रेलवे अस्पतालों की दुर्दशा
आजकल ‘गूगल बाबा’ के चलते मरीज अपने को सामने वाले डॉक्टर से अधिक नहीं तो कम भी नहीं समझता। कभी किसे बड़े शहर के रेलवे के किसी सेंट्रल हॉस्पिटल में जाकर देखें। रेलवे हॉस्पिटल और रेलवे स्टेशन का फर्क मिटता जा रहा है। सब अपनी-अपनी ट्रेन पकड़ने को भाग रहे हैं। शहर के ‘मुंसिपाल्टी’ और रेलवे अस्पताल एकाकार हो गए हैं!
एक जमाना था जब आप अपने शहर के रेलवे अस्पताल में जाते थे तो कोई ऐसी मारामारी नहीं होती थी। कुछ-कुछ इतना भर था कि आज सोमवार है थोड़ा रश रहेगा। शनिवार को मत जाना भीड़ होगी, बहरहाल आपका नंबर आ ही जाता था। ब्लड टेस्ट/एक्स-रे आदि भी ‘सेम डे’ हो जाया करते थे। ईको / एमआरआई में डेट मिल जाया करती थी। #ईको टेस्ट तो रेलवे अस्पताल में ही हो जाया करता था। #एमआरआई ज़रूर किसी न किसी नज़दीक के प्राइवेट केंद्र में हो जाता था। आप रेलवे से हैं, आपका नंबर सामान्यतः आ जाता था और आप ‘हाफ डे’ में सब काम सम्पन्न कर पाते थे। डॉक्टर लोग सहृदय, पेशेंट-फ्रेंडली और निष्ठावान होते थे। नई-नई भर्ती हर साल #यूपीएससी से हो जाया करती थी। नए-नए डॉक्टर-डॉक्टरनियां पूरे जोश-खरोश से आते थे। दिल में सेवा का जज्बा लिए। वे बहुत ऊर्जावान होते थे। रात की ड्यूटी हो या दिन की, उनको अपने जॉब पर, अपनी रेलवे पर गर्व था। वे रेलवे को अपना बेस्ट देते थे। कन्टीन्यूड मेडिकल एजुकेशन के तहत सभी को लेटेस्ट अपने फील्ड की जानकारी सतत् मिलती रहती थी।
डाक्टर नर्सें और पैरा-मेडिकल स्टाफ तथा रोगी के बीच एक आत्मीय रिश्ता सा जुड़ा होता था जिसमें चिकित्सा समूह की पूरी ‘कंसर्न और केयर’ रोगी की ‘क्योर और कम्फर्ट’ की ओर रहती थी तथा रोगी और उसका परिवार भी पूरे विश्वास से रेलवे अस्पताल पर अपना भरोसा और मान-सम्मान बनाये रखते थे, कोई शोर-शराबा लड़ाई-झगड़ा नहीं था।
फिर कुछ ऐसी नजर लगी, कुछ ऐसा हुआ कि डॉक्टर्स की न केवल संख्या कम होती गई। उनकी निष्ठा उनके सेवा-भाव में भी कमी देखी जाने लगी। पिछली सदी तक घर-गृहस्थी में विक्स, एस्प्रो, ऑयोडेक्स और डेटाल ही होती थी बस। नई सदी में ग्लोब्लाइजेशन एक तरह से इस क्षेत्र में क्रांति ले आया। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट इसमें आ गये। जो पहले से थे उन्होंने और विस्तार किया। विज्ञापन, दवाईयां, फाइव स्टार अस्पताल। उसी तरह का खुला खर्चा किया जाने लगा।
हम डॉक्टर को 1990 से पहले और भी दुर्दशा में रखे हुए थे। नोबल प्रफेशन दो ही कहलाते थे। एक टीचर और दूसरा डॉक्टर। नोबल कह-कहकर हम उन्हें निचले पायदान पर ही रखे रहे। जैसे आप नोबल हैं आपको पैसे की क्या जरूरत आन पड़ी। नई सदी में ये दोनों ही पूरे जोर से अपनी जमीन क्लेम करने में लग गये। अब उनकी और उनके परिवार की भी आकांक्षाएं थीं। यह नहीं था कि गरीब नोबल टीचर की संतान की भी माई एम्बीशन इन लाइफ गरीब नोबल टीचर बनने भर की नहीं रह गई थी। बाहर उन्हें मुंहमांगा वेतन मिलने लगा था गो अन्य कारोबारों की तरह इसमें भी दांवपेच, दिखावा और सौदेबाजी आ गई।
एक कहावत चल पड़ी कि रेलवे अस्पताल महज ऊंची पोस्ट पर बैठे रेल अधिकारियों तथा ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों और उनके परिवारों के लिए रह गया था। कितने ही कर्मचारी यथा ट्रैकमैन (गैंगमैन) खलासी आदि प्राइवेट में डॉक्टर के पास जाना पसंद करने लगे और बेहतर इलाज तथा शीघ्र ठीक होने लगे। बड़ी दवाईयों की कंपनियाँ/फार्मेसी अधिक से अधिक सक्रिय होती गईं, प्राइवेट क्षेत्र के चिकित्सकों को बड़े-बड़े डॉक्टर को बड़ी-बड़ी गिफ्ट, देश-विदेश की सैर/क्रूज कराई जाने लगी। अचानक से ये क्षेत्र बड़ा सम्पन्न/मालामाल सा लगने लगा।
इन सबसे रेलवे डॉक्टर्स में फ्रस्ट्रेशन आता चला गया, वह चाह कर भी प्राइवेट अस्पतालों, जो खर-पतवार से उठते चले गये, की बराबरी नहीं कर पाये, क्योंकि माँगी हुई लेटेस्ट मशीनें कभी मिली नहीं, और जब मिलीं तब तक नई टेक्नोलॉजी की मशीनें मार्केट में उपलब्ध और कार्यशील थीं, संगठित स्पेशलिस्ट कैडर रेलवे विकसित/उपलब्ध नहीं करा पाई। सुपरस्पेशलिस्ट कैडर तो और भी दूर की कौड़ी था। ऐसे में जहां चिकित्सक पाँच-पांच लाख प्रति माह प्राइवेट में वेतन ले रहे थे, वह रेलवे के जूनियर स्केल की चालीस-पचास हजार मासिक पर क्यों आते?
