September 6, 2024

सुप्रीम कोर्ट: एससी/एसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण और क्रीमी लेयर

सुप्रीम कोर्ट ने छह-एक के बहुमत से बहुत सोच-विचार कर यह फैसला किया है, जो सही फैसला है। न कार्यपालिका ऐसा निर्णय ले पाती, न विधायिका, इसलिए देश हित में राजनेताओें को इस फैसले का सम्मान करना चाहिए!

सभी काम सरकार कोर्ट सुप्रीम कोर्ट और आयोग ही नहीं करेंगे, समाज के हर हिस्से को आगे बढ़कर समानता की तरफ सच्चे मन से कदम उठाने की आवश्यकता है!

1 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण मुद्दे पर जो फैसला सुनाया है, उसने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर की याद जिंदा कर दी।हिंदी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी सभी ने पढ़ी होगी और उसका एक वाक्य बार-बार गूंजता है कि “क्या बिगाड़ की खातिर ईमान की बात नहीं करोगे?” सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच ने वाकई उस मुद्दे पर ऐतिहासिक फैसला दिया है जिससे हमारे राजनेता और सभी शासन-प्रशासन बचते रहे हैं। यह फैसला है कि एससी/एसटी समुदाय में भी गैर-बराबरी की सैकड़ो परतें हैं, इसलिए सबसे अंतिम आदमी या सबसे जरूरतमंद तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए उसमें वर्गीकरण होना चाहिए, और दूसरी सिफारिश है कि जैसे ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर है, वैसे ही क्रीमी लेयर यानि कि जो एससी/एसटी व्यक्ति तबके ऊपर उठ चुके हैं, जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहतर हो चुकी है, उनको क्रीमी लेयर में शामिल किया जाए जिससे कि उन्हें के वर्ग-जाति के गरीब लोगों तक यह लाभ पहुंच सके।

सुप्रीम कोर्ट में यह मामला क्यों पहुंचा? यह कोटा के भीतर कोटा निर्धारित करने से संबंधित है। वर्ष 1975 में पंजाब सरकार ने एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों में से 50% वाल्मीकि और मजहबी सिखों को देने के आदेश निकाले। इसके खिलाफ देवेंद्र सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और अंततः 2004 में चन्या बनाम आंध्र प्रदेश केस में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया कि कोटा के भीतर कोटा की अनुमति संविधान नहीं देता। अंततः ऐसे कई मामले सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच को सौंपे गए, जिसका निर्णय अभी पहली अगस्त को आया है। और उसमें उप-वर्गीकरण अर्थात् कोटे के भीतर कोटा की बात मान ली गई है।

आरक्षण के मुद्दे पर महत्वपूर्ण पुराने मामले

सबसे महत्वपूर्ण मामला इंदिरा साहनी केस कहा जा सकता है, जिसे मंडल आयोग केस के रूप में भी जाना जाता है। 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने और उससे देश भर में उठे विवाद के मसले पर 9 सदस्य सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने फैसला दिया था। बीपी मंडल-मंडल आयोग के अध्यक्ष थे जिनकी नियुक्ति 1977 में आई जनता पार्टी की सरकार ने इसलिए की थी कि समाज के अन्य पिछड़े वर्ग ओबीसी के लिए भी सरकार की नीतियों का लाभ मिलना चाहिए। यह रिपोर्ट 1980 में सरकार को सौंप दी गई थी, लेकिन उसको लागू करने की हिम्मत तत्कालीन सरकार को नहीं हुई। वर्ष 1989 में पीएम बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया, जिसके तहत 27 प्रतिशत सरकारी पदों पर ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा वर्ग की नियुक्ति होनी चाहिए। इसके खिलाफ देश भर में आंदोलन हुए तो मामला सुप्रीम कोर्ट को सोपा गया।

इस फैसले की मुख्य बातें थीं-

सरकार का 27% ओबीसी आरक्षण का फैसला सही है। लेकिन “क्रीमी लेयर” जैसा शब्द पहली बार सामने आया, यानि कि ओबीसी समुदाय में जिनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति अच्छी है, उनको यह लाभ नहीं मिलेगा। वर्ष 1994 में सरकार द्वारा की गई सीधी भर्तियों में जब यह लागू किया गया तो उस समय क्रीमी लेयर की सीमा ₹1 लाख वार्षिक रखी गई थी, यानि इससे नीचे आय वाले ही इस लाभ की हकदार होंगे।उसके बाद से यह एक लाख बढ़कर वर्ष 2018 में 8 लाख कर दी गई है। यही आठ लाख की सीमा 2 वर्ष पहले ईडब्ल्यूएस आरक्षन में लागू है। इंदिरा साहनी मामले में यह भी कहा गया था कि सरकार यदि चाहे तो एससी/एसटी वर्ग के लिए भी क्रीमी लेयर की संकल्पना पर विचार कर सकती है।

