विरोध की संस्कृति: मर रही है भारतीय संविधान की आत्मा
यह कौन सी सामासिक संस्कृति है, जो जरा सी आबादी बढ़ने के साथ ही अपनी तथाकथित संस्कृति लादने की वकालत करने लगती है और जहां मौका लगा वहां कभी शरीयत, कभी रिवाज के नाम पर मनमर्जी ठोक देती है! इसे सख्ती से रोका जाना चाहिए!
क्या यही है कथित गंगा-जमुनी तहजीब, जो एक समुदाय विशेष को हर बात पर टेढ़ा-टेढ़ा चलना ही सिखाती है? धर्मनिरपेक्ष भारत में समान नागरिक संहिता और शिक्षा के आधार पर ही शांति से रहा जा सकता है और इसे हर हाल में सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है!
वर्षों से हम सामासिक संस्कृति, गंगा-जमुनी तहजीब की बातें सुनते-पढ़ते आए हैं, लेकिन पिछले दिनों से इसका आडंबर खुलकर सामने आ रहा है। ताजा प्रकरण झारखंड के गढ़वा स्कूल का है, जहां स्थानीय मुस्लिम आबादी के दबाव में न केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, बल्कि रविवार की छुट्टी शुक्रवार को कर दी गई।
यह कोशिश यहीं नहीं रुकी, सरकारी स्कूल को “दया कर दान विद्या का” प्रार्थना गीत भी हटाना पड़ा और यह पिछले कई सालों से हो रहा है। खुलकर न शिक्षकों ने आवाज उठाई, न ही वहां के प्रिंसिपल ने। कारण स्थानीय मुस्लिम आबादी का आतंक था, जिन्होंने यह तर्क दिया कि इस स्कूल में पढ़ने वाले 75% बच्चे मुसलमानों के हैं, इसलिए हमें ऐसे प्रतीकों से आपत्ति है।
आखिर यह कौन सी ताकते हैं, जो इन मासूम बच्चों के दिमाग में इतने भोले और पारदर्शी प्रतीकों में भी धर्म की घुट्टी खोज लेती हैं! और सरकारी स्कूल में भी अपनी धार्मिक मनमानी चलाती हैं! निश्चित रूप से देश की विघटनकारी शक्तियां सामाजिक और शैक्षिक वातावरण में ऐसा विष लगातार फैला रही हैं और जहां मौका मिलता है, तुरंत हावी हो जाती हैं।
इतना आतंक है कि सरकारी स्कूल होने के बावजूद एक समुदाय विशेष के इस अतिक्रमण और जोर जबरदस्ती के विरोध में आवाज उठाने का साहस भी किसी सरकारी अध्यापक/प्रधानाध्यापक में नहीं बचा! शिक्षक वर्ग में पनपी यह एक खतरनाक और बुजदिल प्रवृत्ति है।
मुस्लिम कट्टरपंथियों की यह प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। आजादी से पहले जब महात्मा गांधी ने वर्धा में सामाजिक कार्यों की शुरुआत की थी और शिक्षा केंद्रों को ‘विद्या का मंदिर’ कहा था, तब भी इन्हें ‘मंदिर’ कहने पर आपत्ति थी। जबकि कौन नहीं जानता कि महात्मा गांधी की धर्म, ईश्वर या खुदा की क्या व्याख्या थी! इसीलिए ऐसी प्रवृत्तियों के खिलाफ मुसलमानों के अंदर ही प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को तस्लीमा नसरीन की तरह आगे आकर दखल देनी होगी।
इसे केवल सत्ता और राजनीति तक ही नहीं छोड़ा जा सकता। अफसोस मुस्लिम बुद्धिजीवी अपने समाज की बुराईयों के खिलाफ कोई भी आवाज उठाने से डरते हैं और तथाकथित सेकुलर या उदारवादी बुद्धिजीवी ठीक ऐसे मौकों पर चुप्पी साध लेते हैं।
यह कौन सी सामासिक संस्कृति है, जो जरा सी आबादी बढ़ने के साथ ही अपनी तथाकथित संस्कृति लादने की वकालत करने लगती है और जहां मौका लगा वहां कभी शरीयत, कभी रिवाज के नाम पर मनमर्जी ठोक देती है! इसे सख्ती से रोका जाना चाहिए!
आपको याद होगा कुछ वर्ष पहले तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में लड़कियों का प्रवेश वर्जित था। ज्यादा अफसोस की बात इसलिए कि इस विश्वविद्यालय में कई प्रगतिशील कहे जाने वाले लेखक, वाइस चांसलर और प्राध्यापक रहे हैं।
दुनिया भर में समानता की बातें करने वाले और भारतीय संविधान की आड़ लेने वाले ऐसे मौकों पर इस तर्क से चुप्पी साध लेते हैं कि यह अल्पसंख्यकों का मामला है। यानि जब आप बहुसंख्यक होंगे तब भी आपकी मर्जी और अल्पसंख्यक होंगे तब भी! वह चाहे संविधान के खिलाफ हो या पूरी मानवता और आधुनिकता के!
