर्ड अकाउंटेंट और अंग्रेजी के बूते विदेश के सपने की शिक्षा और पाठ्यक्रम ज्यादा रटाया जाता है! भारतीय संदर्भ समस्याओं से एकदम दूर! जबकि गांव-कस्बों के बच्चों का पाला क्षेत्र के डीएम-एसडीएम-पुलिस कप्तान से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष होता ही है। अब उनका सपना हकीकत में बदले या नहीं, यह हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह है।

हाल ही में घोषित परिणामों में 6 लाख परीक्षार्थियों में से अंतिम रूप से लगभग 1000 चुने गए हैं। पिछले कई वर्षों से लड़कियां पहले 10 में टॉपर रहती हैं। इस बार भी शक्ति दुबे टॉपर रहीं और पहले 25 रैंक में 11 लड़कियां हैं। कुल  मिलाकर 29 प्रतिशत। हर साल इसमें वृद्धि हो रही है। यह नारी शक्ति या कहें स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सुखद खबर है। मौजूदा सरकार ने जब से आईआईटी जैसे संस्थानों में लड़कियों का प्रतिशत बढ़ाया है, इंजीनियरिंग और तकनीकी क्षेत्र में भी लड़कियां ज्यादा आ रही है।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों की समीक्षा की जाए, तो इस परीक्षा के विरोधाभास भी कम नहीं है। लगभग 70%  उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता इंजीनियरिंग मेडिकल जैसे तकनीकी क्षेत्र में है, लेकिन इनमें से 80% से ज्यादा का यूपीएससी की परीक्षा में वैकल्पिक पेपर सामाजिक विज्ञान जैसे समाजशास्त्र, एंथ्रोपॉलजी, राजनीति शास्त्र आदि होते हैं। इस बार की टॉपर शक्ति दुबे बनना चाहती थी डॉक्टर, लेकिन पढ़ाई विज्ञान में की और यूपीएससी में विषय राजनीति शास्त्र चुना।

तीसरी रैंक पाए डोंगरे का विषय फिलॉसफी है और चौथे पांचवें दोनों का समाजशास्त्र। यहां विषय की बात इसलिए जरूरी है कि इनमें से  80 प्रतिशत इंजीनियरिंग की डिग्री आईआईटी आईआईएम जैसे संस्थानों से होती है और यह सिविल सेवा परीक्षा में वैकल्पिक विषय अलग देते हैं। प्रश्न अच्छे और बुरे विषय का नहीं, शिक्षा व्यवस्था और यूपीएससी में कोई तालमेल नहीं होने का है। यदि 80% से ज्यादा उम्मीदवार इन्हीं विषयों को चुनते हैं, तो क्यों नहीं ग्रेजुएशन का पाठ्यक्रम सिविल सेवा विषय शुरू कर दें।

दूसरा महत्वपूर्ण विरोधाभास अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं का है। अंग्रेजी मातृभाषा वाले इस देश में दो प्रतिशत भी नहीं होंगे, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में 95 प्रतिशत उम्मीदवार अंग्रेजी माध्यम से ही चुने जाते हैं। भारतीय भाषाओं के मुश्किल से पांच प्रतिशत। 2011 में प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी का दुष्परिणाम यह हुआ कि देश के नौजवान अंग्रेजी स्कूलों की तरफ ही झुकते चले गए और यह इस सरकार की भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की नीति के बावजूद भी वैसा ही क्रम जारी है।

महंगे अंग्रेजी स्कूलों की तरफ कौन जा सकता है, वही जो क्रीमी लेयर में है। महानगर में रहकर महंगे कॉलेज-स्कूलों में पढ़ने और कोचिंग करना देश के 90% गरीबों की औकात से बाहर है। अखबारों में चंद उम्मीदवारों की कहानी बार-बार छपती हैं, विशेष कर “12वीं फेल” फिल्म के बाद तो और भी बढ़ा-चढ़ाकर। लेकिन गौर करें, इनके माता-पिता अवश्य गांव में पैदा हुए या इनका केवल जन्म वहां हुआ होगा, इनमें से 90% की सफलता का श्रेय महानगर के कॉलेजों और कोचिंग सेंटर्स को है।

मीडिया में उनकी सफलता के जलजले के बाद हमारे विश्वविद्यालय तो वहीं खड़े हैं, कोचिंग संस्थान अपनी सूझबूझ मेधा मेहनत के बूते इस पूरी पीढ़ी को बेहतर ढ़ंग से आकर्षित कर रहे हैं। वहां न सामाजिक न्याय की बेड़ियां हैं, न फीस की। जो पैसा खर्च करेगा—कुछ अपवादों को छोड़कर—सफल होने का इनाम पाएगा।

भाषा और अमीरी ने देश के लोकतंत्र को जाति-धर्म-क्षेत्र के अलावा इस एक और तरीके से बांट दिया है, लेकिन इसमें दोष उन उम्मीदवारों का नहीं, लोकतंत्र के नेताओं और बुद्धिजीवियों का है, जो इसके खोखलेपन की तरफ देखते ही नहीं है।

पिछले 10 वर्षों से ज्यादा समय से यूपीएससी की एक और बड़ी दरार सामने आ रही है, और वह है-इसकी पूरी परीक्षा प्रणाली। इस बार की टॉपर पहले तीन बार प्रारंभिक परीक्षा में फेल होती रही और पांचवी बार देश में टॉप रही है। दूसरी रैंक की हर्षिता गोयल भी पहले दो बार प्रारंभिक परीक्षा में फेल हुई। आप पिछले 10 वर्ष के रेकॉर्ड उठाकर देख लीजिए, प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में कोई तालमेल नजर नहीं आता। दौलत सिंह कोठारी रिपोर्ट 1979 में लागू हुई थी और वह परीक्षा प्रणाली 2011 तक ठीक रही। उस पूरे दौर में ऐसे विचित्र परिणाम कभी नहीं आए।