इस फैसले में एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि ओबीसी के लिए प्रमोशन में आरक्षण नहीं होगा, जबकि एससी/एसटी में यह लागू है। यहां भी फैसले में यही कहा था कि सरकार एससी/एसटी के प्रमोशन में उनकी एक बेहतर स्थिति को देखते हुए विचार कर सकती है। प्रमोशन में ओबीसी के लिए आरक्षण की बात सुप्रीम कोर्ट ने नहीं मानी। लेकिन यह मामला राजनीतिक दृष्टि से इतना विस्फोटक था कि न तो क्रिमी लेयर पर विचार हुआ और न ही प्रमोशन में उनके लाभ एससी/एसटी के लाभ रोकने की बात हुई। इस निर्णय के बाद एससी/एसटी को प्रमोशन में देने के लिए तीन बार संवैधानिक संशोधन भी किए गए हैं। एक और महत्वपूर्ण बात इस फैसले की थी कि आरक्षण सीमा 50% से तक ही सीमित रखी जाएगी, लेकिन यह मामला देश के विभिन्न न्यायालयों में लगातार विवादित रहा है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी कई बार इस पर विचार हुआ है।

क्रीमी लेयर क्या है?

मंडल कमीशन के दौरान बहस में पक्ष-विपक्ष की दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि संविधान में गरीब पिछड़े वर्ग के लिए रियायत देने की बात की गई है, लेकिन जो लोग समर्थ हो चुके हैं, अगर उनको ही लगातार लाभ मिलता रहा, तो यह नीचे के तबके तक कभी नहीं पहुंचेगा। फिलहाल ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए यह आठ लाख प्रति वर्ष है। यहां यह भी स्पष्ट करते हैं कि क्रीमी लेयर की गणना करने में दोनों में अंतर है। जहां ओबीसी वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए केवल उनके माता-पिता की जमीन आय ही शामिल होती है, उम्मीदवार की नौकरी वेतन आदि नहीं। वहीं ईडब्ल्यूएस के लिए लाभ पाने वाले उम्मीदवार की आय भी शामिल होती है, यानि कि यदि कोई उम्मीदवार अच्छे पद पर है तो ओबीसी के लाभ के लिए उसका वेतन नहीं जोड़ा जाएगा, उसकी सिर्फ मां-बाप की आय ही शामिल की जाएगी, जबकि ईडब्ल्यूएस में उसका वेतन भी जोड़ा जाएगा।

गरीबों के पक्षधर 8 लाख की सीमा को कम करने की बात कहते हैं। उनका तर्क है कि जब 2024 में प्रति व्यक्ति आय ₹2लाख से भी कम है उत्तर भारत के राज्यों में, तो इससे बहुत कम है उसके मुकाबले 8 लाख की सीमा बहुत ज्यादा कही जाएगी। जबकि शहरों में रहने वाला वर्ग 8 लाख की सीमा को बढ़ाकर 12 और 15 करने की मांग वर्षो से कर रहा है। यदि सरकार क्रीमी लेयर की सीमा को 8 लाख से आगे बढ़ाने की बात को मानती है तो क्रीमी लेयर का अर्थ विकृति ही होगा। इसलिए गरीबों के हित में इसे भी कम करने की आवश्यकता है।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के समर्थन में कौन है?

सभी राजनीतिक दलों ने फैसले को ऐतिहासिक अवश्य बताया लेकिन दक्षिण के राज्यों ने खुलकर इसका समर्थन किया है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने स्वागत करते हुए कहा कि उनकी तेलुगू देशम पार्टी ने 1996 में वर्गीकरण पर जस्टिस रामचंद्र राजू आयोग का गठन करके पहले ही ऐसा कदम उठाया है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी फैसले का स्वागत किया कि इससे सही लोगों तक फायदा पहुंचेगा।तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने भी कहा कि तमिलनाडु के अरुणसियार समुदाय को इस आंतरिक वर्गीकरण से फायदा पहुंचेगा। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने तो सुप्रीम कोर्ट में वर्गीकरण करने के लिए दलील रखी थी। महार ,चमार, जाटव, दुसाध इत्यादि ने कोटा के भीतर कोटा का विरोध किया है, तो वाल्मीकि, मंडिगा, मुसहर, हेला, डोम जैसी जातियां कोटा के भीतर कोटा चाहती हैं, क्योंकि उनके समुदायों तक आरक्षण के लाभ बहुत कम पहुंचे हैं। देश के उन सभी लोगों ने इस फैसले से राहत की सांस ली है जो वर्षों से आरक्षण के लाभ को अंतिम आदमी तक पहुंचाने की वकालत करते रहे हैं।

