September 25, 2024

चौकड़ी बंद… चौपड़ी शुरू…

कहते हैं न कि जीवन चलने का नाम है.. चलते रहो.. सुबहो-शाम। अत: जब आपने एक कंधे पर 1857 के गदर के टाइम की बंदूक और दूसरे कंधे पर रेलवे की सम्पति की रक्षा का गुरूत्तर भार लिया है, तो निभाना तो पड़ेगा!

व्यंग्य : डॉ रवीन्द्र कुमार

एक समाचार — आरपीएफ वालों को ‘यात्रियों से कैसे बरताव किया जाए’ ऐसी पुस्तिका दी जाएगी

चौकी वालो ! चौकस हो जाओ ! चौतरफा धूम है.. चौपड़ी की। आरपीएफ जवानों के महामहिम लोगों ने ये तय किया है कि एक चौपड़ी निकाली जाए, जिसमें तफसील से ब्यौरा होगा कि आरपीएफ जवानों को यात्री और यात्रिनों से कैसे बात करनी है। कैसे व्यवहार करना है। मसलन अब आप डंडा घुमाते हुए ये न कहें कि “ऐ ऐ कहां जा रहा है? इस सूटकेस में क्या लिए जाता है.. बड़ा भारी है.. अपना बैग तो बता जरा खोल के..”

और ये कहते-कहते एक हाथ से डंडा घुमाते हुए आपका दूसरा हाथ उसकी जेब में। “अरे भाई तलाशी लेनी है कि नहीं। मेटल डिटेक्टर तो ससुरे सबके सब खराब पड़े हैं। न जाने कौन सी कम्पनी के लिए हैं। बस उद्घाटन वाले दिन तो खूब पीं-पीं कर रहे थे.. लाइटें भी जलें थीं.. वो दिन है और आज का दिन.. ऐसा लागे है कि घर की चौखट निकालकर यहां फिट कर दी हो बस..”

अब आप कहेंगे, “हे भद्र पुरुष ! अथवा हे आर्य पुत्र ! कुत्र गच्छामि ? कहां जाते हो ? हे मुसाफिर ! ये दुनिया तो एक बहुत बड़ा मुसाफिरखाना है। आज तुम्हारी कल हमारी बारी है। जरा अपनी इस नश्वर सम्पति में से कुछ समाज में बाँटकर अपनी यात्रा सुखद बनाओ और अपने लिए स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करो। आपने सुना नहीं, ‘ट्रेवल लाइट’ रेलवे ने हमारी ड्युटी यही सुनिश्चित करने को लगाई है।”

मुझे आशा ही नहीं, पूरा विश्वास है, विरला ही कोई यात्री होगा जो आपसे ‘सहयोग’ नहीं करेगा। आखिर वह यात्री है, यात्रा को आया है, उसे आपके हाथों अपने मान-सम्मान की अंतिम यात्रा थोड़े ही निकलवानी है।

अब आप आरपीएफ में हैं, तो ये मुकद्दस किताब रेलवे के पवित्र प्रांगण में ही पढ़ी जाएगी और लागू होगी। अत: आप खुलकर रेलवे के सीमावर्ती और समीपवर्ती क्षेत्र में जमकर लाठी भांज सकते हैं। अधिकृत-अनधिकृत दोनों जात के हॉकर्स, टिकट वाले तथा डब्ल्यूटी यात्रियों, दोनों से एक सा समदर्शी सद्व्यवहार, ऑटो वालों, टैक्सी वालों, भिखारियों, स्मगलरों, चोर-उचक्के, ड्रग्स वाले, सीट-बर्थ दिलवाने वालों से आपके मित्रवत व्यापारिक सम्बन्धों पर किंचित भी कुप्रभाव नहीं पड़ेगा।

