रेलवे में भी विभिन्न लौह उत्पादों की खरीद पर सीपीडब्ल्यूडी का पैटर्न लागू किया जाए

हजारों करोड़ की खरीद पर भी सेल अपना बेस रेट बाजार मूल्य के अनुपात में तय करने को तैयार नहीं

सभी लौह उत्पादन इकाईयों पर प्राइस इंडेक्स के अनुसार बेस रेट तय करने की बाध्यता लागू होनी चाहिए

सुरेश त्रिपाठी

भारतीय रेल देश में सबसे बड़ी लोहा खरीदने वाली संस्था है. इसके द्वारा अपने विभिन्न प्रकार के सिविल निर्माण कार्यों के लिए और रेल पटरियों सहित हर साल हजारों करोड़ रुपए के कई प्रकार के लौह उत्पादों की खरीद की जाती है. इनके भुगतान के लिए रेलवे द्वारा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) द्वारा तय किए गए बेस रेट (आधार मूल्य) का इस्तेमाल किया जाता है. सेल के आधार मूल्य और बाजार मूल्य में बहुत बड़ा अंतर होता है, जबकि कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स द्वारा टेंडर में वर्तमान बाजार मूल्य के आधार पर अपने रेट डाले जाते हैं. कांट्रेक्ट के बीच में और माल सप्लाई हो जाने के बाद यदि सेल द्वारा अपना बेस रेट घटा दिया जाता है, तो रेलवे द्वारा भी उसी के अनुपात में कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स के रेट में कटौती कर दी जाती है. तब प्राइस वेरिएशन के लिए निगोसिएशन में भी कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स को उचित दर पर भुगतान पाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं.

कुछ कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स का कहना है कि वर्तमान में सेल का आधार मूल्य 41,000 रुपए प्रति टन (1,000 किलो) है, जो कि सेल की वेबसाइट से भी स्वतः जाहिर है, जबकि इसमें ड्यूटी और तमाम टैक्स मिलाकर यह मूल्य प्रति टन करीब 46,000 रुपए हो जाता है. वहीं उसी गुणवत्ता के लौह उत्पादों का वर्तमान बाजार मूल्य कुल-मिलाकर 32,000 रुपए प्रति टन चल रहा है. इसमें सीधे 14,000 रुपए प्रति टन का अंतर स्पष्ट दिखाई दे रहा है. उनका कहना है कि जब सेल का आधार मूल्य 50 रुपए प्रति किलो होता है, तब उसका वर्तमान बाजार मूल्य 30 से 35 रुपए प्रति किलो के आसपास होता है. ऐसे में उनके द्वारा सभी प्रकार का खर्च जोड़कर 40 रुपए प्रति किलो के हिसाब से टेंडर डाला जाता है. इसी बीच किन्हीं कारणों से यदि सेल द्वारा अपना बेस रेट घटाकर 50 रु. से 40 रु. प्रति किलो कर दिया जाता है, तब रेलवे द्वारा उनके भुगतान की दर 10 रु. कम करके 40 रु. के बजाय 30 रु. प्रति किलो कर दी जाती है.

