आग्रह: विदेशी विश्वविद्यालय सुधार के साथ आएं!
अगर सरकार स्वायत्तता और सारी सुविधाएं विदेशी विश्वविद्यालयों को देना चाहती है तो उससे पहले उसे देश के विश्वविद्यालयों को भी यही देना होगा, एक संवेदनशील लोकतांत्रिक सरकार से ऐसी अपेक्षा करने का अधिकार सभी को है!
21वीं सदी की दुनिया में विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में देसी विदेशी जैसी रूढ़ शब्दावली के कोई माने नहीं हैं, लेकिन फिर भी हर देश की अपनी पहचान, संस्कृति और सबसे ऊपर आवश्यकता के हिसाब से सावधान रहना तो आवश्यक है ही। भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खोलने की आजादी ने दोनों खेमों में ही खलबली मचा दी है। वाम उदारवादी तो हर बार की तरह इस सरकार के हर कदम को जांचे बिना ही टूट पड़ते हैं लेकिन इस बार स्वदेशी जागरण मंच, आत्मनिर्भर भारत, महान विश्व गुरु के पैरोकार भी कुछ-कछ परेशान हैं।
विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में अनुमति देने की चर्चा पिछले 20 वर्षों से लगातार होती रही है। मनमोहन सिंह सरकार में भी बार-बार संसद में बिल पेश होता रहा। वे तो उनकी अंग्रेजी से सबसे ज्यादा प्रभावित थे। लेकिन संसद में बिल पास नहीं हो पाया। मौजूदा सरकार विपक्ष में रहते इसका पुरजोर विरोध करती रही थी। लेकिन वही सरकार और अधिक सुविधाओं के साथ विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस देश में खोलने की अनुमति कैसे दे रही है? और इसमें सबसे बड़ी रियायत है कि ये विश्विद्यालय मुनाफे को अपने देशों को भेज सकते हैं। इसके अलावा दाखिला, फीस, पाठ्यक्रम, शिक्षकों की नियुक्ति जैसे सभी क्षेत्रों में उन्हें आजादी दी जाएगी।
अचानक विदेशियों के लिए इतनी सारी रियायत और अपने देश के विश्वविद्यालयों के लिए तरह-तरह के नियम कानून क्यों? मौजूदा सरकार शिक्षा के कई पहलुओं के प्रति लगातार गंभीर रही है और सक्रिय भी। 5 वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय समेत उसके कॉलेजों को स्वायत्तता देने की चर्चा जोरों पर चली थी। उसके पीछे भी यही उद्देश्य था कि हमारे विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम की जकड़न भी दूर हो और वे वैश्विक ज्ञान को आसान और त्वरित गति से आत्मसात करते हुए ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो सिंगापुर अमेरिका और यूरोप के देशों के ज्ञान को टक्कर दे सके।
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज, स्टीफन जैसे कॉलेज इस प्रयास में उत्साह से आगे भी बढ़े, लेकिन विश्वविद्यालय का ही एक बहुत बड़ा वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया। तरह-तरह के आरोपों के साथ कि इससे शिक्षकों की नियुक्ति पर असर पड़ेगा। आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। फीस बढ़ाई जाएगी आदि आदि। और हार कर सरकार ने पैर खींच लिए।
हालांकि इस वर्ग ने उन्हीं दिनों शुरू हुए हरियाणा के अशोका विश्वविद्यालय, जिंदल विश्वविद्यालय की फीस और स्वायत्तता पर कभी उंगली नहीं उठाई।उसे वे लिबरल उदारवादी शिक्षा के मक्का मदीने की तरह पूजते रहे हैं। इसलिए भी कि इन सभी अंग्रेजी दां अमीरों के अपने बच्चे वहां पढ़ रहे हैं।इन्होंने कभी दिल्ली और दूसरे महानगरों के उन पब्लिक स्कूलों पर भी उंगली नहीं उठाई जिनकी फीस सरकारी स्कूलों से 100 गुना तक ज्यादा है।खैर, कथनी और करनी के ऐसे विरोधाभास इस देश को हर बार एक और अंधेरे की तरफ ले जाते रहे हैं।
सरकार ने एक और योजना की घोषणा की थी इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सीलेंस – इस योजना के अंतर्गत ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाने थे जो दुनिया के 500 सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में शामिल किए जा सकें। मुंबई आईआईटी, दिल्ली आईआईटी, बंगलुरु जैसे संस्थान चिन्हित भी किए गए, लेकिन 4 वर्ष बीतने के बाद भी कोई संतोषजनक प्रगति सामने नहीं आ रही है। इसीलिए इस नई घोषणा पर और भी प्रश्न उठ रहे हैं।
सबसे बड़ी आपत्ति यह कि यदि ये विश्वविद्यालय शिक्षा में हुए मुनाफे को अपने देश भेजेंगे तो जो सुप्रीम कोर्ट शिक्षा को अभी तक धंधा न मानने के निर्णय देता रहा है, उसका क्या होगा? और क्या इससे देश के संस्थान मजबूत होंगे? वैसा ही प्रश्न फीस का है। क्या बिना किसी लगाम के फीस की आजादी इस देश के गरीबों के हित में होगी? अमीर तो गुणा भाग कर रहे हैं कि विदेश में भेजने पर एक करोड़ खर्चा होता है तो वे यहां पर आधे में ही होगा। लेकिन क्या यह संविधान में सभी को समान शिक्षा देने की प्रतिज्ञा, कोठारी आयोग के खिलाफ नहीं होगा?