अतः सेवा-भाव की जगह एकदम ठंडा प्रोफेशनलिज्म आने लगा। कर्तव्यनिष्ठ परिश्रमी डॉक्टर्स जहां अपने काम अपनी ड्यूटी में व्यस्त थे, जबकि चलते पुर्जे स्मार्ट डॉक्टर्स अपना पीआर बना और बढ़ा रहे थे। उन्हें पता था कि ब्रेड की किस तरफ बटर लगाना है। गंभीर डॉक्टरों पर काम पर काम लादा जाने लगा, ना-नुकुर करने पर ट्रांसफर और परेशान किया जाने लगा। डॉक्टर लोग स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने लगे। जो वरिष्ठ डॉक्टर रेलवे में रह रहे थे, वे मन मारकर निराशा में डूबे थे।
ऐसे में अनावश्यक टेस्ट, अनावश्यक प्रोसीजर और अधिक से अधिक बाहरी प्राइवेट केन्द्रों और अस्पतालों पर निर्भरता बढ़ने लगी। जरूरत है या नहीं, निहित स्वार्थ के वशीभूत रोगियों को बाहर भेजा जाने लगा। दूसरी तरफ ऐसा भी था जहां जरूरत थी वहाँ भी भेजने / रेफर करने में आनाकानी / टालमटोल। क्योंकि ऊपर से आदेश हैं/नहीं हैं। कोटा कम है। सतर्कता वाले पहले ही आपके पीछे पड़े हैं, नज़र रखे हुए हैं। अथवा ऊपर से कोई कहेगा तो भेजने / रेफर करने का जुगाड़ लगाएंगे।
रोगी भी रेलवे अस्पताल की जगह बाहर प्राइवेट अस्पतालों में ‘रेफर’ माँगने और उसके लिए चीख पुकार लगाने लगे। सीजीएचएस द्वारा पहले से ही मान्यताप्राप्त सभी प्राइवेट अस्पतालों को सीधे-सीधे – बिना इंस्पेक्शन और वेरिफिकेशन के – मान्यता प्रदान करने का हुकुम जारी कर दिया गया, इस तरह दोनों खुश। रोगी भी और चिकित्सक भी। एक बार रेफर करो और भूल जाओ। मस्त रहो। न रात के कॉल्स का झंझट, न कोई झगड़ा-फ़साद, आगे रोगी की किस्मत। अगर वह प्राइवेट अस्पताल से ठीक वापस आ जाये तो बेहतर, लेकिन जान लें रेलवे के रोगियों की कदर प्राइवेट अस्पतालों में नगण्य थी। कारण रेलवे से मिलने वाला पेमेंट न्यूनतम – प्राइवेट रोगियों से आधे से भी कम – होता था। उसका भुगतान मिलने में भी साल लग जाता था।
आरआरबी से रिक्तियों का भरा जाना दिवास्वप्न हो गया। यह तकनीकी क्षेत्र है प्रशिक्षित लोग किसी अन्य माध्यम यथा अनुकंपा आधार आदि पर लिया जाना संभव न था। उस पर ये हुआ कि अन्य रेलवे के अधिकारियों की तरह अब चिकित्सा अधिकारियों को भी तबादले पर इधर-उधर फेंका जाने लगा। कभी प्रमोशन पर, कभी बस यूं ही चिढ़कर बतौर सजा। यूपीएससी से आने वाले डॉक्टर्स में धीरे-धीरे रेलवे के प्रति रुझान कम होने लगा। बड़े-बड़े बंगले, नॉन प्रेक्टिस एलाउंस, रेलवे के फ्री पास भी प्रतिभाशाली को अपनी तरफ खींचने में असमर्थ थे। डॉक्टर्स की संख्या में कमी आने लगी।
इधर डॉक्टर्स की मांग पर और कुछ जेनुइन कमी की वजह से डॉक्टर्स की रिटायरमेंट आयु बढ़ा दी गई। शुरू में इससे सेकेंड रैंक में खड़े डॉक्टर्स में बहुत रोष व्याप्त हुआ, क्योंकि जो जहां था उसी कुर्सी से चिपक गया। इससे जिसका पदोन्नति का टर्न होता वह टापता रह जाता। इससे ‘फ्रस्ट्रेशन’ और बढ़ी। फिर नियम आया कि किसी क्लीनिकल पोस्ट पर ट्रांसफर कर देंगे ताकि नीचे वालों की पदोन्नति प्रभावित न हो। इसके अपने ‘फॉल-आउट’ थे। कभी डॉक्टर परेशान, कभी रोगी, तो कभी मातहत स्टाफ। फिर यह हुआ कि मुंबई जैसे शहर में मध्य रेलवे वाला पश्चिम रेलवे और पश्चिम रेलवे वाला मध्य रेलवे के अस्पताल जा पहुंचे। ताकि इज्जत भी बची रहे और अपना शहर भी न छूटे। कुछ ने अपने घर के आसपास की डिस्पेन्सरी पकड़ ली।
