बंगलुरु डायरी: खाने वाले और खिलाने वाले!
आसाम उड़ीसा बिहार का नौजवान मजदूर यहां 12-14 हजार महीने की नौकरी में अपना भी पेट भरता है, और गांव में रह रहे अपने बच्चों, बूढ़े मां-बाप का भी। राजनीतिक और बुद्धिजीवी भेड़िए इन्हीं के नाम पर सत्ता भोग रहे हैं और मौज उड़ा रहे हैं!
प्रेमपाल शर्मा
बंगलुरु शहर हाउसिंग सोसाइटियों में तब्दील होता जा जा रहा है। अधिकतर 10-15 मंजिली। इनकी खिड़कियों से देखो तो दुनियाभर के किसी भी महानगर लंदन पेरिस मंचेस्टर न्यूयॉर्क इत्यादि की तरह दिखाई देगा। धीरे-धीरे बाहर से ही नहीं अंदर से इनका जीवन भी ऐसे ही शहरों की तरह ग्लोबल होता जा रहा है।
औसतन दिन में 10-12 बार तो घर की घंटी बजती ही है। बच्चे के जूते अमेजॉन से आए हैं और रंग पसंद नहीं आया तो वे वापस हो जाएंगे। दूसरा आ जाएगा। छोटे-बड़े हैं तो फिर वापस। कपड़ों से लेकर खाने-पीने की दर्जनों चीजों के लिए दिनभर कोई न कोई दरवाजा खटखटाता रहता है। डोरबेल बजाता रहता है। 200 घरों की सोसाइटी में चौकीदार ने बताया हर रोज लगभग 1000 एंट्री गेट पर होती है। छुट्टी वाले दिन 2000 तक।
स्विग्गी-जोमैटो… घर घर खाना पहुचाने के लिए मशहूर हैं और यहां के अमीरों के हर शख्स को अलग-अलग समय अलग-अलग खाने की चीजें चाहिए। सभी के मोबाइल में यह ऐप है, इसलिए रसोई की तरफ देखने के बजाय ये ऐप की तरफ देखते हैं। बच्चे भी। और इसीलिए पूरा शहर इनकी फरमाइश पूरा करने वाले मोटरसाइकिल पर दौड़ते नौजवानों से भरा पड़ा है। सोसाइटी में घुसते ही उनके एक हाथ में खाने का पैकेट सामान होता है और दूसरे में मोबाइल जिस पर यह रोबोट की तरह पता ढूंढते चलते हैं। यानि चलना, मोबाइल देखना और दिमाग की हरकत एक साथ। दुनिया की सबसे बड़ी इसी नौजवान आबादी के बूते इन कंपनियों ने बड़े-बड़े दावे भी कर रखे हैं कि 10 मिनट में यदि नहीं पहुंचा तो पैसे वापस!! और इसी ने और कुछ बेरोजगारी ने इनको पागल बना रखा है। खिलाने वालों को नौकरी के लिए और खाने वालों को निकम्मेपन ने।
स्विग्गी से सामान/खाने का सामान लाने वाला महापात्र 35 वर्ष की उम्र पार कर चुका है। उड़ीसा से बीएससी जूलॉजी बॉटनी केमिस्ट्री में किया है। पहले सरकारी नौकरी के लिए भटका, फिर वहीं की एक टायर कंपनी में 8 साल नौकरी की। फिर हड़ताल हुई और कंपनी बंद हो गई। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल समेत अधिकतर उत्तर भारत की सी ही कहानी!!
