सिविल सेवा डायरी: भाषा का कहर!
क्या संघ लोक सेवा आयोग या सत्ता के शीर्ष पर बैठे नौकरशाहों, सरकारों ने आजादी के बाद वर्ष दर वर्ष यह संदेश नहीं दिया कि केवल अंग्रेजी ठीक होनी चाहिए, बाकी पढ़ने-लिखने में कुछ नहीं रखा?
“जिनको भारतीय भाषाएं नहीं आतीं, उन्हें प्रशासनिक सेवाओं में जाने का हक नहीं होना चाहिए! न केवल भारतीय भाषाओं से, बल्कि उन्हें उन भाषाओं के साहित्य से भी परिचित होना चाहिए, क्योंकि समाज की समझ भी उसी साहित्य से पैदा होती है!” -डॉ दौलत सिंह कोठारी
प्रेमपाल शर्मा
यह उम्मीदवार वाकई डरा हुआ था। डीएएफ के हिसाब से तो उससे एक अलग जोश, ऊर्जा, रेडिएशन की उम्मीद थी। पिछले वर्ष यूपीएससी द्वारा एक केंद्रीय सेवा में चुना जा चुका भी था, तो फिर यह सुस्ती क्यों? उसके परिचय बताने में ही आवाज लड़खड़ाती सी लगी। सभी ने उसे उत्साहित भी किया। आईआईटी दिल्ली में पढ़ा हुआ और यूपीएससी में पहले भी दो बार साक्षात्कार दे चुका है, तो फिर कौन सा डर हावी है? आवाज क्यों रुक-रुककर निकल रही है?
किनारे से कुरेदने पर उसने साफ कह दिया कि “मैं अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाता!” तब फिर आप साक्षात्कार के लिए हिंदी माध्यम ले सकते हो! आपकी हिंदी तो अच्छी होगी ही ! आप मध्य प्रदेश के रहने वाले हो, दिल्ली में रहे हो!
उसने संकोच से बताया, “हिंदी में एक बार उसने इंटरव्यू दिया था मगर नंबर अच्छे नहीं मिले थे।” (हालांकि इस बात की प्रामाणिकता साबित नहीं की जा सकती, लेकिन पिछले कई वर्षों से ऐसा फीडबैक उम्मीदवारों से लगातार मिलता रहा है और इसलिए यूपीएससी जैसे संस्थान को इसकी प्रामाणिकता और संदेह पर विचार करने की आवश्यकता है और आंकड़ों के साथ उनको जनता को बताने की भी ! शक की सुई उठी है, तो देश के हित में इसे दूर किया जाना चाहिए। हिंदू धर्म और संस्कृति में तो शक, परीक्षा, प्रश्नों से परे भगवान भी नहीं है! यूपीएससी इन आवाजों की अनसुनी न करे! सक्रिय होकर भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने के लिए कदम उठाए! एक अच्छे लोकतंत्र के लिए मिसाल भी कायम होगी) लेकिन इस उम्मीदवार का विश्वास तो हिल ही रहा है।
उन कथाओं की याद आ रही है जिसमें उस राक्षस से सामना होते ही आधी शक्ति राक्षस के अंदर चली जाती थी। यूपीएससी तो इस देश के हर मेधावी, गरीबों के लिए विश्वास और भरोसे की अंतिम शरण स्थली है। मगर अफसोस अभी तो वे हिंदी में अनुवाद को भी ठीक नहीं कर पाए। क्या यूपीएससी भी अनुवाद के लिए किसी “बुकर” पुरस्कार का इंतजार कर रहा है?
