बिना सिविल इंजीनियरिंग डिग्री वाले इंजिनीरिंग अधिकारी
इन अधिकारियों को पहले ड्राईंग/डिजाईन और ओपन लाइन में पदस्थापित किया जाना चाहिए
तथाकथित अधिकारियों को प्रशासनिक एवं सामाजिक कार्य-व्यवहार का प्रशिक्षण दिलवाया जाए
सुरेश त्रिपाठी
सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा (एलडीसीई) को किसी तरह पास करके अथवा ले-देकर किसी तरह अभियंता बने सिविल इंजीनियरिग के अलावा अन्य ब्रांच से आए जो लोग अधिकारी बन गए हैं, उन्हें रेलवे निर्माण और इसके पीएसयू (इरकॉन्/राइट्स आदि) में पदस्थापना से पूर्व ड्राईंग/डिजाईन सेक्शन में कम से कम तीन साल की नियुक्ति के बाद ओपन लाइन में कम से कम पांच साल के लिए अनिवार्य रूप से नियुक्त किया जाना चाहिए. इसके बाद ही उनकी नियुक्ति निर्माण विभाग में की जानी चाहिए. एलडीसीई पास होने के बाद इनसे सिर्फ ट्रेनिंग पीरियड में ही फील्ड में कार्य करवाना पर्याप्त नहीं है. कार्य अनुभव के अभाव में गुणवत्तापूर्ण कार्य-निष्पादन करवाने में ऐसे अधिकांश अक्षम अधिकारियों और ठेकेदार के कथित इंजीनियरों या विभागीय निरीक्षकों के भरोसे सब कुछ छोड़ देना उचित नहीं है.
इसके अलावा सिविल इंजीनियरिग की डिग्री स्तर की योग्यता रखने वाले अधिकारियों को ही निर्माण फील्ड में प्राथमिकता देते हुए पोस्टिंग की जानी चाहिए, ताकि गुणवत्तापूर्ण कार्य-निष्पादन सुनिश्चित किया जा सके. टेलीफोन, वाट्सअप और टेलीफोनिक निर्देशों के बजाय फील्ड में जाकर खुद के सत्यापन के साथ चल रहे निर्माण कार्य की क्वालिटी सुनिश्चित करना हमेशा श्रेष्ठ है. अतः ऐसे अधिकारियों और निरीक्षकों, जिनको कम से कम पांच वर्ष का अनुभव है, की ही निर्माण फील्ड में पदस्थापना करना सर्वथा उचित है. मटीरियल पासिंग की पूरी जिम्मेदारी अधिकारियों की है. अतः उनकी जिम्मेदारी 100 प्रतिशत सुनिश्चित की जानी चाहिए. इसके साथ ही रेलवे द्वारा प्रदत्त गाड़ियों का निजी उपयोग अथवा दुरुपयोग न हो, इसके लिए गंभीर उपाए किए जाएं.
नई रेलवे लाइन के प्रारम्भिक सर्वे और उसके लिए अनुमोदित ‘एल’ सेक्सन के अनुरूप मानक एलाइनमेंट पर ही फार्मेशन और रेलवे लाइन का निर्माण सुनिश्चित किए जाना चाहिए. त्रुटिपूर्ण सर्वे या फार्मेशन निर्माण को जबरन सही ठहराने के लिए गोलाईयों की संख्या बढ़ानी उचित नहीं है. लैब टेस्ट मटीरियल की गुणवत्ता पूरी तरह सुनिश्चित की जानी चाहिए. इसमें चल रहे फर्जीवाड़े को रोकने के लिए कड़ी व्यवस्था की जाए. इसके लिए योग्य अधिकारियों द्वारा खुद फील्ड में जाकर अधिक टेस्ट चेक किए जाने की जरूरत है. संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी उक्त टेस्ट चेक रिपोर्ट में अधिक से अधिक हो, ऐसे उपाए किए जाने चाहिए. रेलवे में उपयोग हो रही अधिकांश मिट्टी का एमडीडी 1×65 या 1×68 है, लेकिन इसकी रिपोर्ट जबरन 1×85 बताना या टेस्ट रिपोर्ट में लिखा जाना सही नहीं है. इसके अनुरूप अन्य कार्य-निष्पादन के दौरान इस सबकी जांच फील्ड में ही करके इसमें सुधार लाना अत्यंत जरुरी है. पूर्वोत्तर रेलवे और पूर्व मध्य रेलवे के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी/निर्माण इस तरफ विशेष ध्यान दें, तो शायद भारतीय रेल का बहुत भला होगा.
