April 7, 2022

मुंबई मंडल, मध्य रेलवे: मालगाड़ी वर्किंग को लेकर स्टाफ और प्रशासन आमने-सामने

स्टाफ और प्रशासन दोनों के अड़ियल रुख के चलते पूरे दिन बंद रहा मालगाड़ियों का परिचालन

बुधवार, 6 अप्रैल 2022 को मुंबई मंडल मध्य रेलवे के सभी गुड्स डिपो में मालगाड़ी ड्राइवरों की बढ़ाई गई वर्किंग ड्यूटी को लेकर दोनों पक्ष – स्टाफ और प्रशासन – पूरे दिन अपने-अपने रुख पर अडिग रहे। ऐसा न हो कि कहीं यह हाहाकार सबर्बन और मेल डिपो तक भी पहुंच जाए और पूरा डिवीजन ही ठप पड़ जाए!

इसका कारण यह है कि मुंबई मंडल के डिवीजनल ऑफीसर मालगाड़ियों की वर्किंग को बिना किसी प्रैक्टिकल एक्सरसाइज के अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं। जबकि स्टाफ साइड का स्पष्ट कहना है कि उन्हें अपनी ड्यूटी के लिए अपने कर्तव्य के निर्वाह में कतई संकोच नहीं है, परंतु इस मंडल में लोकल ट्रेनें तथा मेल ट्रेनों का अत्यधिक घनत्व होने के कारण समय पर लाइन क्लियर नहीं मिल पाने की समस्या सबसे बड़ी है। जिसके चलते ड्यूटी ऑवर्स हमेशा बर्स्ट होते रहते हैं।

तथापि प्रशासन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। स्टाफ साइड का कहना है कि पीसीओएम द्वारा इससे संबंधित आए दिन 11 ऑवर्स मीटिंग भी ली जाती है, जब पुरानी परिस्थितियों में ही स्टाफ प्रतिदिन 11 घंटे से अधिक कार्य कर रहा है, तो इन नई परिस्थितियों के चलते स्टाफ कितने घंटे कार्य करेगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।

इस संदर्भ में 28 फरवरी को प्रशासन तथा स्टाफ प्रतिनिधियों के बीच आम सहमति हेतु एक मीटिंग रखी गई थी। इस मीटिंग में स्टाफ प्रतिनिधियों ने प्रशासन की कुछ बातों को स्वीकारा तथा कुछ बातों को प्रैक्टिकल न होने के कारण अस्वीकार कर दिया। कुछ चीजों पर 15 दिन ट्रायल करके उसके रिजल्ट देखने की बात भी कही गई थी।

परंतु अचानक 01/04/2022 को प्रशासन ने अपनी मर्जी से मालगाड़ियों की नई वर्किंग का आदेश निकाल दिया। इस आदेश को तत्काल प्रभाव से लागू करने की बात भी इसी आदेश में कही गई। स्टाफ प्रतिनिधियों द्वारा प्रशासन को इस बारे में समझाने का प्रयास किया गया कि मुंबई मंडल की परिस्थितियों को देखते हुए यह वर्किंग संभव नहीं है। इसमें चालकों तथा गार्डों की ड्यूटी बहुत ज्यादा हो जाएगी, जिससे स्टाफ की परेशानी भी बढ़ जाएगी।

प्रशासन की यह सख्ती कहीं उसी पर भारी न पड़ जाए!

लेकिन प्रशासन ने अपने रुख को सख्त करते हुए किसी भी तरह के समझौते से इनकार कर दिया। इसके चलते मालगाड़ी चालकों तथा गार्डों का स्वतः स्फूर्त आंदोलन सुबह से ही कल्याण, लोनावला तथा पनवेल डिपो में शुरू हो गया। प्रशासन अपने रुख से पीछे हटने को तैयार नहीं था। पुलिस का दबाव बनाने की भी कोशिश की गई, इससे स्टाफ में और भी ज्यादा रोष व्याप्त हुआ और धीरे-धीरे गाड़ियां बंद होनी चालू हो गईं।