तो फिर अंग्रेजी कैसे ठीक कर रहे हो? उसका जवाब था, “अंग्रेजी के वीडियो सुन रहा हूं। खुद अंग्रेजी में बोलने के वीडियो पिछले वर्ष से बना रहा हूं। उसे बार-बार सुनता हूं। अंग्रेजी के नॉवेल पढ़ता हूं। दोस्तों से अंग्रेजी में बात करता हूं।”
“क्या कुत्ते, बिल्ली से भी अंग्रेजी में बात करते हो?” एक हल्के से ठहाके के बीच काफी देर के बाद उसके चेहरे पर भी मुस्कुराहट की रोशनी पड़ी।
मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से गांव के जिस बच्चे ने इतनी ही कठिन जेईई परीक्षा को पास किया, दिल्ली आईआईटी पहुंचा है, और वहां भी बहुत अच्छे नंबर लेकर आया है, मगर लुटियन की बनाई दिल्ली और उस पर शासन करते यूपीएससी जैसे दुर्ग में प्रवेश करने से उसके पैर थर-थर कांप रहे हैं।
यह इस अकेले नौजवान की कहानी नहीं है, देश के 95% भारतीय भाषाओं के बोलने वालों की नियति है। और इसीलिए 95% से ज्यादा भारतीय भाषाओं के बोलने वाले यूपीएससी में 5% भी नहीं चुने जाते और 1% से कम अंग्रेजी बोलने वाले 95% से ज्यादा। जातिवार, गोत्रबार, धर्मवार देश पर हक मांगने वाले/वालों ने क्या कभी इस पर गौर किया है कि भारतीय संविधान में केवल हिंदी को ही नहीं भारतीय भाषाओं की भी उतनी ही वकालत की है और यह संविधान भी उन्हीं बी. आर. अबेडकर ने बनाया है, तो इस पहलू पर चुप्पी क्यों? क्या जाति का प्रश्न अपनी बोली जबान भाषा से भी ऊपर है?
आजादी के बाद वर्ष 1979 डॉ दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिशों पर पहली बार भारतीय भाषाओं में सिविल सेवा परीक्षा देने की आजादी हासिल हुई और इसके परिणाम भी बहुत बहुत अच्छे रहे। भारतीय भाषाओं के माध्यम से लगभग 15 से 20% इन प्रशासनिक सेवाओं में शुरू के लगभग 20 वर्ष तक चुने जाते रहे। भारतीय भाषाओं को लेने वाले ज्यादातर कमजोर वर्ग के एससी/एसटी, वे गरीब थे जो पहली पीढ़ी के पढ़े हुए थे या जिनके मां-बाप साक्षर भी नहीं थे।
कोठारी जी ने पहली बार इस दर्द को समझा और अपनी प्रसिद्ध सिफारिश में यह भी लिखा कि “जिनको भारतीय भाषाएं नहीं आतीं, उन्हें प्रशासनिक सेवाओं में जाने का हक नहीं होना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा, “न केवल भारतीय भाषाओं से, बल्कि उन्हें उन भाषाओं के साहित्य से भी परिचित होना चाहिए, क्योंकि समाज की समझ भी उसी साहित्य से पैदा होती है!” इसीलिए मुख्य परीक्षा में दसवीं तक की अंग्रेजी के साथ-साथ दसवीं तक की भारतीय भाषा भी अनिवार्य है।
लेकिन वर्ष 2011 में अंग्रेजी समर्थक सरकार ने पलटी मारते हुए प्रारंभिक परीक्षा सी-सेट में ही अंग्रेजी शामिल कर दी, जिसके विरुद्ध देशभर में आवाज उठी और उसे 2014 में कोर्ट कचहरी, धरना से लड़कर हटाया गया। लेकिन तब तक देश की अगली पीढ़ी में यह संदेश जा चुका था कि अब भारतीय भाषाओं के भरोसे इस दुर्ग को तोड़ पाना या बेधना संभव नहीं है।
परिणाम अब मुश्किल से 3 से 4% बच्चे उम्मीदवार भारतीय भाषाओं के चुने जाते हैं। यूपीएससी की दूसरी अखिल भारतीय सेवाएं, जैसे- भारतीय वन सेवा, इंजीनियरिंग सेवा, मेडिकल सेवा, रक्षा सेवा से लेकर किसी में भी कोठारी सिफारिशों के 43 वर्षों के बाद भी भारतीय भाषाओं की शुरुआत नहीं हुई है।
प्रयागराज में ही पढ़े एक उम्मीदवार से जब प्रयागराज के साहित्यकारों के बारे में पूछा गया, तो उनकी चुप्पी बता रही थी कि “वे हिंदी नहीं पढ़ते हैं, जबकि उनके शौक में रीडिंग-राइटिंग लिखा था।” तो किस भाषा में रीडिंग राइटिंग करते हैं? बोले, “अंग्रेजी में!” क्यों? बहुत इमानदरी से बताया, “अंग्रेजी ठीक करना चाहता हूं! रोज डायरी भी अंग्रेजी में ही लिखने की कोशिश करता हूं!”