सभी जोनल रेलों के निर्माण संगठन और ओपन लाइन में कार्यरत सभी अधिकारियों का प्रत्येक तीन वर्ष में और निरीक्षकों एवं बिल/स्टोर कलर्क का प्रत्येक पांच वर्ष में जीरो टॉलरेंस पर स्थानांतरण सुनिश्चित किया जाना अत्यंत आवश्यक है. यह नहीं होने के चलते ही पूर्वोत्तर और पूर्व मध्य रेलवे के निर्माण संगठनों सहित लगभग सभी जोनल रेलों में अंधेरगर्दी मची हुई है. ऐसा नहीं होने के कारण लंबे समय से एक ही स्थान/पद पर जमे अधिकारी, कर्मचारी, कलर्क सभी अपनी मनमानी कर रहे हैं और कई प्रकार से रेलवे को चूना लगा रहे हैं. इसके साथ ही किसी को फेवर करने के लिए पक्षपाती होकर दूसरे कर्मचारियों को प्रताड़ित कर रहे हैं. अधिकारियों में इस बात का डर पैदा होना जरुरी है कि गलत या गुणवत्ताविहीन मटीरियल अथवा कार्य की सजा उन्हें भुगतनी ही पड़ेगी, इससे निर्माण कार्यों में अपने आप ही पर्याप्त सुधार दिखने लगेगा.
वर्तमान में हो यह रहा है कि एईएन/एक्सईएन जैसे पदों पर विराजमान बिना इंजीनियरिंग डिग्री वाले अधकचरे अधिकारीगण अपने अधिनस्थ निरीक्षक को मटीरियल पासिंग या क़्वालिटी के लिए जिम्मेदार ठहराकर अपना बचाव कर लेते हैं. इस परम्परा को पूरी तरह से बंद करने की आवश्यकता है. नियमतः मटीरियल पासिंग की पूरी जिम्मेदारी संबंधित अधिकारी की होती है, क्योंकि वह स्वयं ही ठेकेदारों के समक्ष निरीक्षकों पर रौब गांठने के लिए इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि मटीरियल पासिंग की 100 प्रतिशत जिम्मेदारी उनकी है. जबकि किसी प्रकार की त्रुटी आने पर यही अधिकारी अपने से वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष उक्त त्रुटी के लिए अपने अधीनस्थ निरीक्षक को जिम्मेदार ठहराने में कतई देर नहीं करते हैं. यह उनका घोर निंदनीय कृत्य है.
ठेकेदार को कार्य का आवंटन और उसके निष्पादन के लिए सम्बंधित अधिकारी ही पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. अतः प्रशासनिक तय सीमा में ठेकेदार द्वारा कब, कैसे और कितना मैनपावर एवं मशीनों का उपयोग प्रतिदिन किया जाएगा, यह समस्त कार्य-प्रणाली और समय-सीमा ठेकेदारों को लिखित में बताने का प्रचलन शुरू किया जाना अत्यंत जरुरी है. इसके साथ ही यदि ठेकेदार द्वारा निर्धारित समय पर कार्य पूरा नहीं किया जाता है, तो रेलवे द्वारा उसके विरुद्ध तय नियमों के तहत त्वरित कार्रवाई की परंपरा का कड़ाई से पालन किया जाना भी आवश्यक है, जबकि इस महत्वपूर्ण बिंदु पर पूर्वोत्तर रेलवे और पूर्व मध्य रेलवे सहित कई अन्य जोनल रेलों में कतई अमल नहीं किया जा रहा है.
