लोकतंत्र की सीमाएं, या लोकतंत्र और ग्रामीण विकास!
अगर जनता की मांग और आवश्यकता के साथ प्रशासन एक बेहतर तालमेल बिठाये, तो देश के दूरदराज के हिस्सों को भी विकास का समान लाभ मिल सकता है, बेहतर सुविधाओं के लिए शहरों की तरफ पलायन भी रुकेगा, प्रदूषण भी कम होगा, और लोकतंत्र में जिस समग्र विकास और अंतिम आदमी को शामिल करने का जो सपना होता है, वह भी संभव पाएगा!
प्रेमपाल शर्मा*
दुनिया भर में समाज के विकास के लिए लोकतंत्र को सबसे कम कमियों वाला मॉडल माना गया है। यहां तक की वर्तमान वैश्विक विमर्श में लोकतंत्र की कसौटी पर ही किसी देश की नैतिकता और प्रतिष्ठा को परखा जाता है। लेकिन यदि समाज लोकतंत्र की कसोटी के अनुरूप नहीं होता तो उसकी सीमाएं भी बहुत स्पष्ट हो जाती हैं। यहां तक कि इससे विकास में अवरोध भी पैदा होता है।
पिछले दिनों देश के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों को नजदीक से जानने का अवसर मिला। पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक गांव में प्राइमरी हेल्थ सेंटर बनाने का फैसला सरकार ने किया है, लेकिन उसके लिए जो जगह निर्धारित की गई है वह उस गांव की सबसे गंदी जगह में से एक है जहां पहुंचना भी मुश्किल होगा। यह गांव के गंदे पानी के लिए बनी पोखर के किनारे पर है।
यह जगह क्यों चुनी गई? क्योंकि उसके आसपास रहने वाले समुदाय की अपनी वोटों की गिनती के आधार पर मांग थी कि स्वास्थ्य केंद्र हमारे मोहल्ले में ही होना चाहिए। न वहां डॉक्टर पहुंच पाएगा और न कोई मरीज वाहन से वहां जा सकता है। लोक की मांग तो पूरी हो गई लेकिन क्या इसका फायदा सभी को हो पाएगा?
उनका तर्क था कि जब पंचायत घर बना तो उसे तत्कालीन प्रधान के मोहल्ले में बनाया गया जबकि वहां जाने के लिए भी कोई रास्ता नहीं है और इसीलिए पंचायत घर बनने के पंद्रह साल बाद भी उसका उपयोग सही ढंग से नहीं हो रहा। खेतों के बीच से वहां तक सड़क बनाने की कोशिश जरूर चल रही है लेकिन कितना अच्छा होता अगर पंचायत घर और स्वास्थ्य केंद्र सड़क के किनारे बसे इस गांव में ऐसी जगह बनाया जाता जहां उस गांव के अलावा उस सड़क से गुजरने वाले दूसरे गांवो को भी फायदा होता।
पंचायती राज से ग्रामीण जनता के अंदर बराबरी और आत्मविश्वास का जज्बा तो आया है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति की तर्ज पर पूरे समाज के हित में सोचने का भाव नहीं। कुछ अपनी-अपनी मूंछ की लड़ाई और प्रतिष्ठा भी इसमें आड़े आती है जिसे हमारे जनप्रतिनिधि अपनी हार-जीत सुनिश्चित करने के लिए बढ़ावा देते हैं। रही सही कसर प्रशासन पूरी कर देता है जिसे योजनाओं को आंखें मूंदकर केवल कागज पर पूरा करना है। बिना यह देखें कि उस पैसे का सही उपयोग हो पाएगा या नहीं। यह भी कह सकते हैं कि प्रशासन में वह साहस नहीं रहा जो ऐसे किसी निर्णय पर प्रश्न उठा सके।
एक और सरकारी स्कूल को देखने का मौका मिला। इस स्कूल तक आप पैदल या मोटरसाइकिल से ही जा सकते हैं। खेतों के बीच बनाई गई पगडंडियों से होकर। यह गांव भी सड़क से बहुत दूर नहीं है, लेकिन स्कूल ऐसे बियाबान में क्यों बनाया गया? इस पर जवाब था क्योंकि पंचायत के पास जमीन वही खाली थी। नतीजा 5 करोड़ की लागत से बने इस स्कूल में केवल दो कक्षाएं शुरू हो पाई है। भले ही स्कूल में 5 करोड़ की जगह 4 करोड़ लगते, लेकिन अगर स्कूल सड़क के किनारे होता तो पूरे क्षेत्र के बच्चों को भी फायदा होता और वहां तैनात शिक्षकों के लिए भी सुविधाजनक होता। शिक्षा से जुड़े अधिकारियों और प्रशासन को भी सुविधा होती।
इसके बरक्स इस बीच कुकुरमुत्तों की तरह जो निजी स्कूल उग आए हैं वे सब सड़क के किनारे ऐसी अच्छी जगह पर बनाए गए हैं जहां सभी को पहुंचने में सुविधा है। सरकारी योजनाओं के ऐसे मॉडल से ही स्कूल और दूसरी संस्थाएं धीरे-धीरे अपना महत्व खो रही हैं। आजाद भारत में यह चारों तरफ हो रहा है।
रेलवे का हेडक्वार्टर बिहार के हाजीपुर में तत्कालीन मंत्री के दबाव में बनाया गया जबकि वहां उसकी सबसे कम जरूरत थी और 25 साल के बाद भी न वहां के क्षेत्र को कोई लाभ मिला, न कोई खास विकास हुआ, न ही कोई अधिकारी वहां जाने (पोस्टिंग) के लिए तैयार होता है। हर वर्ष करोड़ों का घाटा रेल प्रशासन को भुगतना पड़ रहा है।
सड़क, रेल, बीज गोदाम, खाद भंडार, स्कूल, कॉलेज इत्यादि से लेकर स्किल सेंटर तक की तमाम विकास योजनाओं को ऐसे ही फौरी दबावों के तहत बनाना पड़ रहा है। माना जनप्रतिनिधियों और जनता की आवाज सुनना और उस पर अमल करना प्रशासन का कर्तव्य है लेकिन प्रशासन को भी ऐसे किसी मद में करोड़ों पैसा झोंकने से पहले विवेकपूर्ण ढ़ंग से सोचने की आवश्यकता है। अच्छा लोकतंत्र दोनों के तालमेल से ही अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। जनता को जनप्रतिनिधियों के साथ अगर बैठकर समझाया जाए, तो इस समस्या की बेहतर समाधान निकल सकता है।
आजादी के बाद संसाधनों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है और इसका कुछ लाभ भी देश को मिला है, लेकिन अगर जनता की मांग और आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रशासन एक बेहतर समझ के साथ तालमेल बिठाये, तो आज आजादी के 75 साल बाद भी विकास से वंचित देश के दूरदराज हिस्सों को भी विकास का पर्याप्त लाभ मिल सकता है, बेहतर सुविधाओं के लिए शहरों की तरफ पलायन भी रुकेगा, प्रदूषण भी कम होगा तथा लोकतंत्र में जिस समग्र विकास और अंतिम आदमी को शामिल करने का जो सपना होता है, वह भी संभव होगा। अच्छे लोकतंत्र की कसौटी तो यही होनी चाहिए!
#प्रेमपाल_शर्मा (लेखक और पूर्व संयुक्त सचिव भारत सरकार) मोबाइल 99713 99046