कौन और क्यों कर रहा है इस फैसले का विरोध?

उत्तर भारत की सामाजिक न्याय का दावा करने वाली ज्यादातर पार्टियाँ इसका विरोध कर रही हैं। यहां तक कि उसमें कांग्रेस भी शामिल है। मायावती की बीएसपी, चंद्रशेखर आजाद की आजाद पार्टी से लेकर जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, चिराग पासवान, इन सभी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है। उन्होंने इस बात का डर दिखाया है कि इससे एससी/एसटी वर्ग के पदों को भरने में परेशानी आएगी। इसलिए जब तक उनके पद नहीं पूरे होते तब तक क्रीमी लेयर लागू नहीं होना चाहिए। उन्होंने डॉ भीमराव अंबेडकर का हवाला देते हुए यह जोड़ा है कि डॉ अंबेडकर ने संविधान में क्रीमी लेयर की कोई बात नहीं की है और यह भी कि इन वर्गों में शामिल सभी जातियां भारतीय समाज में छुआछूत की दृष्टि से एक समान हैं। यहां तक कि मौजूदा सरकार ने भी इस फैसले से असहमति जताई है और केंद्रीय मंत्री ने यह घोषणा की है कि हम इसको लागू नहीं करेंगे।

इस निर्णय में शामिल जजों के विचार

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 उन वर्गों के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है जो समान स्थिति में नहीं हैं। लेकिन इसके लिए उप-वर्गीकरण में शामिल नौकरियों के पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए। उन्होंने माना कि इन जातियों में भी विषम वर्ग हैं, और इसलिए राज्य 15 (4 और 16(4) में मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए उपवर्गीकरण कर सकते हैं। लेकिन यह तर्कसंगत होना चाहिए।जस्टिस गवई, जो स्वयं दलित वर्ग से आते हैं, सबसे ज्यादा तर्कसंगत ढ़ंग से क्रीमी लेयर को लागू करने की बात उन्होंने ही की है। उन्होंने कहा कि अनिवार्य रूप से क्रीमी लेयर इन पर लागू होनी चाहिए, जिससे कि आरक्षण के लाभ से इनको बाहर किया जा सके और यह जरूरतमंद तक पहुंचे।

उन्होंने कहा कि राज्यों को ऐसा करने का अधिकार है। उन्होंने एम नागराज और दविंदर सिंह के पुराने फैसलों में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के लिए दी गई व्यवस्था को भी सही माना है। जस्टिस पंकज मित्तल ने माना कि मौजूदा आरक्षण नीति दलित विरोधी कही जाएगी, क्योंकि इसके तहत लगातार फायदा उठा रहे वर्ग को ही फायदा मिलता है और वह फायदा नीचे तक नहीं पहुंचता। उन्होंने अपने निर्णय में मंडल से लेकर 2006 में आईआईटी और एम्स के छात्रों के आरक्षण विरोध, महाराष्ट्र में आरक्षण के खिलाफ उठी आवाज़ आदि का उल्लेख करते हुए क्रीमी लेयर लगने की वकालत की है! जस्टिस बेला त्रिवेदी अकेली जज हैं जिन्होंने इस फैसले से असहमति जताई है। उनके तर्क में अनुसूचित जाति एक समान समूह का प्रबंध करती है और उसमें विभाजन नहीं किया जा सकता। और दूसरा अनुच्छेद 341 और अनुच्छेद 342 में जारी राष्ट्रपति की सूची में इसमें बदलाव केवल संसद ही कर सकती है, राज्यों को यह अधिकार नहीं है।