उनका कहना है कि पीवीसी क्लॉज़ होने के बावजूद उचित बाजार मूल्य के अनुसार उन्हें भुगतान नहीं किया जाता है. जबकि निगोसिएशन में भी रेलवे मात्र कुछ बढ़कर ही भुगतान पर राजी होती है. तथापि, इससे भी उनकी लागत के अनुसार उन्हें घाटा होता है. उन्होंने बताया कि यदि रेलवे द्वारा भी केंद्रीय सार्वजनकि निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) का पैटर्न इस्तेमाल किया जाए, तो इससे किसी प्रकार की किसी को कोई समस्या नहीं होगी. उन्होंने कहा कि सीपीडब्ल्यूडी द्वारा अपनाया जाने वाला सबसे बढ़िया तरीका है, क्योंकि सीपीडब्ल्यूडी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा विभिन्न जिंसों की हर महीने जारी की जाने वाली ‘प्राइस इंडेक्स’ के अनुसार भुगतान करता है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार रेलवे से जुड़े रेल विकास निगम लि. (आरवीएनएल), इरकॉन, डीएफसीसीएल, कोलकाता मेट्रो रेल कारपोरेशन लि. (केएमआरसीएल) सहित तमाम बड़े शहरों में बन रही मेट्रो रेलों जैसे सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) द्वारा वर्तमान में बड़े पैमाने पर लौह उत्पादों (सरिया आदि) की खरीद की जा रही है. यह खरीद हजारों करोड़ रुपए की है. सेल से उसका बेस रेट बाजार मूल्य के अनुपात में तय करने को कहने के लिए रेलवे तैयार नहीं है. जबकि उपरोक्त में से कई पीएसयू के अधिकारियों ने जब सेल अधिकारियों से बैठक करके उनसे अपना बेस रेट घटाने के लिए कहा, तो उन्होंने इससे साफ इंकार कर दिया.

उल्लेखनीय है कि सेल भी भारत सरकार की ही कंपनी है, जो कि उद्योग मंत्रालय के मातहत है. तथापि, वह आरबीआई की मंथली प्राइस इंडेक्स पर अमल करने को तैयार नहीं है, जबकि भारत सरकार के ही एक विभाग सीपीडब्ल्यूडी द्वारा आरबीआई के प्राइस इंडेक्स का पालन किया जा रहा है. ज्ञातव्य है कि आरबीआई का ‘मंथली प्राइस इंडेक्स’ ही देश भर में तमाम आवश्यक जिंसों के मूल्यों में उतार-चढ़ाव और मंहगाई का सबसे विश्वसनीय पैमाना माना जाता है. इसी के आधार पर समस्त केंद्रीय कर्मचारियों को मिलने वाले मंहगाई भत्ते की दर सुनिश्चित की जाती है. ऐसे में सेल सहित देश की सभी लौह उत्पादन इकाईयों पर आरबीआई की प्राइस इंडेक्स के अनुसार अपने बेस रेट तय करने की बाध्यता लागू की जानी चाहिए.

कॉन्ट्रैक्टर्स एवं सप्लायर्स का कहना है कि इस ‘आरबीआई प्राइस इंडेक्स’ के अनुसार यदि लौह उत्पादों के रेट घट जाते हैं, तो सीपीडब्ल्यूडी द्वारा घटी हुई दरों पर भुगतान किया जाता है, और यदि उसमें इनके रेट बढ़े हुए होते हैं, तो सीपीडब्ल्यूडी द्वारा बढ़े हुए रेट के अनुसार भुगतान किया जाता है. उनका कहना है कि सीपीडब्ल्यूडी की इस व्यवस्था में किसी भी पक्ष को शिकायत का कोई मौका नहीं मिलता है. हालांकि रेलवे निर्माण संगठन से जुड़े एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि यह सही है कि रेलवे द्वारा भुगतान के लिए सेल के बेस रेट को आधार माना जाता है, मगर टेंडर की शर्तों और पीवीसी क्लॉज़ के अनुसार ही भुगतान होता है.

तथापि, इस मामले में कहीं न कहीं बहुत बड़ी गड़बड़ चल रही है, जिससे तमाम कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स में रेलवे की प्रक्रिया पर भारी रोष है. इसके अलावा रेलवे द्वारा विभिन्न प्रकार के लौह उत्पादों की खरीद में यदि सीपीडब्ल्यूडी का पैटर्न अपनाया जाता है, जिसे अपनाने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, तो इससे न सिर्फ रेलवे का ही भला होगा, बल्कि कॉन्ट्रैक्टर्स और सप्लायर्स में व्याप्त असंतोष भी खत्म हो सकता है. इससे बीच में टेंडर छोड़कर भी कोई कांट्रेक्टर या सप्लायर नहीं भागेगा.