सिर्फ बलास्ट सप्लाई में करप्शन रोककर किया जा सकता है 7वें वेतन आयोग का भुगतान

बलास्ट की कुल सप्लाई पर नहीं काटा जा रहा है आयकर, बिक्रीकर और सेवाकर

रेलवे और सरकार को हो रहा है सालाना हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान

डिपुओं में डेढ़-दो साल से पड़ी बलास्ट के बावजूद रोजाना जारी हो रहे हैं नए-नए टेंडर

बलास्ट डिपुओं में चारदीवारी बनाकर और सीसीटीवी कैमरे लगाकर रोकी जा सकती है इसकी चोरी

बलास्ट के भ्रष्टाचार में सम्बंधित अधिकारियों, कर्मचारियों, विजिलेंस और सप्लायर्स की मिलीभगत

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल में हजारों क्यूबिक मीटर/टन बलास्ट (गिट्टी) की खरीद हर साल होती है. इस मद में सबसे ज्यादा बजट भी आवंटित किया जाता है. यह बलास्ट भारतीय रेल का एक महत्वपूर्ण सेफ्टी आइटम भी है. यही पूरी रेल पटरी को जकड़कर रखती है, जिस पर ट्रेनें सरपट भागती हैं. इसकी कमी के कारण ही ट्रेनें पटरियों पर हिचकोले खाती हैं और बर्थ पर लेटा या सोया यात्री कई बार नीचे लुढ़क जाता है तथा रेलवे के इंजीनियरों की सात पीढ़ियों को न्योतने लगता है. बलास्ट की खरीद और आपूर्ति में जमीन आसमान का अंतर होता है, जो कि सामान्यतः किसी को नजर नहीं आता है. इस एकमात्र आइटम की खरीद एवं आपूर्ति में भारी भ्रष्टाचार समाया हुआ है. जानकारों का मानना है कि यदि रेल प्रशासन इस एकमात्र आइटम की खरीद और आपूर्ति में हो रहे भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सके, तो अकेले इसी आइटम की बचत से भारतीय रेल के 13.36 लाख कार्मिकों को सातवें वेतन आयोग के कारण बढ़े हुए वेतन-भत्तों एवं उनके एरियर्स का भुगतान किया जा सकता है.

जानकारों का कहना है कि क्वैरी/क्रेशर्स प्रोडक्ट्स से जो बलास्ट सीधे सप्लायर्स के माध्यम से आपूर्ति की जाती है, उसकी लेबर कास्ट अब 55% से घटकर सीधे 5% पर आ गई है, क्योंकि अब हाथ से गिट्टी तोड़ने या पत्थर फोड़ने में मजदूरों का इस्तेमाल नहीं हो रहा है. इस सारे काम का मशीनीकरण हो चुका है. तथापि आज भी यह लेबर कास्ट 55% ही रखी गई है. इस बारे में रेलवे बोर्ड का कहना है कि इस मद में संशोधन की प्रक्रिया चल रही है. इस पर जानकारों का कहना है कि यह प्रक्रिया इतनी लंबी हो चुकी है कि 90 के दशक से आज करीब 25 साल बाद भी यह पूरी नहीं हो सकी है. ऐसे में इस मद में इतने लंबे समय से हो रहा कदाचार लगातार बढ़ता गया है. इसके अलावा वर्तमान में इसमें हो रहे कदाचार के नए-नए तरीके भी खोज लिए गए हैं.

