कहां तक उचित है जीएम/डीआरएम को उन्हीं पदों पर पुनः पदस्थ किया जाना?
उन्हीं पदों के बजाय अन्य पदों पर पदस्थ किया जाना शायद ज्यादा सही होता!
आवश्यक है फील्ड स्टाफ के समान ही उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई
लोगों को नाराज किए बिना संभव नहीं है रेलवे की हालत में किसी प्रकार का सुधार
सुरेश त्रिपाठी
19 अगस्त को हुई खतौली दुर्घटना के बाद देश भर में उठे विवाद और करोड़ों रेलयात्रियों में रेलयात्रा के प्रति पैदा हुई असुरक्षा की भावना के चलते जबरन छुट्टी पर भेजे गए उत्तर रेलवे के महाप्रबंधक आर. के. कुलश्रेष्ठ और दिल्ली मंडल, उत्तर रेलवे के मंडल रेल प्रबंधक (डीआरएम) आर. एन. सिंह को पूरे एक महीने के पश्चात् सोमवार, 18 सितंबर को पुनः ड्यूटी पर वापस ले लिया गया है. जबकि उन्हीं के साथ जबरन छुट्टी पर भेजे गए तत्कालीन मेंबर इंजीनियरिंग, रेलवे बोर्ड ए. के. मित्तल को 30 अगस्त को ड्यूटी पर बुला लिया गया था और अगले दिन 31 अगस्त को उनका पूर्व निर्धारित रिटायरमेंट कर दिया गया था.
उल्लेखनीय है कि उत्तर रेलवे, दिल्ली मंडल के दिल्ली-सहारनपुर ब्रॉड गेज विद्युतीकृत खंड के सिंगल लाइन सेक्शन में खतौली-मंसूरपुर स्टेशनों के बीच किमी. संख्या 101/3-4 के पास 19 अगस्त को 17.47 बजे गाड़ी संख्या 18477, पुरी-हरिद्वार कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस की भयानक दुर्घटना में पूरी ट्रेन न सिर्फ डिरेल हुई थी, बल्कि उसके कई डिब्बे एक-दूसरे पर चढ़कर बुरी तरह चकनाचूर भी हुए थे. घोषित रूप से इस घटना में 23 यात्री असमय काल-कवलित और सैकड़ों घायल हुए, मगर जिस तरह पूरी गाड़ी चकनाचूर हुई, उसे देखते हुए और कई प्रत्यक्षदर्शियों तथा राहत कार्य में लगे कुछ रेल अधिकारियों ने ‘रेलवे समाचार’ के साथ अंतरंग बातचीत में यह स्वीकार किया कि इस दुर्घटना में वास्तव में 200 से ज्यादा यात्री हताहत और सैकड़ों की संख्या में घायल हुए थे, जिसकी वास्तविक जानकारी बाहर नहीं जाने दी गई थी.
उक्त दोनों वरिष्ठ अधिकारियों – जीएम और डीआरएम – के साथ ही दिल्ली मंडल के निलंबित वरिष्ठ मंडल अभियंता-2 और सहायक मंडल अभियंता को भी माइनर पेनाल्टी चार्जशीट के साथ ड्यूटी पर वापस ले लिया गया है. जबकि एक वरिष्ठ खंड अभियंता (एसएसई) एवं कनिष्ठ अभियंता (जेई) का निलंबन अब तक जारी है. हालांकि नौकरी से बर्खास्त किए गए 12 ट्रैक मेंटेनर और एक जेई को फिलहाल कोई राहत नहीं मिली है. तथापि, श्रमिक संगठनों का दबाव उन्हें पुनः नौकरी पर वापस लेने का बना हुआ है, जिसके लिए वह लगातार विरोध प्रदर्शन करके रेल प्रशासन पर अपना दबाव बना रहे हैं. यह पूरी तरह संभव है कि जिस प्रकार एक महीने बाद माहौल शांत होते ही जीएम/डीआरएम को उनका जबरन वनवास खत्म करके ड्यूटी पर ले लिया गया, उसी प्रकार जैसे-जैसे लोगों का ध्यान उक्त भीषण दुर्घटना की तरफ से हटता जाएगा, वैसे-वैसे निलंबित एसएसई/जेई और बर्खास्त जेई एवं ट्रैक मेंटेनर्स को भी श्रमिक संगठनों के दबाव में पुनः नौकरी पर बहाल कर दिया जाएगा. दुराचारी, कामचोर और भ्रष्ट रेलकर्मियों के मामले में आज तक ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होने वाला है.