अब वह बैंगलोर आ जाता है। 1550 किलोमीटर मोटरसाइकिल चलाकर। तीन दिन लगते हैं उसे आने में। रास्ते में पेट्रोल पंप पर सो लेता है। क्यों?इतनी दूर क्यों? यहां ठीक-ठाक पैसे कमा लेता हूं। दिन में यदि 30 आर्डर मिलते हैं तो एक महीने में 30,000 बच जाते हैं। 10,000 में खाना-पीना कमरे का किराया। एक कमरे में हम 5 लोग रहते हैं। रहते क्या हैं बस सोने के लिए आते हैं। कई बार सोना भी रात के 2/3 बजे हो पाता है। ऑर्डर मिलता रहता है तो हमारे पैसे भी कमाई के बढ़ते रहते हैं।
अच्छा कमा लेते हो यहां? “पैसे तो ठीक कमा लेते हैं पर परेशानी भी कम नहीं है। अभी दो दिन पहले लगातार बारिश में रात के 12:30 बजे आर्डर मिला। मैं तुरंत देने गया घंटी बजाता रहा। 12 बार फोन किए, न फोन उठाया, न दरवाजा खोला। प्रमाण के लिए वह मुझे अपना फोन भी दिखा रहा है। आधा घंटा इंतजार किया। एक और भी ऑर्डर था हमें। बारिश में भीग रहा था। आपको पता है बेंगलुरु में बारिश बंद नहीं होती। ऊपर से यह शहर कितना भी चमचमाता नजर आता हो, यहां की गलियों सड़कों पर कीचड़ और पानी भरा रहता है। कुछ इलाकों में कुत्ते भी पीछे पड़ जाते हैं। पिछली बार आया था तो मोटरसाइकिल फिसल गई थी। फैक्चर हो गया। गांव लौटना पड़ा।”
वह बताए जा रहा था, दरवाजा जब नहीं खुला तो क्या करें! कंपनी को फोन किया। उन्होंने भी फोन किया! लगता है जिन साहब ने आर्डर दिया था, वे नशे में सो गए थे। मुझे एक और आर्डर पर जाना था। वहां देर हो रही थी तो वे साहब गालियां देने लगे फोन पर ही। “तुम निकम्मे हो! कामचोर हो! काम नहीं करना चाहते!” मैंने उनको बताया कि एक साहब का इंतजार कर रहा था… कोई नहीं सुनता! यहां का ट्रैफिक इतना खराब है कि जहां 10 मिनट में पहुंच सकते हैं वहां कई बार दो-दो घंटे लग जाते हैं! यहां मेट्रो का काम सबसे धीरे चल रहा है…
नवीन पटनायक जी तो बार-बार चुनाव जीतते हैं, वहां फैक्ट्री या रोजगार क्यों नहीं है? हम यह तो नहीं बता सकते, पर यहां खाना खिलाने वाले ज्यादातर नौजवान बिहार उड़ीसा और यूपी से हैं। सिक्योरिटी में ज्यादातर आसाम वाले और घरों में काम करने वाली ज्यादातर कोलकाता पश्चिम बंगाल से। उसने बताया, “उत्तर भारत के बहुत सारे नौजवान, जो यहां पढ़ने आए हैं, और उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं है, तो छुट्टी वाले दिन और शाम को वे भी स्विग्गी और जोमैटो और ऐसे स्टोर में काम करते हैं।”
यह तो अच्छी बात है, क्योंकि उत्तर भारत में तो यह नौजवान अपने हाथ से कोई काम ही नहीं करना चाहते! वहां तो इनको सिर्फ सरकारी नौकरी चाहिए और काम भी नहीं करना पड़े! उत्तर भारत में तो वीर ही वीर हैं.. अग्निवीर! कलम के वीर! राजनीति के वीर! चोरी-डकैती-फिरौती, जाति-धर्म आदि-इत्यादि के वीर ही वीर…
“नहीं सर, यहां पर आकर सब ठीक हो जाते हैं!” वह कहता है धीमी आवाज में!
अब कुछ बातें उन अमीरों की, जो सिर्फ खाते हैं। उनको इतना पैसा मिलता है कि उन्हें समझ ही नहीं आता कि क्या खाएं और क्या छोड़ें? वे कहते भी हैं कि जब कमाते हैं तो मन भरकर खाएंगे भी! और खिलाएंगे भी! इसलिए जिस भी रेस्त्रां में जाओ, लाइन लगी रहती है। जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से उनको लाखों मिलते हैं उन्हीं की बनाई हुई खाने की रेडीमेड चीजों कपड़ों जूतों ड्राई फ्रूट्स के पैकेट्स नमकीन पिज्जा बर्गर तरह-तरह के साबुन तेल लोशन और दुनिया भर की ग्लोबल चीजों से उनके घर भरे पड़े हैं।
प्रतिदिन बाहर फेंके जाने वाले कचरे पैकेट से इनके भूखे पेट और बर्बादी का अंदाजा लगाया जा सकता हैं। यही वह वर्ग है जो किसानों को गरीबों को वातावरण और पृथ्वी बचाने के उपदेश देता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे इंग्लैंड अमेरिका जैसे अमीर देश भारत जैसे देशों को उपदेश देते हैं। वे अपने देश की तरफ मुड़कर भी नहीं देखना चाहते! उनकी तमन्ना यहां से उड़कर अमेरिका इंग्लैंड भागने की है। आपने अखबारों में पढ़ा ही होगा कि कितने हजार अमीर हर वर्ष भारत की नागरिकता छोड़कर भाग रहे हैं!
आसाम उड़ीसा बिहार का नौजवान मजदूर यहां 12-14 हजार महीने की नौकरी में अपना भी पेट भरता है, और गांव में रह रहे अपने बच्चों, बूढ़े मां-बाप का भी। राजनीतिक और बुद्धिजीवी भेड़िए इन्हीं के नाम पर सत्ता भोग रहे हैं और मौज उड़ा रहे हैं! क्या भारतीय संविधान में इसी समानता की बात की गई थी?????
इस देश के विसंगतिपूर्ण तरीके से विकसित किए गए बंटे हुए समाज को आजादी के 75 वर्ष पूरे होने हार्दिक शुभकामनाएं!
#प्रेमपाल_शर्मा, Mob. 99713 99046