अभी तो हम पब्लिक स्कूलों में ही फीस को नहीं रोक पा रहे तो इसे कैसे रोकेंगे? ऐसे कदम क्या गैर बराबरी और असंतोष को और नहीं बढ़ाएंगे? और यही बात पाठ्यक्रम पर लागू होती है। हमें ज्ञान की खिड़कियां खुली रखनी चाहिए लेकिन जिस देश में अंबेडकर और गांधी के कार्टून के विवाद पर संसद ठप रही हो, कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के एक शब्द पर लोग सड़कों पर उतर आए हों, वहां विदेशी विश्वविद्यालय को हर तरह की आजादी के लिए कैसे जगह बनेगी? क्या देश में शिक्षा के अलग अलग द्वीप बनेंगे? और क्या होगा शिक्षा के भारतीयकरण, भारतीय भाषाओं के रथ का।
इन इन सब बातों के अलावा सारी दुनिया यह जानती है कि दुनिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय प्रिंसटन, येल, स्टैनफोर्ड ऑक्सफोर्ड अपने देश के अलावा बाहर शायद ही कोई कैंपस खोलते हों और इसीलिए पिछले चार सौ वर्षों से वे शिक्षा में अव्वल बने हुए हैं। अपनी लोकतांत्रिक स्वायत्तता के साथ शिक्षा में नई नई खोज, प्रयोग को और आगे बढ़ाते हुए। हमारे यहां जो आएंगे या जो आने की कोशिश कर रहे हैं, ये वे विश्वविद्यालय हैं जो दूसरे तीसरे दर्जे से भी नीचे हैं। उन्हें दिखाई दे रहा है दुनिया का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा शिक्षा का बाजार।
यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि भारत विद्यार्थियों का सबसे बड़ा निर्यातक है। हर साल पांच लाख बच्चों का बाहर पढ़ने के लिए जाना क्या आत्मनिर्भर भारत स्वदेशी भारत के खोखलेपन को नहीं दर्शाता? क्या इसमें कोई कमी आई? क्या नई शिक्षा नीति की घोषणा के बाद क्लासरूम की पढ़ाई में कोई परिवर्तन हुआ? कोटा और दूसरे शहरों में मासूम बच्चों की बढ़ती आत्महत्याएं बेचैन करने वाली है! क्या हम कोई प्रभावी कदम उठा पाए? यही हाल बढ़ते कोचिंग क्लासेस का है। इन सभी प्रश्नों पर सोचने की आवश्यकता है।
वैश्वीकरण से तो हमें यह सीखने की आवश्यकता है कि जब इंटरनेट आदि पर दुनिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम लेक्चर सामग्री उपलब्ध है तो उनसे सीखते हुए हम अपने विश्वविद्यालयों को क्यों नहीं बेहतर कर सकते? हम उन्हें थोड़ी स्वायत्तता क्यों नहीं दे सकते? हम अपने देश के उद्यमियों को जो बहुत नेक नीयत से शिक्षा में सुधार चाहते हैं जैसे अजीम प्रेमजी, नारायण मूर्ति, अडानी आदि के लिए ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाते कि वे आगे आकर अपना योगदान दे सकें?हमारे लाल कालीन केवल विदेशियों के लिए ही क्यों? क्या दादा भाई नौरोजी और दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी जो अंग्रेजी राज में भारत के पैसे को विदेश जाता देख बैचेन रहते थे उनकी आत्मा पर क्या गुजरेगी?
इसीलिए सरकार की मंशा कितनी भी पवित्र हो, इस जमीनी हकीकत को समझना ही होगा। शिक्षा भले ही समवर्ती सूची में हो लेकिन राज्यों के विश्वविद्यालयों को भी सख़्त कानून बनाकर और बेहतर बनाना होगा जिससे शिक्षा के लिए केवल महानगर ही क्यों आना पड़े। विकेंद्रीकरण की बात तो आजादी के बाद से ही हो रही है, क्या अमृत काल में उन्हें फिर से याद करने की जरूरत नहीं है?
हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षा के ऐसे फैसलों के पीछे नौकरशाही के वे अमीर और अंग्रेजी दां लोग हैं जो हर बार हर सरकार में शामिल होकर केवल अपने स्वार्थ और बच्चों की खातिर ऐसी नीतियों की वकालत करते हैं। अगर सरकार स्वायत्तता और यह सारी सुविधाएं विदेशी विश्वविद्यालयों को देना चाहती है तो उससे पहले उसे देश के विश्वविद्यालयों को भी यही देना होगा। एक संवेदनशील लोकतांत्रिक सरकार से ऐसी अपेक्षा करने का अधिकार सभी को है!
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