हालांकि ‘रेलवे समाचार’ ने भी एमई, जीएम और डीआरएम को ड्यूटी पर वापस लिए जाने की बात इस आधार पर कही थी कि उनका फील्ड वर्क से कोई सीधा संबंध नहीं होता है. इसका मतलब यह कतई नहीं था कि उन्हें समान पद पर पुनः पदस्थापित किया जाए, क्योंकि उनकी प्रशासनिक कोताही से इंकार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा खतौली दुर्घटना के मामले में सिर्फ एक बोर्ड मेंबर (एमई) ही अकेले जिम्मेदार नहीं था, बल्कि पूरा रेलवे बोर्ड उसके लिए जिम्मेदार और जवाबदेह था, और इसके लिए सीआरबी सहित पूरे रेलवे बोर्ड को तत्काल बर्खास्त किया जाना ही वास्तव में सही कदम होता. जिस प्रकार कैबिनेट के निर्णयों में सभी मंत्रियों की सामूहिक जिम्मेदारी होती है, उसी प्रकार रेलवे बोर्ड मेंबर्स की भी रेलवे के प्रत्येक निर्णय और घटना-दुर्घटना के लिए उनकी सामूहिक जिम्मेदारी एवं जवाबदेही बनती है. इस संदर्भ में एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ रेल अधिकारी का कहना है कि ‘मेंबर इंजिनीरिंग या कोई भी बोर्ड मेंबर सिर्फ अपने विभाग के लिए काम नहीं करता है, या वह सिर्फ अपने विभाग का ही बोर्ड मेंबर नहीं होता है, बल्कि वह पूरी भारतीय रेल के लिए काम करता है. इस प्रकार बतौर बोर्ड मेंबर वह पूरी भारतीय रेल का प्रतिनिधित्व करता है. अतः किसी एक बोर्ड मेंबर को किसी दुर्घटना या गलत निर्णय के लिए जिम्मेदार मानकर जबरन छुट्टी पर भेजा जाना सही कदम नहीं था.’ इसी से तत्कालीन रेलमंत्री की अनभिज्ञता और नासमझी प्रमाणित होती है.
‘रेलवे समाचार’ का मानना है कि खतौली जैसी भयंकर दुर्घटना भारतीय रेल में पहली बार नहीं हुई है. खतौली दुर्घटना के बीज वर्ष 2002 में ही तब पड़ गए थे, जब तत्कालीन मध्य रेलवे, भोपाल मंडल के हरदा स्टेशन के पास गोवा एक्सप्रेस की भयंकर दुर्घटना होने से बाल-बाल बची थी. तब भी इसी तरह बिना ब्लॉक लिए ही रेलकर्मी ट्रैक पर स्लीपर रखकर और रेल काटकर उसको रिप्लेस कर रहे थे. उक्त दुर्घटना इसलिए बची थी, क्योंकि गोवा एक्स. का चालक बहुत सतर्क और अनुभवी था. तब भोपाल मंडल के तत्कालीन वरिष्ठ मंडल परिचालन प्रबंधक अमित चौधरी ने संबंधित कर्मचारियों के विरुद्ध तत्काल एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया था. इस पर मध्य रेलवे के तत्कालीन मिथ्याचारी महाप्रबंधक एस. पी. एस. जैन ने अमित चौधरी का ही तबादला कर दिया था और उनका साथ देने वाले अजीत सक्सेना जैसे कुछ अन्य अधिकारियों की एसीआर खराब करने सहित उनका भारी उत्पीड़न भी किया था. ‘रेलवे समाचार’ ने इसी घटना के बाद एस. पी. एस. जैन को ‘मिथ्याचारी महाप्रबंधक’ की उपाधि से नवाजा था.