इस सब ने मेडिकल सर्विस को बहुत ‘एडवर्सली’ प्रभावित किया। इधर ‘मैनपावर’ का अलग रोना था। महंगी-महंगी जरूरी मशीनें अव्वल तो एक न एक कारण से आ नहीं पातीं थीं, आ जातीं तो उनको चलाने वाला नहीं था। एक पोस्ट सृजित करने के लिए बीस बार फाइल ऊपर नीचे जाती और यूज़र विभाग ऐसे सबके निहोरे करता फिरता जैसे उसकी अपनी बेटी का ब्याह है। आदमी मिल जाता तो उसकी ट्रेनिंग बहुत बड़ा काम। ट्रेंड होते ही उसे लगाओ तो वह मशीन चलाने का एलाउंस मांगने लगता है। उसकी इस मांग को हवा देने को, अपनी पैठ गहरी करने और अपने पैर पसारने को ट्रेड यूनियनें सदैव तत्पर दिखीं।
जब डॉक्टर्स का आना कम/बंद हुआ तो एक तो डॉक्टर की रिटायरमेंट की आयु बढ़ा दी गई, दूसरे अनुबंध/ठेके पर डॉक्टर रखे जाने लगे। आपने विशुद्ध ठेके पर रखे डॉक्टर्स के हवाले अपने रेलकर्मी को कर दिया। हम मामूली से मामूली स्पेशियलिटी के लिए भी बाहर का मुंह ताकने पर विवश हो गए। दवाई-गोली जो आपको डॉक्टर ने लिखी है बस वो ही नहीं है स्टॉक में। बाकी सब हैं। दवाखाना भरा पड़ा है। अब आप या तो वैकल्पिक दवा लें या फिर एक लिखी हुई गोली की जगह तीन-तीन गोलियां खाएं, क्योंकि वह प्लस वाली, डबल कोट वाली गोली नहीं है। लोकल पर्चेज बंद है, अथवा उसकी मंजूरी इतनी देर से और इतने ऊपर से आएगी कि तब तक आप या तो ठीक हो जाएंगे या ठीक होने लायक नहीं बचेंगे, या फिर सीधे ऊपर पहुँच जाएँगे!
ईश्वर न करे आप रिटायर हो गए हों और आपका दिल/गुर्दे जैसी किसी अंग-प्रत्यंग का ऑपरेशन इमर्जेंसी में प्राइवेट में कराना पड़ जाये। उसके 70-80% री-इम्बर्शमेंट में आपकी बाकी उम्र गुजर जानी है, इस प्रक्रिया में दो-तीन बार आपकी फाइल के गुम जाने के 100% चान्स हैं। आप कितने ही फन्ने खाँ रहे हों, रेलवे डॉक्टर है कि वह इंप्रेस होना तो दूर सुनना भी नहीं चाहता। उसके पास आपके ‘सिम्पटम्स’ सुनने को पूरा दिन नहीं पड़ा। उसने सौ और मरीज देखने हैं। आप हैं कि उसे कभी अपना ‘डेजिग्नेशन’ कभी अपना ‘डायग्नॉसिस’ सुनाने लगते हैं। आजकल ‘गूगल बाबा’ के चलते मरीज अपने को सामने वाले डॉक्टर से अधिक नहीं तो कम भी नहीं समझता। कभी किसे बड़े शहर के रेलवे के किसी सेंट्रल हॉस्पिटल में जाकर देखें। रेलवे हॉस्पिटल और रेलवे स्टेशन का फर्क मिटता जा रहा है। सब अपनी-अपनी ट्रेन पकड़ने को भाग रहे हैं। शहर के ‘मुंसिपाल्टी’ और रेलवे अस्पताल एकाकार हो गए हैं।
बहुत से इलाज के लिए तो आपको खुद अपनी बहुत सी सामग्री ले जानी पड़ती है जैसे कि डायालिसिस के लिए। बरबस ही शेर याद आता है:
महफिल उनकी साकी उनका !
आँखें मेरी…… बाकी उनका !!