बुधवार सुबह से ही मुंबई मंडल में मालगाड़ियों का आवागमन अवरुद्ध पड़ा हुआ है, परंतु दोनों पक्षों में से कोई भी अपने निर्णय से पीछे हटने को तैयार नहीं है। अब यह परिस्थिति क्या है? ऐसा क्यों हो रहा है? यह होना चाहिए, या नहीं? आइए, इस पर एक नजर डालते हैं –

वर्किंग किसी भी तरह की हो, हर कार्य को करने का अपना एक निर्धारित तरीका होता है। जिसमें कि सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए एक पैटर्न तैयार किया जाता है। चूंकि मुंबई मंडल में दैनंदिन लगभग 200 मेल/एक्सप्रेस गाड़ियों और 1810 लोकल ट्रेनों का इतना अधिक घनत्व है कि मालगाड़ियों का समय पर संचालन बहुत मुश्किल पड़ता है। प्रशासन जब एक पक्षीय सोच रखते हुए निर्णय लेता है, तो वह “व्हील मूवमेंट” की बात करता है, जो कि पूरी तरह से अतार्किक है।

स्टाफ जब अपनी ड्यूटी पर समय पर आया और उसने एक बार साइन ऑन कर दिया तो वह रेलवे के कार्य के लिए समर्पित हो जाता है। नियमानुसार उसकी ड्यूटी तभी से चालू हो जाती है। प्रशासन उसे नजरअंदाज करते हुए व्हील मूवमेंट की बात करता है और यह बताना चाहता है कि मुंबई मंडल में मालगाड़ियां मात्र 10 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से कार्य कर रही हैं।

उल्लेखनीय है कि मुंबई मंडल एक ऐसा मंडल है कि यदि कोई गाड़ी 2 मिनट के लिए भी सेक्शन में खड़ी हो जाए, तो दुनिया भर का हंगामा हो जाता है। तब फिर मालगाड़ी कैसे 10 किमी की गति से चलाई जा सकती है? और यह क्या स्टाफ की गलती है? या फिर क्या स्टाफ इसके लिए जिम्मेदार है? इसका वास्तविक कारण यह है कि यार्डों में गाड़ियां 4-4, 5-5 घंटे तक अधिकारियों की लापरवाही अथवा अकारण लाइन क्लियर न मिलने के कारण खड़ी रहती हैं।

ज्ञातव्य है कि मुंबई मंडल में मालगाड़ियों के वर्किंग डिपो से उनके डेस्टिनेशन तक, कहीं भी डेढ़ या दो घंटे से ज्यादा की रनिंग नहीं है। परंतु अधिकांश माल गाड़ियों को अपने डेस्टिनेशन तक पहुंचने में 8 से लेकर 12-14 घंटे तक लग जाते हैं। यह केवल इसलिए होता है कि उनको लाइन क्लियर नहीं मिल पाती है। लाइन क्लियर न मिल पाना प्रशासन की प्रैक्टिकल प्रॉब्लम है, उसका स्टाफ से कोई लेना देना नहीं है। स्टाफ गाड़ी चलाने को तैयार है लेकिन प्रैक्टिकल परिस्थितियों के चलते गाड़ियां समय पर नहीं चल पाती हैं।

स्टाफ साइड का कहना है कि प्रशासन व्हील मूवमेंट के फिगर देखता है और बोर्ड को गुमराह कर रहा है। जबकि वास्तविकता कुछ और है। एक तरफ यह नियम है कि 9+2 यानि स्टाफ से अधिकतम 11 घंटे कार्य कराया जा सकता है। जब सभी यह मानते हैं कि मुंबई डिवीजन ही 2 घंटे से ज्यादा वर्किंग का नहीं है, तो फिर 11 घंटे का सवाल ही कहां आता है? यदि लाइन क्लियर मिले तो गाड़ी अपने गंतव्य पर दो नहीं, तो तीन-चार या पांच घंटे में आसानी से पहुंचाई जा सकती है। लेकिन जब 5 घंटे तक गाड़ी यार्ड में ही खड़ी रहेगी, तो कैसे अपने गंतव्य पर पहुंच पाएगी?