एक सेवानिवृत्त ट्रैफिक अधिकारी का कहना है कि पिछले पंद्रह वर्षों में पूरी व्यवस्था सड़ गई है. उनका कहना है कि पहले हरदा था, अब खतौली है, इनमें सिर्फ स्थानों का नाम बदला है, बाकी कुछ नहीं. हरदा का ड्राइवर अनुभवी था, उसने ट्रैक पर अवरोध देखकर गाड़ी रोक दी थी, खतौली का ड्राइवर अनाड़ी था, इसीलिए वह धड़धड़ाते हुए गाड़ी लेकर चला गया. पंद्रह साल पहले जिस तरह अमित चौधरी को बलि का बकरा बनाया गया था, उसी के परिणामस्वरूप आज सभी ट्रैफिक अधिकारी तकनीकी विभागों के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं. उनकी अकड़ का परिणाम अब खतौली के रूप में पुनः सामने आया है. जबकि तमाम दुर्घटनाएं रिपोर्ट ही नहीं होती हैं. केरल प्रदेश में पिछले एक साल के दौरान ऐसी कई गंभीर घटनाएं हुईं, वहां के सांसद चिल्लाते और शोर मचाते रहे, मगर कोई परिणाम नहीं निकला. नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म एप्रन का कार्य पिछले पांच-छह सालों से मंजूर हुआ पड़ा है, मगर ब्लॉक न मिलने यह आज तक नहीं हो पाया है. इसलिए उच्च अधिकारियों को सीधे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जो कि सबको खुश करने के लिए मंत्री-संतरी की तरफ मुंह कर लेते हैं, इसीलिए पूरी व्यवस्था चरमरा रही है. अतः उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई होना वर्तमान की आवश्यकता है. उनका कहना था कि यदि ऐसा होता, तो सभी उच्च अधिकारी अपनी-अपनी खाल बचाने के लिए ऊल-जलूल हरकतें छोड़कर अपने काम पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देते और तब द.पू.म.रे. के पूर्व ‘महिलोन्मुख’ महाप्रबंधक और डीआरएम/रायपुर जैसे आपूर्तिकर्ता बच नहीं पाते.
उच्च अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराए जाने को उचित मानते हुए और ऊपरी स्तर पर उच्च अधिकारियों द्वारा किसी भी गंभीर घटना को कितने सतही या हलके रूप में लिया जाता है, इस बारे में एक पूर्व वरिष्ठ रेल अधिकारी ने अपना अनुभव ‘रेलवे समाचार’ के साथ साझा करते हुए बताया कि महाप्रबंधक के साथ होने वाली समीक्षा बैठकों में एक बार जब गरीब रथ को गुड्स ड्राइवर द्वारा चलाए जाने और क्रेन के चालू ओएचई पर काम करने का मामला आया, तो जीएम ने इस पर अच्छा.. अच्छा.. नेक्स्ट.. कहकर मामले को नजरअंदाज कर दिया. जीएम के साथ अन्य विभाग प्रमुखों का भी वही रवैया था. तभी एक विभाग प्रमुख ने इसे गंभीर मामला बताते हुए इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की बात कही, तब जीएम सहित एकाध अन्य विभाग प्रमुख ने जैसे अफ़सोस जाहिर करने वाले अंदाज में सिर हिलाते हुए कहा कि हां.. हां.. ऐसे मामलों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. परंतु बैठक की अगली कार्यवाही पुनः उसी ढ़र्रे पर चल पड़ी. इस अधिकारी का कहना था कि ऐसी बैठकों में भुने हुए काजू-बादाम और बेहतरीन मिठाईयां खाते हुए रेलवे बोर्ड और जोनल मुख्यालयों के इन उच्च स्तरीय अधिकारियों का रवैया एकदम सतही होता है, इसलिए प्रत्येक घटना-दुर्घटना के लिए ऊपरी स्तर के इन अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराए जाने पर ही अब जमीनी व्यवस्था में सुधार की कोई उम्मीद की जा सकती है.
इस अधिकारी का यह भी कहना था कि उत्तर रेलवे के वर्तमान महाप्रबंधक एक डरपोक किस्म के जीव हैं, जो कि न सिर्फ अपनी बीवी से डरते हैं, (हालांकि इस मामले में दुनिया के सभी पुरुष एक समान हैं), बल्कि श्रमिक संगठनों से भी बुरी तरह खौफ खाते हैं. ऐसे में उनसे किसी कड़े प्रशासनिक निर्णय या सुधार की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है. उनका कहना था कि दुर्भाग्य से वर्तमान में उत्तर रेलवे एवं उत्तर मध्य रेलवे सहित ज्यादातर जोनों में कर्महीन, अकर्मण्य और नाकाबिल अधिकारी महाप्रबंधक पद की शोभा बने हुए हैं. उनकी इन नाकाबिलियतों और प्रशासनिक कोताहियों के लिए सिर्फ गैंगमैन या फील्ड स्टाफ को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए. उनका यह भी कहना था कि यदि प्राथमिक जांच में 13 फील्ड कर्मचारियों को दोषी मानते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त किया गया है, तो उसी स्तर पर समान कार्रवाई नीचे से ऊपर तक के लिए होनी चाहिए थी. नियम-कानून सबके लिए समान हैं, इसमें भेदभाव का ही नतीजा है कि आज पूरी व्यवस्था चौपट होकर रह गई है.