अब कई बार तो ऐसा भी हो रहा है कि पहले प्रयास में आईपीएस मिल गया और उसके बाद आप चार बार प्रारंभिक परीक्षा भी पास नहीं कर पाए, मानो यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा लॉटरी या जुआ हो। पहले ही चरण में असफल होना हजारों लाखों नौजवानों के सपनों को धराशाई कर देता है। बहुत कम ऐसे हैं जो उससे उबरकर अपनी यात्रा जारी रख पाते हैं। यात्रा जारी रखने के लिए भी तो पैसा चाहिए।

ऐसे अमीर उम्मीदवारों की भी कमी नहीं है, जो 10-10 वर्षों तक महानगर में किराए पर कमरा लेकर इस संघर्ष में लगे हुए हैं। यूपीएससी ने नियम ही ऐसे बना रखे हैं कि उम्र सीमा सामान्य के लिए 32 और आरक्षित में 37 वर्ष तक है। वर्षों से कई कमेटियों ने उम्र सीमा कम करने का सुझाव दिया है, लेकिन ऐसी कौन सी राजनीतिक मजबूरियां हैं कि किसी शासन-प्रशासन के कानों पर जूँ नहीं रेंगती। मौजूदा मजबूत सरकार ही नौकरशाही में सुधार कर सकती है।

परीक्षा में सफल होने के बाद की नैतिकता की बात तो नहीं ही की जाए, तो अच्छा है। वैसे नैतिकता उर्फ एथिक्स का एक पेपर यूपीएससी की मुख्य परीक्षा में प्रमुख रूप से शामिल है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा। 6 वर्ष पहले जिस उम्मीदवार को नैतिकता के पर्चे में यूपीएससी ने सर्वोच्च नंबर दिए थे और जिसकी बदौलत वह आईपीएस बना था, अगले वर्ष यूपीएससी की मुख्य परीक्षा में वह नकल करते हुए पकड़ा गया।

हमारे मीडिया को कभी-कभी ऐसे अधिकारियों की गाथा भी पहले पृष्ठ पर उजागर करनी चाहिए, जो अपने प्रोबेशन के समय में ही भ्रष्टाचार आदि में पकड़े गए। पूजा खेडकर का मामला तो अभी आपकी स्मृति में होगा ही, कैसे उन्होंने आरक्षण का सर्टिफिकेट पाया। क्रीमी लेयर से कैसे बची, और कैसे यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय को धता बताते हुए ऐसी सुविधाओं की मांग करने लगी जहां उसका भांडा फूटा। लेकिन जिन्होंने उसको ऐसे सर्टिफिकेट दिए, क्या उनके खिलाफ भी वैसी ही कार्यवाही नहीं होनी चाहिए थी? क्या इन्हीं में से कुछ लोग उन्हें पदों पर पहुंचाकर वैसे ही भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हो जाते?

क्या सरदार पटेल ने इन सेवाओं को “स्टील फ्रेम” इसीलिए कहा था, जिस पर अब पूरी तरह से जंग लग चुका है। जो आ रहे हैं, वे सुविधा और पावर स्ट्रक्चर में शामिल होने के लिए। उनकी शिक्षा-भाषा और अनुभव भी देश की 90% जनता से दूर ही रही है। जिन्हें यह भ्रष्टाचार मंजूर नहीं, वे अच्छी खासी संख्या में नौकरी छोड़ रहे हैं, फिर वह चाहे आयकर विभाग हो या भारतीय रेल, या दूसरे विभाग। क्या सरकार को शिक्षा और भर्ती नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं करना चाहिए?

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों के आईने में हमारे केंद्रीय मंत्री ने स्टार्टअप कंपनियों की तरफ इशारा किया कि वे केवल सर्विस सेक्टर में हैं, यानि खाना भेजना, माल सप्लाई करना। चीन की तरह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रोबोटिक्स में क्यों नहीं? अच्छा हुआ यह उन्होंने खुद स्वीकार किया और इसी से आक्रोशित आईआईटी आदि से निकले नौजवानों ने आक्रोश व्यक्त किया कि हमें अपने स्टार्टअप के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट और नौकरशाही के इतने चक्कर लगाने पड़ते हैं कि कि हमारी बुद्धि और कृत्रिम बुद्धि दोनों ही मंद पड़ जाती है। यह हकीकत है। कुछ ने तो यह तक भी कहा कि क्या सरकार चीन की तरह चीन इजरायल जापान की तरह विज्ञान और डेवलपमेंट में उतना पैसा खर्च कर रही है?

इन प्रश्नों का संबंध सिविल सर्विस परीक्षा से इसलिए है कि जब तक इसमें चुने हुए नौकरशाहों की नीयत ईमानदार नहीं होते, भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होते, राजनीतिक हस्तक्षेप कम नहीं होता, और जब तक पूरी परीक्षा प्रणाली और शिक्षा में सुधार नहीं होता, तब तक हमारा सर्वश्रेष्ठ इन सेवाओं में नहीं जाएगा। गलती इन नौजवानों की नहीं है, गलती उस लोकतंत्र के पूरे ढ़ाँचे की है और सरकार को इसे तुरंत बदलने की नितांत आवश्यकता है।

#प्रेमपालशर्मा, पूर्व संयुक्त सचिव भारत सरकार, 96 कला विहार अपार्टमेंट, मयूर विहार, नई दिल्ली। मोबाइल 9971399046.
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