इन तथाकथित अधिकारियों द्वारा ठेकेदार के मुंशी या प्रतिनिधि को उसके नाम के साथ ‘जी’ लगाकर संबोधित किया जाता है, जबकि अपने अधीनस्थ निरीक्षकों को ‘तुम-त्डाम’ या सीआर खराब कर देने की धमकी के साथ संबोधित किया जाता है, जो कि न सिर्फ इनकी हीनभावना का परिचायक है, बल्कि इनके ‘इंजीनियर’ होने पर भी संदेह पैदा करता है. इसके साथ ही सिर्फ ठेकेदारों के प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाना और अधीनस्थों को सिर्फ दुत्कार कर बुलाना इत्यादि भी इनका घोर निंदनीय कृत्य है. जबकि ये खुद भी कभी उन्हीं के बीच अधीनस्थ या निरीक्षक के रूप में ही कार्यरत थे, परंतु कथित रूप से अधिकारी बन जाने के बाद इनके कदम जमीन पर नहीं पड़ते हैं.
कार्यालय में आने-जाने का इनका आडंबर ऐसा होता है कि वास्तविक आईआरएसई अधिकारी भी इन्हें देखकर शर्म से गड़ जाए. जबकि ये आईआरएसई अधिकारी की ही परिक्रमा या चाटुकारिता करके न सिर्फ अधीनस्थ/निरीक्षक से कथित अधिकारी बनते हैं, बल्कि उसी की सरपरस्ती में अपने मातहत निरीक्षकों से मनचाहा कार्य डिस्ट्रिव्यूशन और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का हनन भी ड्यूटी के दौरान प्रतिदिन करते हैं. ‘ठेकेदारों को यह कहकर कि हम तो आपके मटीरियल या कार्य को पास कर देते हैं, निरीक्षक ही और सुधार की बात करता है अथवा नियमानुसार त्रुटि को ठीक करने के लिए कहता है.’ इस तरह अपने अधीनस्थों और निरीक्षकों को ठेकेदारों से भी प्रताड़ित करवाने का कु-कृत्य ये तथाकथित अधिकारी कर रहे हैं.
यदि इन अधकचरे और तथाकथित अधिकारियों द्वारा गुणवत्तापूर्ण मटीरियल और कार्य-निष्पादन स्वीकार करने की आदत डाल ली जाए, तो न सिर्फ इनका शरीर और मन भी स्वस्थ रहेगा, बल्कि रेलवे का कार्य भी संतोषजनक हो सकता है. ऊपर वालों की मेहरबानी या चाटुकारिता से अथवा ले-देकर निरीक्षक से अधिकारी तो बन गए, मगर इनमें अधिकारी वाली कोई गुणवत्ता या गरिमा कहीं से भी नजर नहीं आती है. जबकि अधिकारी बनने के बाद रेलवे की इनसे अच्छे व्यवहार और गुणवत्तापूर्ण कार्य करने और करवाने की अपेक्षा होती है. जिनके बीच से उठकर आए हैं, उन्हें ही अपने से दोयम समझने लगना, न सिर्फ इंसानियत और कर्त्तव्य दोनों को ही कलंकित करने के समान है, बल्कि अधिकारी बनकर भी अधिकारी की गरिमा को सहेज न पाने पर स्वयं हंसी का पात्र बनकर रह जाते हैं. रेल प्रशासन को चाहिए कि वह ऐसे तथाकथित अधिकारियों को भी लोक-लाज और प्रशासनिक एवं सामाजिक कार्य-व्यवहार का प्रशिक्षण दिलवाए.