दास कैपीटल, सोशल कॉन्ट्रेक्ट के अलावा कोई भी ऐसी किताब मनुष्य द्वारा अभी तक नहीं लिखी गई, जिसे पढ़कर मनुष्य द्वारा समाज की संरचना में मूलचूल तब्दीली आई हो, या पढ़कर पाठक का हृदय परिवर्तन हो गया हो। अत: आप इसे पढ़कर उसी तरह भुला दें, जैसे यात्री आपसे ‘मिलकर’ उसके बाद अपनी पकड़े जाने की व्यर्थ की चिंता को भुला देता है। आप ज्ञानी हैं। आपने तो सुना ही है:

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय॥

अब जबकि समाज के हर क्षेत्र में क्रांति हो रही है, तो आपके यहां भी क्रांति जरूरी है। अत: कोई अपना दिमाग चला रहा होगा कि कैसे ये क्रांति लाई जाए। चूँकि क्रांति के अन्य तरीके टाइम कंज्युमिंग, खर्चीले और काऊंटर प्रोडक्टिव हैं, चुनाँचे किताब लिखना सबसे ईजी है। अब पढ़ना और अमल में लाना आपका काम है।

आँकड़े बताते हैं कि 396 रक्षक आरोपित हैं, और इसमें से 92% दंडित हैं। कहते हैं न कि जीवन चलने का नाम है.. चलते रहो, सुबहो-शाम। अत: जब आपने एक कंधे पर 1857 के गदर के टाइम की बंदूक और दूसरे कंधे पर रेलवे की सम्पति की रक्षा का गुरूत्तर भार लिया है, तो निभाना तो पड़ेगा। अब देखो इस नाशुक्री पब्लिक को, आपका कुत्ता जरा एसी में बर्थ पर क्या सो गया, यात्रियों ने भों-भों करके बावेला मचा दिया। इन्हें ये नहीं पता कि आपके हाथ और आपके श्वान के दांत कितने लम्बे होते हैं।

हाँ, तो ऐसी किताबों से आपको घबराने की, कोई टेंशन लेने की जरूरत नहीं है। अव्वल तो कोई यात्री आपको किताब की याद दिलाएगा नहीं, अगर हिम्मत करके दिलाए भी, तो उसे दो डंडे जमा दें.. उसका सामान तलाशी के बहाने पार कर दें और इनोसेंटली कह दें, “किताब ? कौन सी किताब ? अरे बावले मैं तो पढ़ा-लिखा ही नहीं हूं। पढ़ा-लिखा ही होता तो क्या इसी नौकरी में आता?”

मुलगा शिकला नाहीं… प्रगति झाली नाहीं…

अगर ज्यादा चूँ-चाँ करे, तो कह दें कि किताब अभी अंग्रेजी में निकली है, उसका हिंदी.. मराठी.. गुजराती.. आदि आदि भाषाओं में अनुवाद हो रहा है, जब आएगी, तब देखा जाएगा। कहते हैं किताब में यात्रियों का दिल जीतने के तरीके और संवाद दिए गए हैं। अब सोचो भला ! आपको इनकी क्या जरूरत? आपने कौन सा इन यात्रियों को ‘डेट’ पर ले जाना है? आपकी ‘डेट’ होती भी है, तो ‘ब्लाइंड डेट’ होती है। रही बात दिल जीतने की, तो जी इतने बड़े कवि, महाकवि तुलसीदास कह गए हैं:

भय बिनु होय न प्रीति गुसाईं…

तो कॉलर पकड़कर झन्नाटेदार लाफा लगाईए, या दो डंडे जमाईए, फिर देखिये, कैसे प्रीति की बारिश होती है। अगला तन-मन-धन से आपका हो जाएगा। जैसे मछली को कोई तैरना नहीं सिखाता। वो कोई किताब नहीं पढ़ती। उसी तरह आपको ये सिखाने की कोई दरकार नहीं है कि आप यात्रियों से कैसा बर्ताव करें! सच तो यह है कि ये इंडिया है दोस्त ! यहां यात्री स्वयं आपको सिखा देते हैं कि आप उनसे कैसा बर्ताव करें!