कई वरिष्ठ रेल अधिकारियों का मानना है कि जीएम और डीआरएम को पूर्ववत पूर्व पदों पर वापस लाए जाने का अच्छा संदेश नहीं गया है. उनका कहना है कि अच्छा यह होता कि जिस तरह पूर्व में ऐसे अधिकारियों को अन्यत्र पदस्थ कर दिया गया, उसी तरह इस बार भी किया गया होता, तो इसका ज्यादा बेहतर संदेश गया होता. उनका मानना है कि चूंकि वर्तमान सीआरबी जमीन से जुड़े एक सीधे-सरल, मिलनसार और नेक इंसान हैं, और वह अधिकारियों एवं कर्मचारियों को अपनी गलतियां सुधारने तथा उन्हें व्यवस्था के अनुकूल बनाने में विश्वास करते हैं. परंतु उनकी इन तमाम खूबियों और सहृदयता का गलत इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि जो अधिकारी जबरन छुट्टी (दंड) के बाद वापस उसी जगह वापस आया हो, उसकी अब कौन सुनेगा? उनका कहना है कि अपनी भलमनसाहत के चलते सीआरबी किसी को नाराज नहीं करना चाहते हैं, मगर सच्चाई यह है कि वर्तमान हालात में बिना नाराज किए रेलवे की हालत में किसी प्रकार का सुधार संभव नहीं है. यहां अब यह सुनिश्चित करना होगा कि कौरव और पांडव कौन हैं, दोनों को एकसाथ मिलाकर नहीं देखा जा सकता है. हालांकि उनका यह भी कहना है कि किसी को बचा लेने और माफ कर देने में कुछ भी गलत नहीं है, मगर उन्हें उसी पद के बजाय किसी अन्य पद पर पदस्थ किया जाना शायद ज्यादा सही होता!
कई अधिकारियों का यह भी कहना है कि यदि जीएम एवं डीआरएम की समान पद पर पुनर्वापसी रेलमंत्री की संस्तुति से की गई है, तो इसे ‘सुरेश प्रभु पार्ट-2’ की संज्ञा दी जानी चाहिए, क्योंकि रेलमंत्री के इस अविचारित निर्णय से यह प्रमाणित होता है कि उनके पूर्ववर्ती सुरेश प्रभु द्वारा लिया गया निर्णय गलत था और उक्त तीनों अधिकारियों (एमई/जीएम/डीआरएम) का कोई दोष नहीं था, उन्हें अकारण अथवा जनमानस के आक्रोश को शांत करने या उसको दिग्भ्रमित करने के लिए जबरन बलि का बकरा बनाया गया था?
अपनी बरबादी का सामान अपने साथ ले गए सुरेश प्रभु !!
पूर्व रेलमंत्री सुरेश प्रभु को रेल मंत्रालय से बड़े बेआबरू होकर जाना पड़ा और यह बेइज्जती उन्हें कलर-ब्लाइंड ‘स्टोरकीपर’ ए. के. मितल के कारण झेलनी पड़ी, जिन्हें उन्होंने बड़े भरोसे के साथ पीएमओ से सीआरबी के पद पर एकमुश्त दो साल की पुनर्नियुक्ति दिलवाई थी. हालांकि ‘स्टोरकीपर’ को भी बड़ी बेइज्जती के साथ त्याग-पत्र देकर जाना पड़ा है. यहां तक तो फिर भी ठीक था, परंतु जाते-जाते सुरेश प्रभु अपनी बरबादी का वह सामान भी रेल मंत्रालय से अपने साथ लेकर गए हैं, जिसके कारण वह एक अलोकप्रिय रेलमंत्री साबित हुए. यह सामान है उनके ईडीपीजी रहे अनंत स्वरूप और ओएसडी हनीश यादव. रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) के अधिकारियों सहित रेलवे के जानकारों को आश्चर्य इस बात का हो रहा है कि सुरेश प्रभु की अलोकप्रियता, बदनामी और बरबादी का कारण बने उक्त दोनों सहायकों के कामकाज करने के तौर-तरीकों के बारे में न तो उन्होंने कभी विचार किया और न ही उन्हें पुनः अपने साथ ले जाने में अपने विवेक का इस्तेमाल कर पाए. उनका कहना है कि उक्त दोनों सहायकों ने रेल मंत्रालय में तो सुरेश प्रभु का भट्ठा बैठाया ही था, अब वाणिज्य मंत्रालय में भी उनकी असफलता का कारण यही दोनों सहायक बनेंगे. इसके अलावा जानकारों का यह भी कहना है कि जिस सरकार को तीन साल में तीन रेलमंत्री बनाने पड़े हों, वह रेलवे का पुनर्रुद्धार कर पाएगी, इसमें आशंका है.