रेलवे में बलास्ट की आपूर्ति : मशीन क्रश्ड बनाम हैंड ब्रोकन

मशीन क्रश्ड बलास्ट की मद में ‘हाई लेबर कास्ट’ का अब कोई औचित्य नहीं है -सुबोध जैन

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल में बलास्ट की खरीद और आपूर्ति हर साल बहुत बड़े पैमाने पर की जाती है. एक अनुमान के अनुसार पूरी भारतीय रेल में हर साल करीब 2000 करोड़ रुपए की लगभग 10 लाख क्यूबिक मीटर बलास्ट (गिट्टी) की खरीद होती है. यह खरीद विभिन्न जोनल रेलों द्वारा की जाती है. जोनल रेलों द्वारा इसके टेंडर वार्षिक आधार पर और पांच वर्ष के लिए भी किए जाते हैं. वर्ष 1980 से पहले यह बलास्ट हैंड ब्रोकन होती थी. उसके बाद आरडीएसओ की एक संस्तुति के पश्चात् हैंड ब्रोकन बलास्ट की खरीद को पूरी तरह बंद करके सम्पूर्ण रूप से मशीन क्रश्ड बलास्ट की ही खरीद का आदेश रेलवे बोर्ड ने जारी कर दिया था. तथापि, झारखंड के पाकुर जैसे आदिवासी इलाके में स्थानीय सामाजिक कारणों से वर्ष 2000 के आसपास तक हैंड ब्रोकन बलास्ट की खरीद की जाती रही, मगर अब वह भी बंद कर दी गई है. अब पूरी भारतीय रेल में सिर्फ मशीन क्रश्ड बलास्ट की ही खरीद की जा रही है.

वर्ष 1980 से पहले जब बड़ी मशीनों और क्रेशर्स का निर्माण नहीं हुआ था, तब हैंड ब्रोकन बलास्ट चल रही थी. तब इस काम में बड़े पैमाने पर मानवीय श्रम और संसाधन की जरूरत पड़ती थी. उस समय इस मद में 45% लेबर कंपोनेंट कास्ट का प्रावधान था. मगर उसके बाद जब से मशीन क्रश्ड बलास्ट की खरीद शुरू हुई है, तब से इस मद में यह लेबर कंपोनेंट कास्ट घटकर बमुश्किल 5% रह गई है. तथापि, वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2012 तक भी यही 45% लेबर कंपोनेंट कास्ट इस मद चलती रही. जबकि वर्ष 2012 में इसे घटाकर न्यूनतम किए जाने के बजाय 10% बढ़ाकर 55% कर दिया गया.

उल्लेखनीय है कि मशीन क्रश्ड बलास्ट के लिए अब कांट्रेक्टर अथवा सप्लायर को किसी प्रकार की लेबर कास्ट का वाहन नहीं करना पड़ता है. देश भर में अब जगह-जगह इतने ज्यादा क्रेशर और क्वेरी स्थापित हो गई हैं, जहां लगातार गृह-निर्माण सहित रेलवे के उपयोग की गिट्टी (बलास्ट) का उत्पादन किया जा रहा है. रेलवे से बलास्ट की आपूर्ति का टेंडर लेने वाला कांट्रेक्टर/सप्लायर अब महज एक बिचौलिया अथवा आपूर्तिकर्ता ही रह गया है. इस समस्त बलास्ट की आपूर्ति, ढुलाई, भराई आदि बड़े-बड़े ट्रेलर्स और ट्रकों से हो रही है. यही नहीं, स्टैक (चट्टा) लगाने का काम भी मशीनों से ही किया जा रहा है. इन सभी कार्यों में पहले जहां सैकड़ों की संख्या में मानव संसाधन की जरूरत होती थी, वहीं अब यह सारे काम मात्र कुछ लेबर से ही हो रहे हैं. इस तरह बलास्ट की आपूर्ति में मानव संसाधन अब अत्यंत न्यूनतम हो गया है. इसलिए इस मद में 55% लेबर कंपोनेंट (बजट) रखा जाना सही नहीं है.

रेलवे बोर्ड का इंजीनियरिंग डायरेक्टरेट समय-समय पर विभिन्न इंजीनियरिंग टेंडर्स से सम्बंधित कॉन्ट्रैक्ट्स वर्क्स के लिए जनरल कंडीशंस ऑफ कांट्रेक्ट के ‘प्राइस वेरिएशन क्लॉज़’ में वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2012 तक दसियों बार फेरबदल कर चुका है. सर्वप्रथम यह कंडीशंस वर्ष 1980 में तय की गई थीं. 14 दिसंबर 2012 के पत्रांक 2007/सीई-I/सीटी/18-पीटी.19 के अनुसार इंजीनियरिंग निदेशालय, रेलवे बोर्ड ने जनरल कंडीशंस ऑफ कांट्रेक्ट (जीसीसी) के ‘जनरल इंस्ट्रक्शंस’ में ‘क्लॉज़ 46ए – प्राइस वेरिएशन क्लॉज़’ के रूप में एक नया ‘क्लॉज़’ जोड़ा है. उक्त नए क्लॉज़ के बाद भी तमाम इंजीनियरिंग कॉन्ट्रैक्ट्स के अंतर्गत ‘लेबर कंपोनेंट’ के तहत बलास्ट एंड क्वारी प्रोडक्ट्स जैसे कॉन्ट्रैक्ट्स में लेबर कंपोनेंट की कास्ट कम करने के बजाय बढ़ाई गई है.

वर्ष 1987 में इसके लिए रेलवे बोर्ड ने वरिष्ठ इंजीनियरिंग अधिकारियों की एक समिति गठित की थी. उक्त समिति ने तब बलास्ट एवं क्वारी प्रोडक्ट्स की मद में लेबर कंपोनेंट कास्ट को 45% से बढ़ाकर 55% कर दिया था. उक्त समिति की सभी सिफारिशें 14 दिसंबर 2012 के उपरोक्त समसंख्यक पत्रांक में लगभग ज्यों की त्यों स्वीकार गई हैं. इन सभी मदों की कास्टिंग में सबसे ज्यादा विरोधाभाषी बलास्ट की मद में ‘लेबर कास्ट या कंपोनेंट’ में की गई बढ़ोत्तरी है, क्योंकि बलास्ट का कार्य वर्तमान में मानव श्रम के बजाय मशीनों से ज्यादा किया जा रहा है. अतः इसमें कार्य की अपेक्षा मानव श्रम कम हुआ है. पहले जब हैवी मशीनें नहीं थीं, तब उक्त मद में मानवीय श्रम संसाधन ज्यादा लगता था, जबकि अब वर्तमान में इस कार्य के लिए बहुत बड़ी-बड़ी मशीनें आ गई हैं, जिनसे जो काम पहले मानव श्रम से औसतन 30 दिनों में होता था, वह अब 3 दिन में होने लगा है. इसलिए बलास्ट के मामले में जो लेबर कास्ट पहले 55% हुआ करती थी, वह अब घटकर औसतन 5% रह गई है.