भारत के संविधान में दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है और यह समान रूप से सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले विश्वविद्यालय कालेजों पर लागू होनी चाहिए, लेकिन अलीगढ़ विश्वविद्यालय से लेकर ऐसे सारे संस्थान खुलेआम उसका उल्लंघन कर रहे हैं। लगभग ऐसा ही जम्मू-कश्मीर में दलित समुदाय के साथ किया गया था, जो 370 हटाने के बाद अब लागू होने की प्रक्रिया में है।
संसद तक में राष्ट्रगीत पर एक समुदाय विशेष के लोग खड़े नहीं होते और वैसा ही विरोध पिछले कई वर्षों से स्कूलों में वंदे मातरम और राष्ट्रगान गाने पर हो रहा है। क्या यही है कथित गंगा-जमुनी तहजीब, जो एक समुदाय विशेष को हर बात पर टेढ़ा-टेढ़ा चलना ही सिखाती है? धर्मनिरपेक्ष भारत में समान नागरिक संहिता और शिक्षा के आधार पर ही शांति से रहा जा सकता है और इसे हर हाल में सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है।
इसी में आयाम जुड़ता है हिजाब पहनकर स्कूल आने का, जिसे कुछ बुद्धिजीवी यह कहकर बचाव करते हैं कि उनकी अलग संस्कृति का मामला है।यदि यह उनकी संस्कृति का मामला है तो क्या भारत सरकार के दफ्तरों में, कोर्ट में, पुलिस में आप हिजाब पहनकर या घूंघट लगाकर आने की इजाजत देंगे?
कुछ लोग इसे अलग पहचान, अलग अस्मिता, बहुलतावाद के खांचे में फिट करने की बार-बार कोशिश करते रहे हैं और इसी बिना पर हिजाब बुर्का प्रार्थना गीत आदि पर उनका बचाव दशकों से करते आ रहे हैं। आप क्यों भूल जाते हैं कि जब आप के कपड़ों, भाषा या दूसरे प्रतीकों से आपकी अलग पहचान बनेगी तो भेदभाव की गुंजाइश भी कई गुना बढ़ जाती है।
कोई चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक, स्कूल कॉलेज जैसी संस्थाओं का उद्देश्य अगली पीढ़ियों के ऐसे नागरिक बनाना है, जो भारतीय संविधान की आत्मा के अनुसार समानता, समान कानून की बातें करें। अगर उनकी पहली पाठशाला में ही धर्म के इंजेक्शन ऐसे प्रतीकों से लगाए जाएंगे, तो क्या भविष्य में वे किसी सच्चे मायनों में सेकुलर देश की कल्पना कर सकते हैं?
हाल ही में शिक्षा व्यवस्था पर किए गए शोध बताते हैं कि जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी है, शिक्षा का प्रचार प्रसार बढ़ा है, मुस्लिम वर्ग में अलग पहचान के बहाने धार्मिक कट्टरता और ज्यादा उफान पर है। हाल ही में कई आतंकवादी, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के ऐसे ही ज्यादा पढ़े-लिखे उच्च शिक्षित इंजीनियर आदि हैं।
आश्चर्य और अफसोस की बात यह है कि सब कुछ जानते-समझते हुए भी ऐसे मदरसों, ऐसी धार्मिक संस्थाओं और ऐसे विश्वविद्यालयों, स्कूलों पर कोई रोक नहीं लगाई जा रही। कुछ राज्य तो वोट बैंक की राजनीति के तहत ऐसी कोशिशों को और ज्यादा बढ़ावा दे रहे हैं।
स्वतंत्रता के बाद अलग पहचान, अलग अस्मिता और अल्पसंख्यक राजनीति के जुमलों ने पूरे वातावरण को इतना दूषित किया है कि जिस पर नियंत्रण करना मुश्किल साबित हो रहा है। झारखंड के स्कूल का मामला हो या कर्नाटक के हिजाब अथवा जेएनयू में महिषासुर की वापसी जैसे प्रकरणों ने मानो समाज को बांटने और हर तरह से विरोध करने का बीड़ा उठा लिया है।
भारतीय संविधान निश्चित रूप से धर्म पर आधारित नहीं है और उसमें सभी धर्मों को समान सम्मान और स्थान दिया गया है। अच्छा हो कि धर्म की इन सारी बातों – वेशभूषा, आयतों, श्लोकों – को अपने-अपने घरों की चारदीवारी तक ही सीमित रखा जाए। स्कूलों-कॉलेजों में तो इसकी अनुमति बिल्कुल भी नहीं दी जानी चाहिए।
#प्रेमपाल_शर्मा, संपर्क: 9971399046