जानकारों का कहना है कि वर्तमान में टेंडर कंडीशन के अनुसार कांट्रेक्टर/ट्रेडर (बलास्ट आपूर्तिकर्ता) क्वैरी या क्रेशर से खरीदी गई बलास्ट का बिल अथवा उसे भुगतान की गई रॉयल्टी के कागजात रेलवे के पास जमा करता है. यह कंडीशन बलास्ट के प्रत्येक टेंडर का अनिवार्य हिस्सा है. मगर वास्तविकता में ऐसा न तो किसी कांट्रेक्टर या सप्लायर द्वारा किया जा रहा है, और न ही सम्बंधित रेल अधिकारी उन पर इस कंडीशन को पूरा करने का दबाव बनाते हैं. जानकारों का कहना है कि इस मामले में दो तरह के रेट का भुगतान बलास्ट सप्लायरों को किया जा रहा है. इनमें से एक रेट बलास्ट सप्लाई के लिए और दूसरा स्टैकिंग (गिट्टी का चट्टा लगाने) के लिए होता है. जबकि टीडीएस सिर्फ स्टैकिंग (लेबर कंपोनेंट) की मद में ही काटा जाता है, और सप्लाई की मद में कॉन्ट्रैक्टर्स द्वारा पूरा-पूरा आयकर बचा लिया जाता है. जबकि यह दोनों मदों में समान रूप से काटा जाना चाहिए. इस तरह से कॉन्ट्रैक्टर्स/सप्लायर्स द्वारा पूरे-पूरे आयकर (इनकम टैक्स) के साथ-साथ पूरा सेवाकर (सर्विस टैक्स) और बिक्रीकर (सेल्स टैक्स) भी बचाकर सरकरी राजस्व को हर साल करोड़ों रुपए का चूना लगाया जा रहा है.

वर्तमान में बलास्ट की खरीद के लिए जारी किए जा रहे टेंडर्स में एक आश्चर्यजनक बदलाव यह देखने को मिल रहा है कि अब टेंडर कंडीशन में ही यह लिखा जा रहा है कि बलास्ट की आपूर्ति में सेल्स टैक्स नहीं कटेगा. जानकारों का कहना है कि यदि लेबर कंपोनेंट (55%) में बलास्ट की कास्ट 1000 रु. प्रति क्यूबिक मीटर है, तो 550 रु. से ऊपर की कास्ट पर टीडीएस काटना चाहिए. यानि लेबर कंपोनेंट के हिसाब से पीवीसी के लिए किए गए भुगतान पर 16% के हिसाब से आयकर काटा जाना चाहिए. मगर वास्तविकता में जहां लेबर कंपोनेंट पर पीवीसी का भुगतान में हो रहा है, वहां उसमें से सप्लाई कंपोनेंट पर आयकर नहीं काटा जा रहा है. अब यदि 550 रु. पर हर साल 10% लेबर कास्ट बढ़ी, तो कुल 55 रु. टीडीएस काटा जाता है. मगर टीडीएस मात्र 100 रु. के लेबर कंपोनेंट (स्टैकिंग) पर ही काटा जा रहा है. इसका मतलब यह है कि जहां बड़े और दोनों भुगतान पर टीडीएस काटा जाना चाहिए, वहां सिर्फ छोटे भुगतान (लेबर कंपोनेंट) पर ही टीडीएस काटा जा रहा है. जो पूरा माल (बलास्ट) सप्लाई हुआ, उस पर आयकर काटा ही नहीं जा रहा है, इससे रेलवे और सरकार को सालाना हजारों करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हो रहा है.

जानकारों द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार पूरी भारतीय रेल में बने ज्यादातर बलास्ट डिपो में दो-दो साल पुरानी बलास्ट के चट्टे लगे पड़े हुए हैं. इन चट्टों पर बड़ी-बड़ी घास तक उग आई हुई है. गिट्टी के ऐसे कई चट्टे (स्टेक्स) यात्रा के समय रेलवे लाइन के किनारे भी लगे हुए देखने को मिलते हैं, जिनको देखने से ही पता चलता है कि ये चट्टे काफी पुराने हैं. मगर इसके बावजूद नई-नई बलास्ट की आपूर्ति के लिए नए-नए टेंडर जारी होते रहते हैं. जानकारों का कहना है कि अधिकांश डिपो में बलास्ट के चट्टे एक-एक दो-दो साल से लगे हुए हैं, जबकि नए-नए टेंडर लगातार जारी हो रहे हैं और नई-नई सप्लाई ली जा रही है. ऐसे सभी बलास्ट डिपो ओपन प्लाट पर बने हुए हैं, जहां कोई देखरेख अथवा सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है. जानकारों का कहना है कि इन सभी बलास्ट डिपो के चारों ओर चारदीवारी होनी चाहिए और उनमें गेट बनाकर उनके चारों कोनों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए. तब शायद बलास्ट की चोरी रुक सकती है और करोड़ों-अरबों रुपए की बचत भी इसी से की जा सकती है.