स्टाफ वर्किंग की ग्राउंड पोजीशन

स्टाफ का कहना है कि इस वास्तविकता पर अधिकारी विचार क्यों नहीं करते? उनका कहना है कि चालकों पर एक नियम यह भी लागू होता है कि 16 घंटे के पर्याप्त विश्राम के बाद उनको अपनी ड्यूटी पर आना है। परंतु रनिंग रूम रेस्ट के बाद यह नियम लागू नहीं होता। वहां पर साइन ऑन से साइन ऑफ के बीच का समय पकड़ा जाता है। अर्थात स्टाफ ने जितने घंटे तक कार्य किया है, उसके आधे घंटे उसको रेस्ट दिया जाएगा।

उदाहरण के तौर पर यदि किसी स्टाफ ने 10 घंटे तक कार्य किया है, तो उसको उक्त नियम के अनुसार 5 घंटे रेस्ट दिया जाएगा। अब 5 घंटे में से 2 घंटे तो उसके रनिंग रूम में पहुंचने, फ्रेश होने, नहाने, खाने, फिर अगली गाड़ी के लिए अपने आप को प्रिपेयर करके और लॉबी से इंजन तक आने में चले जाते हैं। मुश्किल से 3 घंटे उसके रेस्ट के लिए बचे, लेकिन यदि कोई गाड़ी इसके भी पहले आ गई और कोई अन्य स्टाफ उपलब्ध नहीं है, तो उसी स्टाफ को अंडररेस्ट भी वर्किंग करने के लिए कहा जाता है। अगर वह मना करता है तो अधिकारी फोन करके उस पर दबाव बनाते हैं, तब भी नहीं मानने पर तुरंत निलंबित करने की धमकी देते हैं।

कई बार रनिंग रूम में ज्यादा स्टाफ के चलते बेड भी खाली नहीं मिलते हैं, तो स्टाफ विश्राम भी नहीं कर पाता है। यह भी एक वास्तविकता है, परंतु अधिकारी इस पर तनिक भी ध्यान देना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते हैं। आजकल मालगाड़ियां इतनी लंबी हैं कि यार्डों में या स्टेशनों पर पीने का पानी तक मुहैया नहीं होता, चाय-नाश्ते की तो बात ही अलग है। और फिर इन दो-तीन घंटे के विश्राम के बाद प्रशासन उससे यह उम्मीद करता है कि पुनः वह स्टाफ 11 घंटे तक काम करे। यह कहां तक तर्कसंगत है?

कोई स्टाफ प्रशासन की सुनने को तैयार नहीं!

वहीं एक नियम यह कहता है कि यदि स्टाफ अपने गंतव्य से 1 घंटे की दूरी पर खड़ा है, तो वह रिलीफ नहीं मांग सकता। मुंबई मंडल में 80% समय माल गाड़ियां गंतव्य से 1 घंटे से भी कम, यहां तक कि बमुश्किल दस मिनट की दूरी पर घंटों खड़ी रहती हैं। तब ऐसे समय में स्टाफ क्या करे? कितने घंटे तक कार्य करता रहे? जबकि प्रशासन उसको 1 घंटे दूरी का नियम बताकर, डरा-धमकाकर असीमित घंटे कार्य कराने का प्रयास करता है।

चालक का कार्य कितना संवेदनशील है, यह एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अच्छी तरह जानता है। उसकी एक छोटी सी गलती हजारों लोगों की जान-माल के लिए भारी मुसीबत बन जाती है। जबकि मालगाड़ी चालक की गलती करोड़ों रुपये का नुकसान रेलवे और राष्ट्र को दे सकती है और न जाने कितनी गाड़ियों का डिस्लोकेशन हो सकता है। ऐसे अति संवेदनशील पद पर काम करने वाले लोगों के साथ इस तरह का प्रशासनिक रवैया क्या संपूर्ण संरक्षा को धोखे में नहीं डाल रहा है?

