10वीं-12वीं के पाठ्यक्रम में सार्थक बदलाव का स्वागत होना चाहिए!
इस नीति से कम से कम तमिलनाडु समेत दक्षिण के राज्य हिंदी थोपने का आरोप नहीं लगा सकते। नई शिक्षा नीति में कहीं भी दक्षिण के राज्यों पर हिंदी थोपने की बात नहीं कही गई है। बावजूद इसके दक्षिण के कुछ राजनीतिज्ञ बिना किसी आधार के इसके विरोध में खड़े रहते हैं। इस कदम से भाषाई विवाद भी सदा के लिए दूर हो जाएंगे!
नई शिक्षा नीति की रोशनी में #सीबीएसई द्वारा दसवीं और बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रमों में किया गया बदलाव बहुत सार्थक कदम है। सीबीएसई बोर्ड ने घोषणा की है कि दसवीं के पाठ्यक्रम में अब तीन भाषाएं अनिवार्य होंगी, जिसमें दो भारतीय और एक विदेशी भाषा हो सकती है। साथ ही पांच विषयों के बजाय 10 विषय होंगे। इसी तरह 12वीं के पाठ्यक्रम में दो भारतीय भाषाएं अनिवार्य होगी।
भाषा के इस महत्वपूर्ण पक्ष को रेखांकित करना इसलिए आवश्यक है कि किसी भी ज्ञान को समझने के लिए भाषा सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भाषा का संबंध केवल साहित्य से ही नहीं होता, गणित और विज्ञान भी भाषा के माध्यम से ही बच्चों के दिमाग तक पहुंचते हैं और यदि वह भाषा उनकी मातृभाषा हो तो उसका करिश्मा ही कुछ और होता है। सारी दुनिया के शिक्षाविद इस बात को मानते हैं। बाहरी दुनिया के ज्ञान के लिए एक भाषा के रुप में अंग्रेजी तो जारी है ही।
दसवीं के पाठ्यक्रम में दो भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता से भारतीय भाषाओं को परस्पर पढ़ने-सीखने में तो मदद मिलेगी ही, अंग्रेज़ी के साथ-साथ अनेकों विदेशी भाषाओं की तरफ अंधी दौड़ को भी रोकने में मदद मिलेगी। अधिकांश तथाकथित महंगे अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों में नौवीं से लेकर 12वीं तक की कक्षाओं में अंग्रेजी तो अनिवार्य होती है, अपनी भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं।
आजाद भारत में गांधी के सपनों के खिलाफ अपनी भाषाएं बोलने पर पाबंदी भी देश भर में देखने को मिलती हैं। अधिकतर इन स्कूलों में विदेश भागने से लेकर आर्थिक लालच में जर्मन जापानी चीनी जैसी भाषाओं की वकालत भी की जा रही है। आप स्वयं या बच्चों सहित जितनी भाषाएं सीख सकते हैं, सीखें, लेकिन स्कूल में धंधे के नाम पर बच्चों पर अनावश्यक बोझ नहीं डालें।
नई शिक्षा नीति से अंग्रेजी का ज्ञान तो रहेगा ही, साथ-साथ देश की दूसरी संपर्क भाषा हिंदी और उसके साथ आठवीं अनुसूची में शामिल कोई भाषा भी चुन सकते हैं। मसलन दिल्ली जैसे उत्तर भारत के राज्यों में हिंदी के साथ-साथ मराठी गुजराती तमिल मलयालम की पढ़ाई भी आगे बढ़ेगी। इसी तरह तमिलनाडु जैसे राज्य यदि चाहें तो हिंदी के साथ-साथ मलयालम बांग्ला मराठी भी पढ़ा सकते हैं। तमिल सहित अपनी भाषा तो अनिवार्य रूप से होगी ही।
इस नीति से कम से कम तमिलनाडु समेत दक्षिण के राज्य हिंदी थोपने का आरोप नहीं लगा सकते। नई शिक्षा नीति में कहीं भी दक्षिण के राज्यों पर हिंदी थोपने की बात नहीं कही गई है। बावजूद इसके दक्षिण के कुछ राजनीतिज्ञ बिना किसी आधार के इसके विरोध में खड़े रहते हैं। इस कदम से भाषाई विवाद भी सदा के लिए दूर हो जाएंगे।
उत्तर भारत के लिए भी समझदारी का कदम यह होगा कि वे हिंदी के अलावा संस्कृत पढ़ाने पर ही जोर न दें। दक्षिण की भाषाएँ पढ़ाई जानी चाहिए। इससे परस्पर लेन-देन से सौहार्द संवाद भी बढ़ेगा। साथ ही उत्तर भारत में देश के दूसरे हिस्सों के रहने वाले नागरिकों को भी सुविधा रहेगी। 1968 में तीन भाषा सूत्र की विफलता में यह एक महत्वपूर्ण कारण रहा है और अब इससे बचने की आवश्यकता है।
बचपन की कच्ची उम्र में तीन भाषाएं सीखने में बच्चों को कोई परेशानी भी नहीं होगी। बस उसके लिए एक खुले मन से व्यवस्था करने की जरूरत होगी। प्राथमिक कक्षाओं में इसीलिए अनिवार्य रूप से सभी की मातृ भाषाओं और उसकी बोलियां में शिक्षा की वकालत की गई है।
दसवीं में पांच विषयों के बजाय 10 विषयों का फैसला भी बहुत अच्छा कदम इसलिए माना जाएगा कि आगे चलकर अपनी रुचि के अनुसार विषयों के बड़े बैंक से बच्चे अपनी रुचि के अनुसार आगे की पढ़ाई जारी रख सकते हैं। नई शिक्षा नीति में ऐसे प्रावधान कॉलेज की पढ़ाई में पहले से ही उपलब्ध है। हाँ, इतना अवश्य ध्यान रखें कि बस्ते का बोझ नहीं बढ़ना चाहिए।
#यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा आदि में सभी विषयों का ज्ञान इसी कड़ी में समझा जा सकता है। नई शिक्षा नीति में व्यावसायिक पाठ्यक्रम और उनके ज्ञान को भी समान अंक क्रेडिट देने से शिक्षा की बदलती तस्वीर पूरे देश की तस्वीर बदल सकती है। देखना यह है कि कितनी ईमानदारी से इसे लागू किया जाता है।
#प्रेमपालशर्मा, शिक्षाविद एवं पूर्व संयुक्त सचिव, भारत सरकार