सिविल सेवा के अर्धसत्य!
जब पूरा देश एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ उड़ान भर रहा है, तब अच्छा हो कि सिविल सेवाओं के अर्धसत्य को पूर्णसत्य बनाते हुए इसकी गरिमा को वापस लाया जाए! प्रशासनिक सेवाओं की सबसे बड़ी खामी यह है कि इनके ज्यादातर अधिकारी भारतीय भाषाओं को नहीं जानते! क्या देश-समाज का दर्द, व्यवस्था, शासन, प्रशासन केवल अंग्रेजीदां, शहरी, तोते की तरह रटे हुए अधिकारियों को सौंपा जा सकता है?
प्रेमपाल शर्मा
देश की सर्वोच्च सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा घोषित परिणामों की ऐतिहासिकता इस बात में है कि आजादी के बाद पहली बार तीन महिलाओं ने टॉप किया है। देश की ज्यादातर अखिल भारतीय परीक्षाओं में महिलाओं का बेहतर प्रदर्शन इस देश के भविष्य के लिए बहुत शुभ संकेत माना जा सकता है। लेकिन यह कहना अर्धसत्य होगा कि ये टॉपर ही सर्वश्रेष्ठ हैं।
तीन चरणों में संपन्न होने वाली इस परीक्षा के परिणाम में टॉप करना या अंतिम रहने हमें कोई ज्यादा अंतर नहीं होता। लगभग सभी उतने ही मेधावी और मेहनती होते हैं। यहां तक कि जो कुछ नंबर या मामूली अंतर से चूक भी जाते हैं, उनकी भी क्षमताएं उतनी ही होती हैं। पिछले कुछ वर्षों से इनको भी देश के दूसरे विभागों में, उपक्रमों में लेने की चर्चाएं तो होती हैं, लेकिन अभी इस पर क्रियान्वयन होना बाकी है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से परिणाम आते ही कुछ ऐसा शोर – सोशल मीडिया की वजह से – होने लगा है, मानो कोई ओलंपिक में पदक मिल गया हो। यों इनका महिमामंडन तो पहले से ही होता रहा है। आजादी के बाद या उससे पहले भी जो रुतबा आईसीएस को मिलता था, वैसा ही इन उम्मीदवारों को मिलता रहा है। मत भूलिए सन 80 के दशक तक प्रयागराज, कोलकाता, वाराणसी की प्रतिष्ठा आईएएस/आईपीएस में चुने हुए उम्मीदवारों के कारण से ज्यादा होती थी। प्रयागराज को तो आईएएस परीक्षाओं का गढ़ माना जाता था और इसीलिए उसे ‘ऑक्सफोर्ड ऑफ ईस्ट’ भी कहते थे।
इन सेवाओं में आने वाले देश भर के आकांक्षी नौजवान इन विश्वविद्यालयों में पढ़ते थे। आज उसकी जगह विशेष रूप से पिछले 20 वर्षों में जेएनयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी ने ले ली है। इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा तो बेहतर है ही, उससे ज्यादा दिल्ली में उपलब्ध कोचिंग संस्थान, पुस्तकालय आदि सुविधाएं भी हैं। निष्कर्ष यह कि जो भी इन सुविधाओं को हासिल कर लेता है, वही सिकंदर।
प्रति छात्र दिल्ली स्थित इन विश्वविद्यालयों पर सरकार का लाखों-करोड़ों का खर्च आता है। यदि यूजीसी इतना ही पैसा छोटे शहरों के विश्वविद्यालयों को देने लगे और वहां के अकादमिक प्रशासन को भी वैसा ही चुस्त-दरुस्त कर दिया जाए, तो कोई कारण नहीं कि वे छात्र पीछे रह जाएं। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे गरीब दलित पिछड़ों को सुविधाएं मिलें तो वे भी किसी से कम नहीं होते। दिल्ली जैसे महानगरों की तरफ पलायन पर भी रोक लग जाएगी।
लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि क्या देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा पिछले 20 वर्षों से प्रशासनिक परीक्षाओं की तरफ देख रही है? शायद नहीं ! आईआईटी और मेडिकल की परीक्षा भी उतनी ही कठिन है। यहां तक कि कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं आईआईटी परीक्षा को और भी कठिन मानती हैं। परंतु वहां से निकले हुए 70-80% छात्र या तो विदेशों का रुख कर रहे हैं, अथवा पिछले दिनों फ्लिपकार्ट आदि स्टार्टअप में देश के लिए और भी बेहतर योगदान दे रहे हैं।
एक पक्ष यह भी है कि इनमें से बहुत सारे निजी कंपनियों के कुछ कटु अनुभव के बाद सिविल सेवा परीक्षाओं की तरफ देखते हैं, लौटते हैं। और उस लौटने का कारण आप देशभक्ति, समाज के लिए कुछ करने की कितनी भी मुनादी पीटें, उसकी असलियत कुछ और ही है। और वह है – नौकरी की सुरक्षा, आरामतलबी, भ्रष्टाचार के रास्ते रातों-रात अमीर बनना और उसी सड़क से राजनीति में प्रवेश करना।
माना कि सब ऐसा नहीं करते, लेकिन विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों की राजनीति और समाज उनको धीरे-धीरे या तो इस कुचक्र में शामिल होने के लिए विवश कर लेता है, या फिर उनकी समाज परिवर्तन कि चाह अथवा प्रशासनिक दक्षता में योगदान करने की इच्छा ही खत्म हो जाती है।