यहां रेल प्रशासन उम्मीद करता है कि स्टाफ असुविधाओं के चलते भी हर विषम परिस्थिति में उसे कार्य करके दे। लेकिन दूसरी तरफ यदि किसी सिग्नल से दो इंच आगे भी अगर उसका पहिया चला जाता है तो प्रशासन दुनिया भर के संरक्षा नियम बताते हुए उसकी नौकरी खाने पर आमादा हो जाता है। स्टाफ का कहना है कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती, या तो प्रशासन काम करा कर ले और हमारी छोटी-मोटी गलतियों को नजरंदाज करे। अथवा अगर प्रशासन पुख्ता संरक्षा चाहता है, तो इस तरह के अवास्तविक कार्य आदेश निकालने से पहले वास्तविक परिस्थितियों का व्यापक अध्ययन करे।

उनका कहना है कि सिक्के के दोनों पहलू देखना बहुत जरूरी है। तभी कोई कार्य सही तरीके से किया जा सकता है। रेल अपने कर्मचारी को रोजी-रोटी प्रदान करती है, उसके परिवार का भरण-पोषण करती है, इसीलिए स्टाफ को कार्य करने में कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन प्रशासन से हम केवल सुगम परिस्थितियों में काम करने की अपेक्षा करते हैं।

उन्होंने कहा कि आज के अधिकारी अपने चेंबर में बैठकर अनेकों तरह का बेवजह दिमाग भिड़ा रहे हैं, जबकि वह अपनी बीट तक से अनभिज्ञ रहते हैं। वह कहते हैं कि कितने परिचालन अधिकारी हैं जिनको अपने जूरिडिक्शन की पूरी जानकारी है? लेकिन स्टाफ से चाहते हैं कि वह हर तरह का कार्य चुपचाप मुंडी नीचे करके करता रहे। यह न केवल अमानवीय है, बल्कि इस तरह संरक्षा के साथ बहुत बड़ा समझौता भी किया जा रहा है।

मुंबई मंडल एक छोटा सा मंडल होने के बावजूद इसमें बहुत सारे सेक्शन हैं, और हजारों अमानक सिग्नलों का जाल बिछा पड़ा है। कोई भी स्टाफ लगातार सारे डेस्टिनेशन पर नहीं जा पाता है। उसको जिस तरह की ड्यूटी मिलती है, उस सेक्शन में कार्य करता है। अनेकों सेक्शन ऐसे है जिनमें उसकी ड्यूटी में महीनों तक वहां जाना ही नहीं होता है। सभी तरह के यार्डों और सिग्नलों की जानकारी रखना बच्चों का खेल नहीं है।

यहां एक डेंजर सिग्नल पार करते ही उस चालक को नौकरी से निकालने की स्थिति आ खड़ी होती है, उस चालक से यदि यह उम्मीद की जाती है कि जब प्रशासन का मन करे उसे किसी भी सेक्शन में कार्य करने के लिए भेज दे, तो यह खतरे का बहुत बड़ा आमंत्रण है। प्रशासन को इसे बेहद से बेहद गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसा न हो कि कागज पर तो सर्व सुविधायुक्त रनिंग रूम और स्टाफ के ट्रांसपोर्टेशन की बहुत बढ़िया प्रस्तुति कर दी गई, मगर वास्तविक धरातल पर वस्तुस्थिति अलग एकदम होती है, जैसी कि निमारखेड़ी स्टेशन पर अभी देखने को मिली है।

चालकों को उनके निश्चित मार्ग पर ही कार्य कराया जाए, जिससे कि संचालन सुरक्षित और समय पर चलता रहे। स्टाफ और अधिकारी वर्ग, दोनों को प्रैक्टिकल अप्रोच रखनी चाहिए। स्टाफ तो सदैव फुट प्लेट पर रहता है, मगर अधिकारियों को भी चाहिए कि वे अपने चेंबर से निकलकर मालगाड़ियों पर दो-चार दिन घूमें, जिससे कि स्टाफ का भी मनोबल बढ़े और उस कार्य की क्या-क्या प्रैक्टिकल समस्याएं हैं, वास्तव में यह कार्य किस तरह से किया जा सकता है, इसका भी उन्हें अंदाज लगेगा। तभी वह कोई सही और प्रैक्टिकल या वर्केबल निर्णय ले पाने में सक्षम होंगे!

प्रस्तुति: सुरेश त्रिपाठी