आरक्षण पर नेहरू के विचार

आरक्षण के प्रश्न पर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू शुरू में डावांडोल थे। उनका डर था कि क्लास के अंदर एक और क्लास पैदा करने से इनका और अलगाव बढ़ेगा। 1950 में उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र में लिखा था, “मैं आरक्षण के खिलाफ हूं, लेकिन जो पिछड़े गरीब लोग हैं उनके लिए भी सुरक्षा और अवसर पूरी तरह मिलना चाहिए। हर हालत में मेरिट और एफिशिएंसी प्रशासन में सबसे जरूरी है। विकास पर आगे बढ़ने के लिए हमें एक सक्षम नौकरशाही की जरूरत हर शर्त पर चाहिए। यानि नेहरू आरक्षण में सामाजिक न्याय और प्रशासनिक दक्षता अर्थात् मेरिट को भी बराबर समझते थे। अनिवार्य मानते थे।

आरक्षण पर डॉ अंबेडकर के विचार

  1. सामाजिक और आर्थिक समानता की आवश्यकता
  2. अस्थायी व्यवस्था
  3. मेरिट और आरक्षण के बीच संतुलन
  4. आरक्षण का दायरा विस्तृत करना

इन विचारों से यह स्पष्ट होता है कि डॉ भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण को एक आवश्यक उपाय माना जो समाज में व्याप्त असमानता को दूर करने में मदद कर सकता है। उन्होंने आरक्षण को एक अस्थायी व्यवस्था माना जिसे तब तक जारी रखना चाहिए जब तक कि समाज में समानता स्थापित न हो जाए। उन्होंने शुरू में इसे 10 वर्ष तक जारी रखने की वकालत की इस उम्मीद के साथ कि तब तक संविधान में दिए गए निर्देशों के अनुसार इसका संभावित उद्देश्य पूरा हो जाएगा। साथ ही, उन्होंने मेरिट और आरक्षण के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया और आरक्षण का दायरा विस्तृत करने की आवश्यकता पर जोर दिया, ताकि अधिक से अधिक वंचित वर्गों को इसका लाभ मिल सके।

भारत में आरक्षण व्यवस्था और संविधान

भारतीय सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी जीवित सभ्यता मानी जाती है और यह देश नहीं एक महादेश के रूप में दुनिया जानती है जिसमें सैकड़ों जाति उपजाति धर्म संप्रदाय एक साथ सदियों से रहते आए हैं। नौवीं-दसवीं सदी में मुसलमानों के आने से पहले मुख्य रूप से सनातन यानि हिंदू धर्म यहाँ प्रभावी रहा है। साथ ही साथ बौद्ध जैन और दूसरे मतावलंबी भी मौजूद रहे। संस्कृत साहित्य से लेकर दूसरे साहित्य में समाज में वर्ण व्यवस्था आदि के बहुत सारे संदर्भ मिलते हैं कि जाति जन्म से निर्धारित नहीं थी, उनके कर्म से थी। लेकिन कालांतर में यह रूढ़ होता गया और यह जन्म पर आधारित होती गई जिसमें ब्राह्मण को सबसे ऊपर उसके बाद क्षत्रिय फिर वैश्य और सबसे निचले पायदान पर उन लोगों को रखा जिनको हम आज दलित कहते हैं। इसमें सफाई कर्मचारी और सैकड़ों जातियाँ, प्रजातियां शामिल हैं। सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारों की गिनती मंडल आयोग से लेकर कई आयोगों ने की है।

अंग्रेजी शासन आने के बाद जाति व्यवस्था पर पुनर्विचार का मंथन शुरू होता है और इसका कारण यह था कि यूरोपीय समाज में समानता की बेहतर समझ और प्रक्रिया प्रचलित थी। जहां मनुष्य-मनुष्य को जाति जन्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता। इस रोशनी में महात्मा गांधी, डॉ अंबेडकर से लेकर सभी ने जाति प्रथा को इस देश के लिए कलंक माना है। उससे पहले राजा राममोहन राय और दूसरे महापुरुषों ने भी इस भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी। भक्ति काल से लेकर हमारे संत कबीर रविदास से लेकर सभी ने मनुष्य-मनुष्य के बीच समानता की बात की है, लेकिन अंग्रेजी शासन के प्रभाव में इस वर्ग के लिए कुछ जमीनी संस्थानिक कार्य भी शुरू हुए जिसमें आरक्षण की व्यवस्था की शुरुआत करने का श्रेय साहू जी महाराज और दूसरे राजाओं को भी जाता है जो पूरे समाज के कल्याण की बात करते थे।

महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से मुक्ति के साथ-साथ सामाजिक बराबरी का मुद्दा उतना ही महत्वपूर्ण रहा। इसे महात्मा गांधी की आत्मकथा और उनके सैकड़ों लेखों से समझा जा सकता है। यहां तक कि 1916 में साबरमती आश्रम की स्थापना की पहली शर्त यही थी कि उसमें जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। और जब एक दलित के शामिल होने पर इस आश्रम की वित्तीय मदद करने वालों ने विरोध किया तो महात्मा गांधी ने साफ कर दिया कि मैं उनसे वित्तीय मदद नहीं लूंगा, लेकिन दलित का प्रवेश रहेगा। वे केवल उन्हीं वैवाहिक कार्यक्रमों में जाना स्वीकार करते थे जिनमें वैवाहिक बंधन में बनने वालों में कोई एक दलित हो। लेकिन देश की आजादी उनके लिए शायद ज्यादा महत्वपूर्ण रही जबकि डॉ अंबेडकर समाज के इन वंचित वर्गों को समानता के लिए ज्यादा प्रतिबद्ध और कटिबंध रहे।

उन्होंने इस प्रताड़ना, जैसे दुख को झेला था। जगह-जगह कुएं से पानी भरने से लेकर छुआछूत का भेदभाव इतना ज्यादा था कि वह अंग्रेजों से मुक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण अछूत शब्द से मुक्ति चाहते थे। लेकिन दोनों का ही योगदान सराहनीय रहा और इसी के फलस्वरुप 1935 के एक्ट में पूना पैक्ट की रोशनी में संविधान में आरक्षण शब्द की शुरुआत हुई। 1947 में देश के आजाद होने पर आबादी के अनुसार 15% शेड्यूल कास्ट (एससी), 7.30 प्रतिशत शेड्यूल ट्राइब (एससी) के लिए सभी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। मंडल कमीशन के बाद वर्ष 1993 से 27 प्रतिशत आरक्षण ओबीसी को दिया गया है। 2006 में आरक्षण को शैक्षिक संस्थान पर भी लागू कर दिया गया। कोर्ट कचहरी में संवैधानिक झगड़े भी कम नहीं रहे आरक्षण को लेकर, और उसकी नीतियों के क्रियान्वयन में संभावित सबसे ज्यादा सरकारी मामले आरक्षण और उसके झगड़ों को लेकर ही कहे जा सकते हैं।

निष्कर्ष

21वीं सदी के जिस मोड़ पर पंच-परमेश्वर स्वरूप सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जो निर्णय दिया है वह सही मायने में ऐतिहासिक है। संविधान की मूल भावना आर्थिक सामाजिक समानता लाना है जिसमें छुआछूत को अपराध माना गया है। एससी/एसटी पर अत्याचार के खिलाफ सख्त कानून भी है। आरक्षण व्यवस्था भी थोड़ी बहुत खामियों के बावजूद बहुत प्रभावी है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से 40 साल पहले जनरल कैंडिडेट और आरक्षित वर्ग में मेरिट योग्यता नंबरों के जितना फासला होता था, वह अब नहीं है चाहे वह यूपीएससी का एग्जाम हो या स्टाफ सेलेक्शन कमीशन का, या दूसरी परीक्षाओं का, और यह ठीक भी है। यदि उनको सुविधा मिले तो सभी मनुष्यों में समान क्षमताएं होती हैं। इस दर्शन को सभी को समझने की आवश्यकता है चाहे वह सवर्ण हो या दलित हो।

इसी तर्क पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने लीक से हटकर छह-एक से यह फैसला किया है। जस्टिस गवई तो स्वयं दलित वर्ग से आते हैं और उन्होंने अहसास किया कि यदि क्रीमी लेयर नहीं लागू की गई तो इसका फायदा अंतिम लोगों तक अंतिम गरीब लोगों तक कभी नहीं पहुंच सकता। लगभग 15 वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के एक और न्यायाधीश जस्टिस जोसेफ ने भी ऐसे ही एक मामले की सुनवाई करते हुए आश्चर्य प्रकट किया था कि यदि क्रीमी लेयर ओबीसी पर है तो वह एससी/एसटी पर क्यों नहीं होनी चाहिए? उन्होंने अपनी बात को इस रूप में कहा कि मेरा बेटा और मेरे ड्राइवर के बेटे की सुविधाओं में बहुत अंतर है। मेरे बेटे को वह लाभ नहीं मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का वर्गीकरण इसी तर्क पर आधारित है और इसलिए सभी वर्गों को मनाना चाहिए।