कई बार तो इनमें से ज्यादातर को आत्मा परमात्मा धर्म की शरण में भी जाते देखा है। एंबेस्डर अनुप मुद्गल के शब्दों में “निश्चित रूप से संघ लोक सेवा आयोग 10 लाख में से लगभग 1000 सर्वश्रेष्ठ को चुनता है, लेकिन जब इनको अपने शासन-प्रशासन समाज में काम करने की आजादी नहीं मिल पाती है, तो इनमें से बहुत सारे आपस के ही छोटे-छोटे युद्ध, महायुद्ध में उलझे रहते हैं!” इससे नुकसान समाज का तो है ही, शासन-प्रशासन का भी है, और उन प्रतिभाओं का भी, जो आईआईटी और मेडिकल कॉलेजों को छोड़कर कई-कई वर्ष की ताबड़तोड़ मेहनत के बाद यहां पर आए हैं और अंत में उन्हें निराशा ही हाथ लगती है।
हर वर्ष सैकड़ों ऐसे उम्मीदवार होते हैं, जो पिछले 8-10 वर्ष से दिल्ली के मुखर्जी नगर, करोल बाग में डेरा डाले हुए हैं, उन्होंने अमेरिका, जापान या देश की लाखों की नौकरियां छोड़ी हैं, लेकिन पता नहीं सिविल सेवाओं में आकर हाकम बनने का उन्हें यह सपना किसने सौंपा है? क्योंकि अब तो हमारे आईआईटी और मेडिकल कॉलेज या विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर की तनख्वाह और सुविधाएं भी वैसी ही हैं जैसी प्रशासनिक सेवाओं में! वहां तो आजादी भी ज्यादा है। चाहे बोलने, लिखने की हो या और किसी सामाजिक भूमिका की। देश के इन उच्च संस्थानों आईआईटी, एम्स में 50% से ज्यादा प्रोफेसरों की जगहें खाली बनी हुई हैं और अगली पीढ़ी को योग्य शिक्षक भी नहीं मिल पा रहे।
विशेषकर हिंदी पट्टी के सामंती समाज में तो इन सेवाओं में आने का ऐसा नशा है कि असफल होने पर हर वर्ष दर्जनों आत्महत्याओं की भी सूचना मिलती है। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतनी नौजवान पीढ़ी इतने वर्षों तक अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा और मेहनत ऐसी किसी सेवाओं में आने के लिए बर्बाद करती है।
यह दोष सरकार और व्यवस्था का भी है। आखिर इन सेवाओं का इतना महिमामंडन क्यों? इनको राजा उर्फ हाकम की तरह व्यवहार करने की आजादी क्यों? क्यों जगह-जगह इनको हार-फूल, मालाएं पहनाई जानी चाहिए?
आजादी के समय तक आईसीएस की उम्र सीमा 19 से बढ़ाकर 21 रखी गई और 70 के दशक तक यह 24/26 वर्ष रही। पहली बार दौलत सिंह कोठारी ने वर्ष 1979 में अधिकतम आयु 28 वर्ष की, जिसे वीपी सिंह ने 1991 में पहले 30 किया और उसके बाद यूपीए सरकार ने 2004 में 32 वर्ष किया।
परीक्षा देने के केवल तीन प्रयास 1980 में निर्धारित किए गए थे, जो देश में साक्षरता और शिक्षा का स्तर बढ़ने के बावजूद अब सामान्य विद्यार्थियों के लिए 6 और कमजोर वर्गों के लिए असीमित हैं। यानि 20 वर्ष से लेकर 37 वर्ष तक सोलह बार तक आप परीक्षा दे सकते हैं। क्या इस पद्धति में सर्वश्रेष्ठ चुनने की गुंजाइश है?
इसलिए कुछ सुधार की तुरंत आवश्यकता है, जिसमें सबसे पहले उम्र की सीमा 28 वर्ष तक ही सीमित की जाए और प्रयासों को भी तीन तक।कमजोर वर्गों के लिए कुछ रियायत के साथ। एक और कमी पिछले दिनों लगातार सामने आई है, वह है प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में वैज्ञानिक रूप से तालमेल न होना।
पिछले 10 वर्षों के परिणाम बताते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा एक लॉटरी या तुक्काबाजी की तरह हो गई है। प्रारंभिक सी-सैट में लगातार फेल होने वाले छात्र फिर अचानक ही टॉपर बन जाते हैं।
यूपीएससी में हर 10 वर्ष के बाद पूरी परीक्षा पद्धति की समीक्षा के लिए एक कमेटी बनाने की परंपरा रही है। पिछला रिव्यू 2012 में हुआ था, जिसके कुछ परिवर्तन सी-सैट में लागू किए गए जो बहुत विवादास्पद रहे। तुरंत एक कमेटी पूरी परीक्षा का रिव्यु करे।
जब पूरा देश एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ उड़ान भर रहा है, तो अच्छा हो कि सिविल सेवाओं के अर्धसत्य को पूर्णसत्य बनाते हुए इसकी गरिमा वैसी ही वापस लाई जाए जैसी आईसीएस की थी। प्रशासनिक सेवाओं की सबसे बड़ी खामी यह है कि इनके ज्यादातर अधिकारी भारतीय भाषाओं को नहीं जानते। देश-समाज के दर्द, व्यवस्था, शासन, प्रशासन को क्या केवल अंग्रेजीदां शहरी, तोते की तरह रटे हुए अधिकारियों को सौंपा जा सकता है?
#प्रेमपाल शर्मा, (1981 सिविल सेवा परीक्षा से चयनित रेल सेवा के अधिकारी/पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय, भारत सरकार।)
#संपर्क: 99713 99046.
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