क्या संघ लोक सेवा आयोग या सत्ता के शीर्ष पर बैठे नौकरशाहों, सरकार ने आजादी के बाद वर्ष दर वर्ष यह संदेश नहीं दिया कि केवल अंग्रेजी ठीक होनी चाहिए, बाकी पढ़ने-लिखने में कुछ नहीं रखा?
आत्मविश्वास/आत्महीनता का मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है जो हमारे विदेश सेवा के अधिकारी रहे और मौजूदा राजनीतिज्ञ पवन वर्मा ने अपनी किताब में लिखा है। किताब का नाम बिकमिंग इंडियन (Becoming Indian) है। इनके पिता आईसीएस में थे और दादा इलाहाबाद हाई कोर्ट में जज। घर में अंग्रेजी की पूरी विरासत। सभी किताबें अंग्रेजी की।
लेकिन पवन वर्मा लिखते हैं, “रिटायरमेंट के बाद उनके पिता ने कहा कि मैंने कविताएं लिखी हैं, कुछ भोजपुरी में, कुछ हिंदी में।” आपने अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखी? पूर्व आईसीएस पिता का जवाब था “अंग्रेजी में कविता लिखने में मुझे वैसा आत्म विश्वास कभी नहीं आया!” क्यों? आप तो लंदन में रहे हैं, पढ़े हैं, ब्रिटिश अधिकारियों के साथ पूरी शोहरत से काम किया है! उनका जवाब था, “मैं जो भी अंग्रेजी लिखता था उनका अंग्रेज अफसर/बॉस उसमें कोई न कोई कमी जरूर निकाल देता था।”
आत्मविश्वास धीरे-धीरे ऐसे ही तोड़ा जाता है! रेत में तब्दील किया जाता है! सदा-सदा के लिए! शिक्षा का अर्थ आत्मविश्वास पैदा करना है, या उसे खत्म करना?
अंग्रेजी जब एक आईसीएस अफसर का आत्म विश्वास हिला सकती है, तो देश के इन मेधावी नौजवानों की बात ही क्या! (हांलाकि यह अलग बात है कि गुलाम भारत के अमीर मां-बाप के बच्चे पैदा होते ही आजकल ज्यादातर अंग्रेजी में कविताएं लिखने का दावा करते हैं)।
क्या यूपीएससी में बैठे अफसर, लुटियन की दिल्ली में सत्ता के शीर्ष पर बैठे कर्णधार सुन रहे हैं???? और लेखकों ! विशेषकर हिंदी के लेखक! क्या आपकी आत्मा को भी इतने अलोकतांत्रिक प्रश्न ने कभी कुरेदा कि जो भाषा मनुष्य को बाकी प्राणियों से अपनी बोली, अपने शब्दों से मनुष्य बनाती है, विशिष्ट बनाती है, उसका जब गला घोंटा जा रहा था, तो आपने कभी आवाज उठाई? जिन शब्दों को आप लिख रहे हैं, क्या उनको बचाने की कोई चिंता आपकी नहीं है? कोई पुरस्कार वापस किया? या कबूतर की तरह आंखें मूंदे रहे?… और अब किसी यूरोप अमेरिका में अनुवाद होकर बल्ले-बल्ले करने का इंतजार कर रहे हो…..
आप कहेंगे कि जिस वक्त रेत के ढूह पर जश्न मनाते हम अंग्रेजी डांस कर रहे हैं, यह रोने-पीटने की अपशकुनी आवाज कहां से आ रही है??? बंद करो इसे! यह हमारे जश्न में बाधा डालती है! लेकिन विश्वास करो, आवाज तो हवा-पानी की तरह है। वह निकलेगी तो दूर तलक जाएगी भी!
अगली किस्तों में भी भाषा की कुछ बातें.. जारी…
#प्रेमपाल शर्मा, 4 जून 2022,
संपर्क: 99713 99046
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