दूसरा मुद्दा है इस निर्णय के विरोध करने वाले बार-बार डॉ अंबेडकर का नाम ले रहे हैं कि उन्होंने क्रीमी लेयर की बात नहीं की है। कितना भोला तर्क है यह? 70-80 वर्ष पहले हम दलितों को मुख्य धारा में लाना चाहते थे और हमारे संविधान ने यह किया है। बराबरी के लिए उपबंध भी बनाए हैं और उनका कार्यान्वन भी हुआ है। इनके लाभ-कल्याण के लिए सरकारी मशीनरी में कई आयोग हैं। उस समय कोई भी क्रीमी लेयर जैसी कल्पना नहीं कर सकता था। और कोई भी पुस्तक हो, संविधान हो, उसे बदलते समय के साथ बदलने की आवश्यकता होती है। यहां तक कि हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में यदि कहें तो “जो धर्म परंपराएं रीति रिवाज समय के साथ नहीं बदलते, वे खुद नष्ट हो जाते हैं।” यानि कि धर्म को भी यदि बदलने की आवश्यकता है तो बदलना चाहिए।

संविधान की पुस्तक भी ऐसी ही है जिसमें समय के साथ बदलाव की आवश्यकता होती है, और होती रही है। इसीलिए इसमें अब तक 103 संवैधानिक संशोधन हो चुके हैं। केवल राजनीतिक लाभ के लिए ऐसे निर्णय के खिलाफ 21 अगस्त को जो भारत बंद हुआ उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह अपनी ही जाति, अपने ही वर्ग के अपने ही भाईयों के खिलाफ माना जाएगा जिन तक वह यह सुविधा नहीं पहुंचने देना चाहते हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कभी सवर्ण वर्ग द्वारा आरक्षण का विरोध करना। जबकि वे खुद डोनेशन देकर डिग्रियां लेते हैं। इसका पालन करने से देश के अलग-अलग हिस्सों में उठने वाले आरक्षण विरोधी आंदोलन भी खत्म हो जाएंगे, क्योंकि उनका गुस्सा इसी बात पर है कि एक-एक परिवार की तीन-चार पीढ़ियां आईएएस आईपीएस बन गई हैं। वे अमेरिका में पढ़ रही हैं, दिल्ली में 50 साल से रह रही हैं, प्रोफेसर हैं, वैज्ञानिक हैं, उनके बच्चे ही सारा फायदा उठाते रहे हैं। केवल राजनीतिक कुर्सी के लिए इसका विरोध उचित नहीं कहा जा सकता और इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हुए हम सबको इसी तर्कसंगत कसौटियों पर जनता को जागृत करने की आवश्यकता है।

जैसा सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है, हमें आंकड़े और सभी डाटा ईमानदारी से इकट्ठा करके आगे बढ़ने की आवश्यकता है। लोकतंत्र में वोट की राजनीति के चलते कुछ स्वार्थी लोकतंत्र विरोधी शक्तियाँ सरकार पर संसद के द्वारा इसे बदलने के लिए दवाब डालेंगी, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि शाहबानो निर्णय को संसद द्वारा उलटने से कैसे जनता सरकार के विरोध में उठ खड़ी हुई थी। हमारे संविधान में जिसे डॉ अंबेडकर और अन्य नेताओं ने बहुत सोच-समझकर बनाया है, उसमें कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका को अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने छह-एक के बहुमत से बहुत सोच-विचार कर यह फैसला किया है, जो सही फैसला है। न कार्यपालिका ऐसा निर्णय ले पाती, न विधायिका, इसलिए देश हित में राजनेताओें को इस फैसले का सम्मान करना चाहिए।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज में जाति और उसकी पहचान का विनाश। सरकार और समाज दोनों को इसे जड़ से उखाड़ने के लिए कदम उठाने होंगे। ऐसी निराशा भरी बातें करने की आवश्यकता नहीं कि जाति जाती नहीं है। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है जहां जाति की, पहचान की ऐसी विकरालता हो, मनुष्य-मनुष्य के बीच ऐसा भेद हो। सभी काम सरकार कोर्ट सुप्रीम कोर्ट और आयोग ही नहीं करेंगे, समाज के हर हिस्से को आगे बढ़कर समानता की तरफ सच्चे मन से कदम उठाने की आवश्यकता है। जय संविधान ! जय सुप्रीम कोर्ट और उसका फैसला!